मोह के जाल को जीत लेने के बाद अर्जुन को लगा कि अब उसकी साधना आसान हो जाएगी। परंतु जीवन हर मोड़ पर नई चुनौती देता है। इस बार चुनौती थी – अकेलापन।
गाँव के बाकी लड़के अब अर्जुन से दूर रहने लगे। उन्हें लगता कि अर्जुन अब उनके जैसा नहीं रहा।
रघु ने एक दिन हँसते हुए कहा –
“अर्जुन, तू तो अब साधु बन गया है। चल हमसे दूर रह, हमें तेरी उपदेशबाज़ी नहीं चाहिए।”
दूसरे लड़के भी उसका मज़ाक उड़ाने लगे –
“देखो! संत महाराज आ रहे हैं। अब हमको पाप-पुण्य सिखाएँगे।”
अर्जुन बाहर से चुप रहता, लेकिन अंदर ही अंदर उसे गहरा आघात होता।
वह सोचता –
“क्या सच्चाई की राह चुनने का यही परिणाम है? अपने ही दोस्त मज़ाक उड़ाएँगे? क्या साधक को इतना अकेला होना पड़ता है?”
धीरे-धीरे वह सबकी आँखों में अजनबी बन गया।
जब गाँव में उत्सव होता, सब लड़के नाचते-गाते, लेकिन अर्जुन अकेला घर पर बैठा रहता।
जब मेले में जाने की तैयारी होती, सब उसे बुलाते ही नहीं।
अर्जुन के दिल में कसक उठती –
“क्या मैं सचमुच उनसे अलग हूँ? या यह मेरा अहंकार है कि मैं सोचता हूँ मैं सही हूँ?”
उसके मन में संदेह और अकेलेपन का बोझ बढ़ने लगा।
एक दिन रात को वह खेतों के किनारे बैठा आसमान की ओर देखने लगा। सितारे चमक रहे थे, चाँद अपनी रोशनी बिखेर रहा था।
अर्जुन ने आकाश से कहा –
“हे प्रभु, मैं क्यों इतना अकेला हूँ? क्या यही मेरी साधना की कीमत है? दोस्त छूट गए, हँसी-खुशी छूट गई… अब तो लगता है जीवन एक खालीपन है।”
उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।
अगली सुबह वह गुरुजी के पास गया और बोला –
“गुरुदेव, मैं अब और नहीं सह सकता। लोग मुझसे दूर हो गए हैं। मैं अकेला पड़ गया हूँ। जब सभी दोस्त हँसते-खेलते हैं, तो मेरा मन भी तड़पता है। क्या ब्रह्मचर्य का मार्ग इंसान को इतना अकेला बना देता है?”
गुरुजी मुस्कुराए और बोले –
“बेटा, अकेलापन और एकांत – ये दोनों अलग चीजें हैं। अकेलापन तब होता है जब तू लोगों की कमी महसूस करता है। एकांत तब होता है जब तू खुद को ही पूर्ण मान लेता है। साधक को अकेलेपन से डरना नहीं चाहिए, बल्कि एकांत को मित्र बनाना चाहिए।”
अर्जुन ने उलझन में पूछा –
“गुरुदेव, लेकिन जब सब मुझे छोड़ देते हैं, तो मैं कैसे खुश रहूँ?”
गुरुजी ने उत्तर दिया –
“अर्जुन, याद रख – लोग तेरे साथी हैं, पर तेरी आत्मा ही तेरा सच्चा मित्र है। अगर तू अपनी आत्मा से जुड़ गया, तो अकेलापन मिट जाएगा। जब तू भीतर से भर जाएगा, तो बाहर की भीड़ की ज़रूरत नहीं रहेगी।”
गुरुजी की बातें अर्जुन के दिल में उतर गईं।
उस दिन से उसने अकेलेपन को बोझ न मानकर साधना मानना शुरू किया।
वह नदी किनारे बैठकर लंबे समय तक ध्यान करने लगा। पहले उसे खामोशी डरावनी लगती थी, लेकिन धीरे-धीरे वही खामोशी उसे मीठी लगने लगी।
जब हवा पेड़ों की पत्तियों को हिलाती, तो उसे लगता मानो ईश्वर उससे बात कर रहे हैं।
जब पक्षियों की चहचहाहट सुनाई देती, तो उसे लगता कि ये सब उसके साथी हैं।
जब चाँदनी रात में नदियाँ चमकतीं, तो उसे लगता मानो ब्रह्मांड उसकी गोद में है।
अब वह अकेला नहीं था – उसे अपना सच्चा मित्र मिल गया था – स्वयं का आत्मा।
लेकिन परीक्षा अभी पूरी नहीं हुई थी।
एक दिन गाँव में बड़ी शादी थी। ढोल-नगाड़े बज रहे थे, सभी लोग रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर नाच रहे थे।
अर्जुन के मन में फिर कसक उठी –
“काश! मैं भी इनके साथ हँस-गाता। क्या मेरी राह मुझे जीवन की खुशियों से वंचित कर देगी?”
वह थोड़ी देर शादी देखने गया, लेकिन फिर खुद को सँभालते हुए वापस लौट आया।
रात को उसने ध्यान में बैठकर मन से कहा –
“अर्जुन, याद रख! ये सब क्षणिक खुशियाँ हैं। असली आनंद भीतर है। तू अगर बाहर की भीड़ में आनंद ढूँढ़ेगा, तो हमेशा खाली रहेगा। लेकिन अगर तू भीतर झाँकेगा, तो कभी अकेला नहीं होगा।”
धीरे-धीरे उसका मन फिर स्थिर हो गया।
कुछ महीनों में गाँववालों ने भी बदलाव देखना शुरू किया।
अब अर्जुन चुप रहने वाला अकेला लड़का नहीं था, बल्कि उसकी आँखों में गहरी शांति झलकती थी।
लोग कहते –
“अर्जुन की चुप्पी में कुछ तो रहस्य है। उसके पास बैठकर मन अपने-आप शांत हो जाता है।”
यह वही अर्जुन था जिसे कभी लोग “साधु बालक” कहकर हँसते थे।
लेकिन अब वही अर्जुन लोगों के लिए प्रेरणा बन रहा था।
उस रात अर्जुन ने डायरी में लिखा –
“आज मैंने समझा कि अकेलापन सज़ा नहीं, बल्कि वरदान है। अकेलापन वही महसूस करता है जो खुद से दूर होता है। जब इंसान अपने भीतर उतरता है, तो उसे लगता है कि वह कभी अकेला था ही नहीं। मेरे मित्र सितारे हैं, मेरा साथी चाँद है, मेरी माँ धरती है, और मेरा सच्चा मित्र मेरी आत्मा है। अब मैं कभी अकेला नहीं हूँ।”
इस तरह अर्जुन ने अपनी पाँचवीं कठिनाई – अकेलेपन की परीक्षा – भी पार कर ली। अब उसका संकल्प और मजबूत हो चुका था। वह जान चुका था कि साधना का असली साथी भीतर ही है।