Brahmchary ki Agnipariksha - 4 in Hindi Short Stories by Bikash parajuli books and stories PDF | ब्रह्मचर्य की अग्निपरीक्षा - 4

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ब्रह्मचर्य की अग्निपरीक्षा - 4

गुरुजी से आशीर्वाद पाकर अर्जुन का आत्मविश्वास और बढ़ गया था। अब उसकी दिनचर्या बिल्कुल साधक जैसी हो गई थी। सुबह सूर्योदय से पहले उठना, नदी में स्नान करना, योग और प्राणायाम करना, दिन भर पढ़ाई और ध्यान, और रात को जल्दी सो जाना। गाँव के लोग अब उसे “साधु बालक” कहकर पुकारने लगे थे।

लेकिन जीवन में हर ऊँचाई पर परीक्षा होती है। अर्जुन की अगली परीक्षा उससे कहीं कठिन थी, जितनी उसने सोचा भी नहीं था।

एक दिन खबर आई कि गाँव में एक नई नर्तकी आई है – चंपा। उसका सौंदर्य और नृत्य देखने के लिए आस-पास के गाँवों से भीड़ उमड़ने लगी। लोग कहते –
“चंपा की चाल मोर जैसी है, उसकी आँखें तीर चलाती हैं, और उसकी मुस्कान से दिल पिघल जाता है।”

यह बातें सुनकर गाँव के युवा तो मोहित हो गए। अर्जुन के दोस्त भी उत्साहित होकर उसके घर आए।

“अर्जुन, इस बार तो तुझे चलना ही पड़ेगा। चंपा का नाच तूने देखा तो जान जाएगा कि जीवन का असली सुख क्या है।”

अर्जुन ने संयमित स्वर में कहा –
“मित्रों, मैं पहले ही कह चुका हूँ कि मुझे इन सब चीज़ों में रुचि नहीं। मेरा सुख भीतर है।”

रघु ने हँसते हुए कहा –
“अरे! ये भीतर-बाहर छोड़ दे। एक बार देख तो ले, फिर जो चाहे कर लेना।”

अर्जुन ने मना कर दिया। मगर उसके मन में एक हल्की जिज्ञासा जरूर जग गई।

कुछ दिनों तक उसने खुद को संभाला। लेकिन जब गाँव में हर ओर चंपा की चर्चा होने लगी – “उसकी आँखों ने तो दिल जीत लिया”, “उसके गाने की आवाज़ तो जैसे कोयल की है” – तो अर्जुन का मन डगमगाने लगा।

रात को ध्यान लगाते समय भी उसका मन बार-बार उसी ओर खिंच जाता।
“क्या सचमुच वह इतनी सुंदर है? अगर मैं देख भी लूँ तो क्या बुरा होगा? देखने भर से क्या संकल्प टूट जाता है?”

मन ने उसे बहकाना शुरू कर दिया।

एक शाम अर्जुन अकेले ही नदी किनारे बैठा था। तभी दूर से चंपा अपने साथियों के साथ पानी भरने आई। वह रंग-बिरंगी साड़ी पहने थी, और उसके गहनों की खनक हवा में घुल रही थी।

अर्जुन की नजर अनायास ही उस पर पड़ी। पहली बार उसने समझा कि सौंदर्य कितना मोहक होता है। उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसे लगा कि पैरों तले ज़मीन खिसक रही है।

चंपा ने भी क्षणभर के लिए अर्जुन को देखा और मुस्कुराई। यह मुस्कान अर्जुन के दिल पर जैसे तीर की तरह लगी।

वह तुरंत नजरें झुका कर बैठ गया। भीतर का द्वंद्व और तेज़ हो गया –
“अर्जुन! तूने क्या देखा? क्या यही तेरे संकल्प का अंत है? या यह सिर्फ़ मन की परीक्षा है?”

उस रात अर्जुन को नींद नहीं आई। जैसे ही आँखें मूँदता, उसे वही मुस्कान, वही रूप याद आ जाता। उसका मन कहता –
“देख अर्जुन, यह भी तो ईश्वर की रचना है। इसमें क्या गलत है? अगर तू उसे देख भी ले, बात भी कर ले, तो इसमें कौन-सा पाप है?”

लेकिन उसी समय गुरुजी की आवाज़ गूँजती –
“ब्रह्मचर्य केवल शरीर का संयम नहीं, बल्कि मन का भी संयम है। मोह से सावधान रहना।”

अर्जुन बेचैन हो उठा। कभी लगता – “मैं हार रहा हूँ।” कभी लगता – “नहीं, मुझे डटना होगा।”

अगली सुबह वह सीधे आश्रम पहुँचा। गुरुजी ध्यान में लीन थे। अर्जुन उनके चरणों में गिर पड़ा और रोते हुए बोला –
“गुरुदेव, मैं हार गया हूँ। मेरे मन ने मुझे डिगा दिया। मैं अब ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर पाऊँगा।”

गुरुजी ने उसकी ओर देखा और शांत स्वर में बोले –
“बेटा अर्जुन, यह कमजोरी नहीं, बल्कि साधना का हिस्सा है। मोह और आकर्षण स्वाभाविक हैं। इन्हें दबाना मत, इन्हें समझो। जब तक तू मोह को शत्रु मानकर डरता रहेगा, वह और बढ़ेगा। जब तू उसे समझेगा और स्वीकार करेगा, तभी वह शांत होगा।”

अर्जुन ने आश्चर्य से पूछा –
“गुरुदेव, मोह को स्वीकार कैसे करूँ?”

गुरुजी ने उत्तर दिया –
“बेटा, सुंदरता बुरी नहीं है। बुरा है – उस सुंदरता में फँस जाना। जैसे कमल कीचड़ में खिलता है लेकिन कीचड़ से लिपटता नहीं, वैसे ही साधक को संसार देखना चाहिए, पर उसमें लिपटना नहीं चाहिए। तू चंपा को देख सकता है, उसकी कला की सराहना कर सकता है, लेकिन अपने मन को यह याद दिला – ‘यह भी क्षणिक है, यह भी नश्वर है।’”

अर्जुन को समझ आया कि असली लड़ाई बाहर से नहीं, भीतर से है। उसने प्रण किया –
“अब मैं मोह से भागूँगा नहीं। मैं उसे समझकर जीतूँगा।”

अगली बार जब उसने चंपा को देखा, उसने उसकी ओर देखकर नम्र भाव से मुस्कुराया और मन ही मन कहा –
“तुम सुंदर हो, लेकिन तुम्हारी सुंदरता क्षणिक है। मैं उस शाश्वत सुंदरता की खोज में हूँ, जो आत्मा में है।”

अचानक उसका मन हल्का हो गया। वह अब विचलित नहीं था।

उस रात ध्यान में बैठते समय अर्जुन ने महसूस किया कि उसका मन पहले से ज्यादा शांत है। मोह का जाल जिसने उसे फँसाना चाहा, वही अब उसकी साधना का साधन बन गया।

उसने आँखें बंद कर प्रार्थना की –
“प्रभु, आपने मुझे मोह दिखाया ताकि मैं अपनी कमजोरी पहचान सकूँ। अब मैं जानता हूँ कि ब्रह्मचर्य भागने से नहीं, बल्कि समझने और जीतने से आता है।”

इस तरह अर्जुन ने मोह के जाल को तोड़ा। यह उसकी सबसे कठिन परीक्षाओं में से एक थी। उसने सीखा कि सुंदरता में बुराई नहीं, लेकिन उसे मोह बनाना ही सबसे बड़ी भूल है।

यही थी अर्जुन की चौथी परीक्षा – मोह का जाल, जिसने उसे और भी परिपक्व बना दिया। अब उसका संकल्प और गहरा हो चुका था।