Anhoni: Dar ki Dashtak in Hindi Horror Stories by Vedant Kana books and stories PDF | अनहोनी: दर की दस्तक

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अनहोनी: दर की दस्तक

गाँव के लोग कहते थे कि सबसे बड़ा डर वही है जिसका नाम लेने से ही रूह काँप जाए। उसी डर का नाम था अनहोनी। उसकी परछाईं उस पुराने किले पर मंडराती थी जो सदियों से वीरान खड़ा था। 

कहा जाता था कि उस किले के भीतर जो भी कदम रखता, उसके साथ कुछ ऐसा होता जिसे लोग इंसानी समझ से बाहर बताते।


बरसात की एक रात, जब पूरा गाँव अंधेरे में डूबा था, चार चरवाहे शर्त लगाकर उस किले की ओर निकल पड़े। हवा में सड़ांध और गीली मिट्टी की गंध तैर रही थी। 

जैसे ही वे किले के फाटक पर पहुँचे, लोहे का दरवाज़ा अपने आप चरमराता हुआ खुल गया। उनके पैरों के नीचे पत्थरों की सीढ़ियाँ गूँजने लगीं। भीतर अजीब सन्नाटा था, इतना गहरा कि अपनी ही साँसें भारी लग रही थीं।

किले के भीतर दीवारों पर जली हुई मशालों के निशान थे। कुछ कोनों में टूटी हड्डियाँ और बिखरे हुए बर्तन पड़े थे। अचानक एक कमरे से धीमी सरसराहट की आवाज़ आई। सबने सोचा शायद कोई जानवर होगा।

लेकिन जब उन्होंने दरवाज़ा खोला, तो भीतर खून से सना एक पुराना झूला पड़ा था, जो अपने आप हिल रहा था। उसकी चरमराहट सुनकर उनके शरीर से पसीना बह निकला।

सबसे साहसी चरवाहा रघुनाथ आगे बढ़ा। उसने झूले को छूने की कोशिश की, लेकिन झूला अचानक रुक गया और कमरे की दीवारों पर खून से लिखे शब्द उभर आए अनहोनी से कोई नहीं बच सकता। बाकी तीन डर से कांपते हुए दरवाज़ा पकड़कर बाहर भागना चाहते थे, मगर दरवाज़ा जैसे किसी अदृश्य ताकत ने बंद कर दिया हो।

किले के बीचोंबीच एक विशाल दरबार था। वहाँ एक पुरानी गद्दी रखी थी और उसके ऊपर धुंध से घिरी हुई आकृति बैठी थी। उस आकृति का चेहरा आग से जला हुआ था, आँखें अंगारे की तरह चमक रही थीं और गर्दन में लोहे की जंजीरें लटक रही थीं। उसने भारी आवाज़ में कहा, “तुमने सोचा अनहोनी एक झूठ है, लेकिन असली झूठ तुम्हारा यकीन है।”

अचानक दीवारें काँपने लगीं और ज़मीन से हाथ निकलकर उनके पैरों को पकड़ने लगे। चीख़ें गूँज उठीं। एक चरवाहे को उन हाथों ने नीचे खींच लिया और उसकी चीख़ हमेशा के लिए पत्थरों में समा गई। बाकी तीन कांपते हुए छूटने की कोशिश करने लगे।

रघुनाथ ने हिम्मत करके उस आकृति से पूछा, “तू कौन है?” उस परछाईं ने ठहाका लगाया और बोली, “मैं वही हूँ जो कभी इस किले का मालिक था। मैंने ज़ुल्म करके अनगिनत लोगों का खून बहाया। उनकी चीख़ें आज भी दीवारों में गूँजती हैं। मेरी मौत कोई अंत नहीं थी, वो अनहोनी की शुरुआत थी।”

तभी अचानक उस परछाईं ने अपना चेहरा रघुनाथ के करीब ला दिया। उसकी सड़ी हुई आँखों में उसने देखा कि वहाँ उसका ही प्रतिबिंब था, लेकिन जला हुआ और खून से लथपथ। बाकी दो चरवाहों ने पीछे मुड़कर देखा तो उनके साथ आया रघुनाथ अब गायब था। सिर्फ़ राख का ढेर पड़ा था।

दोनों डरकर बाहर भागे। उन्हें लगा कि शायद अब वे बच जाएँगे। लेकिन जैसे ही किले से बाहर निकले, उन्होंने देखा कि गाँव गायब हो चुका था। चारों ओर वही किला खड़ा था, जैसे दुनिया ही बदल गई हो। उनके पैरों तले ज़मीन काँपने लगी और आसमान से वही भारी आवाज़ गूँजी “अनहोनी कभी खत्म नहीं होती, यह बस अगली आत्मा का इंतज़ार करती है।”

उस रात के बाद उन चरवाहों को किसी ने नहीं देखा। किला आज भी खड़ा है और गाँव के लोग अब भी कहते हैं कि उसमें कदम रखना अनहोनी को बुलाना है। और अगर कभी रात के सन्नाटे में झूले की चरमराहट सुनाई दे, तो समझ लो कोई और उसकी गोद में हमेशा के लिए समा चुका है।