Childhood games in Hindi Moral Stories by Vijay Sharma Erry books and stories PDF | बचपन के खेल

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बचपन के खेल

बचपन के खेल 

✍️ लेखक – विजय शर्मा एरी

गाँव की कच्ची गलियों में शाम का धुँधलका उतर रहा था। खेतों से लौटते किसान बैलों की घंटियों के साथ घर आ रहे थे। लेकिन उन सबसे अलग, मोहल्ले के चौपाल पर एक टोली इकट्ठा हो चुकी थी—बच्चों की टोली।

पाँव में चप्पलें कम थीं, नंगे पाँव दौड़ने का मज़ा ही कुछ और था। किसी के हाथ में टूटी-फूटी बल्ला, किसी के पास कपड़े की गेंद, किसी के पास पुराने टायर का घेरा, और किसी के पास बस उत्साह।

“चलो, आज क्रिकेट खेलते हैं!” रोहित ने आवाज़ लगाई।“नहीं, लुका-छिपी!” रानी ने ज़िद की।“नहीं-नहीं, गिल्ली-डंडा!” छोटे पप्पू ने उछलकर कहा।

आख़िरकार बहस के बाद तय हुआ—पहले क्रिकेट, फिर लुका-छिपी।बचपन का मैदान

वो ज़माना ही अलग था।न कोई मोबाइल, न वीडियो गेम।उनके लिए ज़िंदगी का सबसे बड़ा सुख था शाम को मैदान में इकट्ठा होना और एक-दूसरे को पुकारना—“तू आउट है!” “नहीं, मैंने कैच पकड़ा था!”

खेल के बहाने कितनी मासूम हँसी फैलती थी।कभी बल्ले पर झगड़ा, कभी गेंद खोने पर आँसू, कभी किसी की माँ गुस्से में बुला लेती और बाकी सब मिलकर उसे मनाते।

रानी हमेशा गेंद छुपाकर रखती और कहती—“जब तक मुझे बैटिंग नहीं मिलेगी, गेंद नहीं दूँगी।”और सब हँस पड़ते।दोस्ती की डोर

समय धीरे-धीरे बच्चों की दोस्ती को और गहरा करता जा रहा था।कभी पेड़ पर चढ़कर अमरूद तोड़ना, कभी बरसात के पानी में नाव चलाना, कभी रात को गली में छुपकर भूत बनने का नाटक करना।

ये खेल सिर्फ खेल नहीं थे, बल्कि रिश्तों की डोर थे।हर शाम जब सूरज ढलता, बच्चों की चीख-पुकार मोहल्ले में गूँजती और बड़े-बूढ़े भी मुस्कुराकर कहते—“ये बचपन भी क्या चीज़ है!”बदलाव की आहट

लेकिन वक्त का पहिया कभी रुकता नहीं।धीरे-धीरे बच्चे बड़े होने लगे।

रोहित शहर पढ़ने चला गया।रानी की शादी हो गई।पप्पू भी अब मोबाइल में खो गया।

चौपाल खाली हो गई।मैदान में अब बस सूखी घास उगती।वो गली, जहाँ शाम को हँसी गूँजती थी, अब सन्नाटे से भरी रहने लगी।लौटती यादें

सालों बाद, गाँव में मेले का दिन था।रोहित नौकरी से छुट्टी लेकर गाँव आया।रानी अपने बच्चों के साथ मायके में आई थी।पप्पू अब बड़ा हो चुका था, पर अंदर वही बचपना कहीं छुपा था।

तीनों चौपाल पर मिले।कुछ देर चुप्पी रही।फिर रोहित ने हँसकर कहा—“याद है, रानी, तू गेंद छुपा लेती थी?”रानी खिलखिला उठी।“और याद है, रोहित, तू हमेशा आउट होकर बहस करता था कि मैं आउट नहीं हूँ?”पप्पू ने जोड़ा—“और जब मेरी गिल्ली खो गई थी, तो मैंने रो-रोकर पूरा मोहल्ला सिर पर उठा लिया था।”

तीनों की हँसी गूँज उठी।बच्चे इकट्ठा हो गए।

रानी का बेटा बोला—“माँ, आप भी क्रिकेट खेलती थीं?”रानी ने मुस्कुराकर कहा—“हाँ बेटा, और खूब खेलती थी।”

बच्चों ने ज़िद की—“हमें भी सिखाओ ना!”खेल फिर से जिंदा हुए

उस शाम चौपाल पर फिर वही नज़ारा था।बच्चों की टोली, उनके बीच पुराने खिलाड़ी—रोहित, रानी और पप्पू।हाथ में बल्ला, पैरों में वही जोश, आँखों में वही चमक।

समय जैसे पलट गया हो।वो पुराना बचपन फिर लौट आया।फर्क बस इतना था कि अब ये खेल सिर्फ खेल नहीं थे, बल्कि यादों की विरासत थे, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँच रहे थे।भावनाओं का सबक

उस दिन सबने महसूस किया—बचपन के खेल कभी मरते नहीं।वो हमेशा हमारे दिल में जीवित रहते हैं।कभी हँसी बनकर, कभी आँसू बनकर, कभी याद बनकर।

और असली ख़ुशी इसी में है कि हम उन खेलों को अगली पीढ़ी को भी दें, ताकि वो भी अपने बचपन की वही मिठास महसूस कर सकें।

🌸 समाप्त 🌸✍️ लेखक – विजय शर्मा एरी