श्रीनगर में सांगा का सैनिक पराक्रम
कुँवर संग्राम सिंह को राठौड़ बींदा के सेवक मारवाड़ ले आए थे और वहाँ बहुत दिनों तक उनका उपचार किया। उनके घावों को भरने में बहुत समय लगा और जब उनकी आँख से पट्टी हटाई गई तो पता चला कि उनकी वह आँख पूरी तरह ज्योतिविहीन हो गई है। चंद्रमा में दाग लग गया, कामदेव सरीखे कुँवर साँगा का व्यक्तित्व अब अपूर्ण हो गया था, फिर भी उस वीर पुरुष ने धैर्य न खोया। वहीं उन्हें राठौड़ बींदा के महान् बलिदान के बारे में भी पता चला और उनका हृदय उनके प्रति श्रद्धा से भर आया। अब वे चित्तौड़ नहीं जाना चाहते थे। उनके अग्रज ने जो किया था, उसका व्यापक प्रभाव चित्तौड़ में पड़ा होगा, जिसे वे लौटकर और अधिक संगीन नहीं बनाना चाहते थे। उन्हें राजसिंहासन का लालच नहीं था। वे मेवाड़ की प्रगति के पक्षधर थे और कदापि नहीं चाहते थे कि उनके कारण पारिवारिक विघटन हो जाए।
कुछ दिन और स्वास्थ्य-लाभ लेने के बाद संग्राम सिंह ने उन लोगों से विदा ली और मारवाड़ के एक अन्य गाँव में जा पहुँचे। अब उनके तन पर साधारण वस्त्र थे। मेवाड़ का राजकुमार आज एक साधारण निर्धन व्यक्ति था। साँगा ने जीवनयापन के लिए एक ग्वाले के यहाँ सेवक की नौकरी कर ली। ग्वाले के पास बहुत सी गाय और भैंसें थीं। साँगा का बलिष्ठ शरीर इस कार्य के लिए पूर्णतया अनुकूल प्रतीत हुआ और वह ग्वाला भी साँगा के कार्य से प्रसन्न था। भले ही साँगा को ऐसे कार्य का कोई अनुभव न था, परंतु फिर भी वह मनोयोग से कार्य करते थे। कोई नहीं कह सकता था कि उस साधारण सेवक के रूप में मेवाड़ का वह राजकुमार था, जो भविष्य में इतिहास बदल देने की क्षमता रखनेवाला था।
साँगा जितने समर्पण भाव से सेवा कार्य करते थे, उतने ही वे अपने सिद्धांतों के भी पक्के थे। समय पर सभी कार्य पूरे करना उनकी उचित प्रवृत्ति थी। उनके स्वामी ग्वाले को समय के प्रति उनकी ऐसी बाध्यता अखरती थी। ग्वाला इस कर्मनिष्ठा को क्या समझता? वह तो इसे समय बिताना मानता था। साँगा के भोजन का समय निश्चित था और मात्रा सामान्य से अधिक थी। वह साँगा को पेटू-भुक्कड़ तक कह देता था, जबकि इतने परिश्रम के पश्चात् उतना भोजन अस्वाभाविक नहीं था। एक और बात जो ग्वाले को अखरती थी, वह थी उस युवक का मौन और अकड़! वह क्या जानता था कि वह एक राजपूत कुँवर था, जिसके रक्त में मेवाड़ी शान की स्वाभाविक स्वाधीनता विद्यमान थी।
स्वामी ग्वाले को अपने सेवक का राजसी व्यवहार दिन-प्रतिदिन कुंठित करने लगा था और एक दिन उसके धैर्य का बाँध टूट गया। उसने जान-बूझकर उस दिन भोजन नहीं बनवाया और आराम से बैठ गया।
साँगा अपने कार्य निबटाकर निश्चित समय पर भोजन के लिए आए, परंतु आज भोजन बना हुआ न देखकर शंकित हो गए।
‘‘स्वामी, आज भोजन नहीं दिख रहा है?’’ साँगा ने धीरे से कहा, ‘‘समय भी हो गया है।’’
‘‘आज भोजन में विलंब होगा...।’’ स्वामी ग्वाले ने कड़कते हुए कहा, ‘‘अभी काम कर।’’
‘‘विलंब का कारण?’’
‘‘हमारी इच्छा! तू नौकर है, हम मालिक हैं। हम निर्णय करेंगे कि तुझे कब और कितना भोजन देना है। काम को देखा जाए तो तू उससे अधिक भोजन करता हैं। इतने भोजन में चार लोग पेट भर सकते हैं।’’
‘‘भोजन की मात्रा सबकी समान नहीं होती और कार्य व परिश्रम के अनुसार मेरा भोजन अधिक नहीं है। आप मुझे मुफ्त में भोजन नहीं देते हैं।’’ साँगा ने धैर्यपूर्वक कहा, ‘‘बदले में मैं भी आपके सभी कार्य निष्ठापूर्वक करता हूँ।’’
‘‘बहस मत कर, आज मैं तेरे भोजन का समय और मात्रा निर्धारित करूँगा। तेरे जैसे बहुत नौकर आए और गए, लेकिन आज तक किसी ने तेरे जैसी अकड़ नहीं दिखाई। तुझे खाना समय पर चाहिए, परंतु काम का समय भी तुम ही निर्धारित करो, यह मुझे स्वीकार नहीं।’’
‘‘स्वामी होने का अर्थ यह नहीं होता कि अपनी उचित-अनुचित इच्छा सेवक पर थोप दी जाए। यह पशुवत् व्यवहार है, जो मुझे स्वीकार नहीं।’’
‘‘तेरा यह साहस कि हमें पशु कह रहा है?’’ स्वामी भन्ना गया। वह तमककर अपने तख्त से उठा, परंतु सहमकर रुक गया।
साँगा के नेत्रों में चमकती आवेश की बिजलियाँ देखकर वह पुनः तख्त पर जा बैठा।
‘‘ऐसी भूल कभी मत करना।’’ साँगा के स्वर में कठोरता के साथ ही गहन गंभीरता थी, ‘‘स्वामी को कार्य से मतलब होना चाहिए। सेवक कोई गाय-भैंस नहीं होता, जिसे डंडे से हाँका जा सके। तुम्हारी यह नौकरी इस संसार की आखिरी नौकरी नहीं है। श्रमवान को कहीं भी काम मिल जाता है। तुम्हें मेरा भोजन अधिक लगता है और काम थोड़ा, अतः अब मेरा यहाँ रहना ठीक नहीं है, मैं चलता हूँ।’’
साँगा इतना कहकर वहाँ से चल पड़े। ग्वाले का साहस भी नहीं हुआ कि वह कुछ कह सके। साँगा वहाँ से चलकर अजमेर आ गए और एक साधारण सी नौकरी कर ली। इस नौकरी में उन्होंने जी तोड़ परिश्रम करके अपने लिए एक तलवार और एक घोड़ा खरीद लिया। उनका विचार था कि उन्हें अब कहीं सैनिक की नौकरी करनी चाहिए, जो उनके स्वभाव और व्यवहार के अनुरूप होगी। वे ऐसी नौकरी की खोज में लग गए।
एक दिन साँगा अपने घोड़े पर सवार होकर अजमेर के बाहरी क्षेत्र में भ्रमण कर रहे थे कि चार सैनिकों ने उन्हें घेर लिया। अपने साधारण वस्त्रों के कारण और कमर में लटकी तलवार के कारण उन्हें सैनिकों ने संदेह की दृष्टि से देखा।
‘‘कौन हो तुम? अपना परिचय दो, इससे पूर्व तो तुम्हें इस क्षेत्र में कभी नहीं देखा। लगता है, तुम तुर्क लुटेरों के गिरोह से हो?’’ एक सैनिक ने कड़कते हुए पूछा है।
‘‘मेरा परिचय यही कि मैं एक राजपूत हूँ।’’ साँगा ने उत्तर दिया, ‘‘मेरी यह तलवार ही मेरा परिचय है।’’
‘‘इसे बंदी बनाकर महाराज के पास ले चलो।’’
साँगा ने कोई विरोध नहीं किया। सैनिक उन्हें बंदी बनाकर अजमेर के समीप स्थित छोटी सी रियासत श्रीनगर लेकर आए, जो प्राचीनकाल से ही राजपूत परमारों की राजधानी रही थी। इस समय वहाँ राव कर्मचंद का शासन था। राव कर्मचंद ने बंदी को ध्यान से देखा।
‘‘कौन हो युवक?’’ महाराज ने पूछा, ‘‘हमारे सैनिक तुम्हें क्यों बंदी बनाकर लाए हैं?’’
‘‘महाराज, मैंने स्वयं आप तक पहुँचने के लिए खुद को बंदी बनाया, अन्यथा आपके चार क्या चालीस सैनिक भी मेरे शरीर को स्पर्श नहीं कर सकते थे।’’
‘‘अच्छा, इतने वीर योद्धा हो तुम, हमसे क्यों मिलना चाहते थे?’’
‘‘मैं एक सैनिक हूँ, नौकरी की खोज में आया हूँ।’’
‘‘किस देश से आए हो?’’
‘‘सैनिक का देश उस राज्य का देश होता है, जिसकी वह नौकरी करता है।’’
‘‘इससे पहले कहाँ नौकरी करते थे?’’
‘‘एक ग्वाले के पास सेवक था, उसे मेरी नियमित जीवन शैली और अधिक भोजन करने से चिढ़ थी तो मैंने उसकी नौकरी छोड़ दी। मैं मूल रूप से सैनिक हूँ। अतः इसी आशा से यहाँ आया हूँ।’’
‘‘बिना ठोस परिचय के तुम्हें नौकरी कैसे दें? हमारी छोटी-सी रियासत के बहुत सारे शत्रु हैं। क्या पता तुम किसी के गुप्तचर हो?’’
‘‘आपका सोचना उचित है, परंतु आप उस ग्वाले से मेरे विषय में जान सकते हैं। मैंने कई महीने तक उसकी सेवा की है। वह जैसा भी है, परंतु इस विषय में असत्य नहीं बोल सकता।’’
‘‘युवक, तुम्हारी बातों में दृढता तो है, परंतु हम इस प्रकार किसी को सेवा में रखने का जोखिम नहीं उठा सकते। तुम्हें अपना ठोस परिचय तो देना ही होगा, अन्यथा तुम्हारा जीवन संकट में पड़ जाएगा।’’
‘‘महाराज! मैं राजपूत हूँ और मेरा परिचय मेरी तलवार है। इस समय मैं स्वेच्छा से बंदी बनकर आया हूँ । अतः आप जैसा चाहें, वैसा व्यवहार कर सकते हैं। मैं ईश्वर को साक्षी मानकर कहता हूँ कि मैं भाग्य का सताया हुआ सैनिक हूँ, किसी का गुप्तचर नहीं।’’
‘‘इसके बंधन खोल दिए जाएँ।’’ राव कर्मचंद ने आदेश दिया तो साँगा के बंधन खोल दिए गए, ‘‘युवक, बाहर तुम्हारा अश्व खड़ा है और तुम्हारी तलवार तुम्हारे पास है। तुम राजधानी से निकलकर यदि हमारी सीमा से बाहर जीवित चले गए तो लौटकर आना, तब हम तुम्हारा परिचय जाने बिना तुम्हें सेवा में रख लेंगे। सैनिको, इस युवक को नगर के बाहर तक स्वच्छंद जाने दो, परंतु स्मरण रहे कि यह रियासत की सीमा पार न कर पाए। युवक, तुम्हें चुनौती स्वीकार है?’’
‘‘स्वीकार है महाराज!’’ साँगा ने दृढता से कहा।
इसके बाद साँगा राजमहल से बाहर निकले और अपने अश्व पर सवार होकर नगर से भी बाहर आ गए। वे जानते थे कि अब श्रीनगर के सैनिक उनके कौशल और पराक्रम की परीक्षा लेंगे, जिसके लिए वे तैयार थे। उन्होंने भी अपनी तलवार हाथ में ले ली और आगे बढ़ें। सामने ही सैनिकों की एक टुकड़ी संभवतः उन्हीं की प्रतीक्षा में थी।
साँगा ने अपने घोडे़ की पीठ थपथपाई और सैन्य टुकड़ी से जा भिड़े। कई माह के पश्चात् उन्होंने अपने पराक्रम का स्वदर्शन किया था। अतः पूरे कौशल और दक्षता से साँगा ने थोड़ी ही देर में अपना मार्ग साफ कर लिया और आगे बढ़ चले, परंतु अब मार्ग में बाधाएँ भी अधिक हो गई थीं, क्योंकि दूसरे पक्ष को समय मिल गया था।
साँगा को श्रीनगर की सीमा पार करने के लिए चार सैन्य टुकडि़यों का सफाया करना पड़ा था, परंतु यह उनके कौशल और पराक्रम की ही बात थी कि उन्हें एक खरोंच तक नहीं लगी थी।
संध्या हो चली थी। श्रीनगर की सीमा पार करके वे थोड़ी देर विश्राम करने के बाद वापस चल पड़े। रास्ते में उन्हें वे घायल और मृत सैनिक मिले, जो उनकी तलवार की भेंट चढ़ गए थे।
महाराज राव कर्मचंद ने तत्परता से घायलों का प्राथमिक उपचार और मृतकों का अंतिम संस्कार करा दिया था।
साँगा निर्भय होकर राजधानी में पहुँच गए थे। वहाँ उनका स्वागत स्वयं राव कर्मचंद ने किया। उनके डेढ़ सौ सैनिक अवश्य मारे गए थे, परंतु उन्हें उस नए सैनिक के पराक्रम से इस क्षति की भरपाई होती दिखी।
साँगा ने अपने साहस और पराक्रम से अंततः सैनिक की नौकरी प्राप्त कर ली थी।