जयमल का राजकुमारी तारा से प्रणय निवेदन
समय अपनी निर्बाध गति से व्यतीत होता रहा। दिन महीनों में और महीने वर्षों में बदल गए। इसी के साथ कुछ और भी परिवर्तन हुए।
पृथ्वीराज ने बड़ी वीरता और लगन से राजहित में कई ऐसे कार्य कर दिए, जिनसे मेवाड़ की कीर्ति बढ़ने लगी। उसने गोंड़वाड़ क्षेत्र से विद्रोही मीणाओं का समूल नाश कर दिया। पर्वतीय क्षेत्रों को निर्भय कर दिया। सिरोही और लांछ जैसी राजपूत रियासतों को अपने अधीन किया और देसूरी के मादरेचा चौहान शासकों का ध्वंस करके अपनी विजय पताका फहरा दी। ये सब सूचनाएँ महाराणा रायमल को मिलती थीं तो उन्हें एक विचित्र सी प्रसन्नता होती थी। यह वे क्षेत्र थे, जो काफी समय पहले उनके अधिकार से निकल गए थे और बहुत प्रयासों के बाद भी वापस प्राप्त नहीं हुए थे। पृथ्वीराज ने ऐसा करके मेवाड़ का गौरव बढ़ाया था, परंतु महाराणा अभी तक उसे क्षमा नहीं कर सके थे।
इधर कुँवर साँगा की कोई खोज-खबर नहीं लग सकी थी और इसका कारण खोज करने वाले ही थे, जो सूरजमल और जयमल के विश्वासपात्र थे। कुछ माह खोज करने के पश्चात् वे लोग निराश होकर लौट आए। धीरे-धीरे जयमल ने अपने मार्गदर्शक काका के साथ मिलकर सिंहासन की ओर कदम बढ़ा दिए। महाराणा रायमल भी वृद्ध हो चले थे। अतः अब जयमल का राज्याभिषेक होने में कुछ ही समय की बात थी। जयमल अब युवराज की भूमिका में आ गया था और कई निर्णय लेने के अधिकार उसे प्राप्त हो गए। इन सब परिवर्तनों के बीच यदि कुछ नहीं बदला था तो वह था महारानी रतनकँवर का पुत्र वियोग। बेशक वे राजमाता की अवस्था को प्राप्त कर रही थीं और राजमर्यादाओं में बँधी थीं, परंतु उनका ममत्व आज भी हिलोरें लेता था। महाराणा को अपनी प्रिय महारानी की पीड़ा का आभास था और कई बार वे सोचते भी थे कि पृथ्वीराज को क्षमा करके बुला लिया जाए, परंतु फिर साँगा का स्मरण उनके हृदय को चोट देता था।
इधर जयमल अपने भाग्य पर इतरा रहा था। सूरजमल अपने लक्ष्य की पूर्ति में बड़ी मंद, परंतु सशक्त चाल चल रह था। उसने कुँवर जयमल के हृदय में बहुत पहले ही बदनोर की राजकुमारी तारा का प्रेम अंकुरित कर दिया था। अब जयमल मेवाड़ के उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित हो चुका था तो उसने राजकुमारी तारा से विवाह करने का निश्चय कर लिया था और उसकी सलाह भी अपने मधुरभाषी काका से ही ली।
‘‘कुमार जयमल!’’ सूरजमल ने चिर-परिचित शैली में राय दी, ‘‘बदनोर की राजकुमारी वास्तव में सुंदर है और सर्वथा तुम्हारे योग्य है, परंतु उसे प्राप्त करना कठिन है। इसके पीछे का इतिहास भी जान लो। टोडा जो कि तक्षशिला क्षेत्र में आता है, कभी अन्हिलवाड़ा के बलहरा राजवंश के सोलंकी सरदार श्यामसिंह के अधिकार में था। यह सोलंकी सरदार पहले अलाउद्दीन खिलजी की सेना में रहते थे, जो बाद में मध्य भारत में जाकर बस गए और टोडा पर अधिकार कर लिया। फिर अफगानों का प्रभुत्व बढ़ने लगा और सरदार लालखाँ ओर श्याम सिंह बड़े वीर सरदार थे। परंतु अफगानों की शक्ति पर उनकी पेश नहीं चली और वे भागकर मेवाड़ की शरण में पहुँचे, जहाँ महाराणा ने उनके जीवन निर्वाह के लिए बदनोर की रिसायत दे दी। उन्हीं श्यामसिंह के भाई सुरतान बदनोर के सरदार हैं।’’
‘‘इसका अर्थ तो यह हुआ कि सरदार सुरतान मेवाड़ के ऋणी हैं और उन्हें अपनी पुत्री का विवाह मेवाड़ के भावी महाराणा से करने में को आपत्ति नहीं होगी? उन्हें तो प्रसन्नता होगी।’’
‘‘कुमार, प्रसन्नता सरदार सुरतान को होगी, राजकुमारी तारा की कौन कहे? पहले आपको राजकुमारी से उनकी सहमति लेनी होगी। उनसे मिलकर उनके मन की बात जाननी होगी, तभी इस प्रेम का आनंद लिया जा सकता है।’’
‘‘ऐसा क्यों? उसकी कोई शर्त हो तो मैं उसे पूरी करूँगा।’’
‘‘यह भी तो वही बता सकती है। तुम्हें संभवतः यह ज्ञात है कि राजकुमारी तारा अनिंद्य सुंदरी होने के साथ-साथ वीर क्षत्रिय बाला भी है। शस्त्र-संचालन और घुड़सवारी में उसे दक्षता प्राप्त है।’’
‘‘अहा! ऐसी वीर पत्नी पाकर कौन वीर पुरुष प्रफुल्लित नहीं होगा? आपने तो मेरी जिज्ञासा बढ़ा दी। मैं ऐसी वीर सुंदरी के दर्शन अवश्य करूँगा और उससे प्रणय-निवेदन करके उसके हृदय में अपना स्थान बनाऊँगा।’’
‘‘कुमार! प्रेम की प्रथम भेंट और प्रणय-निवेदन एकांत में हो तो आनंद ही आ जाता है। मैंने सुना है कि राजकुमारी तारा प्रतिमाह के अंतिम सप्ताह बदनोर के राजसी उद्यान में व्यतीत करती है, जहाँ पुरुषों का प्रवेश करना वर्जित है। वहाँ अनेक सुंदरियों के बीच राजकुमारी इस प्रकार रहती है, जैसे सितारों से भरे आकाश में चंद्रमा।’’
‘‘मैं...मैं उसी उद्यान को प्रणय-निवेदन का स्मरण-स्थल बनाऊँगा।’’
‘‘कुमार, वहाँ खतरा अधिक है। ऐसे स्थान पर परपुरुष का प्रवेश राजपूतों में अपराध की दृष्टि से देखा जाता है। सरदार सुरतान को ज्ञात हुआ तो वे क्रोधित हो सकते हैं।’’
‘‘मेवाड़ के भावी राणा पर क्रोधित होने का साहस वह कैसे कर सकेगा और करेगा भी तो मेरी तलवार मौन नहीं रह पाएगी। मुझे सरदार सुरतान के क्रोध की तनिक भी परवाह नहीं, अपितु राजकुमारी तारा ने मुख से प्रेम सहमति दे दी तो सुरतान को कौन पूछता है?’’
‘‘यह हुई वीरों वाली बात, परंतु फिर भी सावधान रहना।’’
‘‘मेरे विचार से मुझे आज-कल में चल देना चाहिए, क्योंकि इस माह का अंतिम सप्ताह आरंभ होने वाला है।’’ जयमल उत्साह से बोला।
‘‘जब भी तुम्हें उचित लगे। प्रणय-निवेदन के लिए सभी मुहूर्त शुभ होते हैं।’’
जयमल युवा था, हृदय में प्रेम पल रहा था तो रंगीन स्वप्न देखना तो बनता ही था। प्रेम में खतरे उठाना क्या बड़ी बात थी! जयमल ने सोच लिया कि वह शीघ्र ही बदनोर जाकर राजकुमारी तारा से मिलेगा। उसने तैयारी शुरू कर दी और अपने कुछ विश्वस्त राजपूत साथी चुन लिये। उन सबको समझा दिया कि यह एक गुप्त अभियान है, जिस पर युद्ध की स्थिति भी बन सकती है। अपने भावी शासक के लिए वीर राजपूत प्राण भी देने को तैयार थे।
कुँवर जयमल कुंभलगढ़ से निकलकर महाराणा को बताए बिना बदनोर की ओर चल दिए और कुछ दिन की यात्रा करके बदनोर पहुँच गए। राजसी उद्यान तलाशने में कोई परेशानी नहीं हुई और वहाँ की सुरक्षा-व्यवस्था को धता बताकर कुमार जयमल उद्यान में प्रवेश भी कर गए।
परंतु अंदर राजकुमारी तारा की सखी-सेना ने पकड़ लिया। स्वयं को कई सुंदरियों से घिरा देखकर जयमल का हृदय रोमांच से भर उठा। उसने मुसकराते हुए स्वयं को बंदी करार दिया और तारा के सामने पहुँचा । उसे लगा जैसे स्वर्ग की अप्सरा उसके सामने आ गई थी। वह मूर्च्छित होते-होते बचा। ऐसा रूप-सौंदर्य उसने कहीं न देखा था।
‘‘सौंदर्य स्वामिनी राजकुमारी तारा को मेवाड़ के भावी महाराणा राजकुमार जयमल का प्रणाम स्वीकार हो।’’ उसने अपना परिचय दिया।
‘‘मेवाड़ के राजकुमार!’’ तारा चौंक पड़ी और अपनी दासियों को वहाँ से जाने का संकेत दिया, ‘‘राजकुमार, इस प्रकार चोरी-छिपे वर्जित उद्यान में प्रवेश करने का क्या प्रयोजन! आपको तो हमारे राजमहल में आना चाहिए था, जहाँ हम आपका राजसी ढंग से यथायोग्य स्वागत करते।’’
‘‘फिर प्रेम का वह आनंद कहाँ रह जाता राजकुमारी, जो इस समय हम अपने हृदय में अनुभव कर रहे हैं। आपको देखकर हमारे मन की प्यास तृप्त सी हुई है। जिनकी प्रशंसा में हमने काव्य सुने हैं, उन्हें सामने देखकर हमारा हृदय प्रसन्नता के हिंडोले पर सवार है।’’
‘‘कुमार!’’ तारा गंभीरता से बोली, ‘‘आप एक सम्मानित राजकुल के सुयोग्य राजपुत्र हैं। आपका यह प्रेम-प्रदर्शन मुझे रोमांचित अवश्य कर रहा है, परंतु आपका इस राजउद्यान में प्रवेश करना अनुचित है। राजपूती मर्यादा के अनुसार वर्जनाओं को तोड़ना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। यदि मेरे पिता को इस विषय में ज्ञात हो गया तो अकारण युद्ध छिड़ जाएगा, जो दोनों परिवारों के लिए उचित न होगा।’’
‘‘राजकुमारी! प्रेम के वशीभूत होकर मैं आपसे भेंट करने का लोभ सँवरण न कर सका और अब मैं आपके पिता से भी अवश्य ही भेंट करूँगा। अब आप मेरे इस प्रणय-निवेदन को स्वीकार करें।’’
‘‘कुमार, कौन ऐसी राजकन्या होगी, जो मेवाड़ की कुलवधु नहीं बनना चाहेगी, परंतु मैं प्रणय से प्राप्त होनेवाली कन्या नहीं हूँ। मुझे तो रक्तपात और तलवार के बल पर ही प्रभावित किया जा सकता है। मैं प्रणय का स्वप्न देखने से पूर्व अपने पूर्वजों के राज्यटोडा की दासता की बेडि़याँ टूटने का स्वप्न देखती हूँ। मैंने संकल्प लिया है कि जो वीर मेरे टोडा को अफगानों से मुक्त करेगा, वही मेरे हृदय का सम्राट् बनेगा, चाहे वह किसी भी राजकुल का हो या साधारण कुल का। यदि आपको मेरा प्रेम प्राप्त करना है तो मेरी यह शर्त, यह स्वप्न पूरा करना होगा।’’ राजकुमारी तारा ने गंभीरता से कहा।
‘‘राजकुमारी! मैंने आपसे प्रेम किया है और इस प्रेम के लिए मैं आग के दरिया में भी कूद सकता हूँ । टोडा शीघ्र ही अफगानों से मुक्त होगा और आप मेवाड़ की राजरानी बनेंगी। यह मेरा आपसे वायदा है।’’
‘‘मैं उस क्षण की आतुरता से प्रतीक्षा करूँगी।’’
‘‘अब मुझे आज्ञा दीजिए। बहुत शीघ्र ही आपको आपके स्वप्न के पूरा होने का शुभ समाचार प्राप्त होगा।’’
‘‘कुमार, मेरा विचार है कि आप यहाँ जिस गुप्तरूप से आए, उसी गुप्तरूप से वापस चले जाएँ। मेरे पिता अति क्रोधी स्वभाव के हैं। उन्हें तनिक भी आभास हुआ कि आपने इस उद्यान में आकर बदनोर की राजमर्यादा भंग की है तो अनर्थ हो जाएगा।’’ तारा ने चिंतित स्वर में कहा।
‘‘मैं आपके इस आदेश का पालन करूँगा राजकुमारी, मैं आपको किसी प्रकार की पीड़ा न देने को वचनबद्ध हूँ। यद्यपि मैं आपके पिता से भी भेंट का इच्छुक था, परंतु आपकी आशंका को देखते हुए मैं अभी चित्तौड़ जाता हूँ। आज्ञा दीजिए।’’
राजकुमारी तारा ने मुसकराकर जयमल को और भी रोमांचित कर दिया। जयमल अपनी पहली सफलता पर गद्गद होता हुआ वहाँ से बाहर आ गया और वापस चित्तौड़ की ओर चल पड़ा।
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कुँवर साँगा के विवाह का प्रस्ताव
राव कर्मचंद दिनोदिन साँगा की वीरता, निष्ठा और कर्तव्यपरायणता से परिचित होते गए और उनका स्नेह अपने इस नए वीर सैनिक पर बढ़ता गया। यहाँ तक कि उनके लिए साँगा राज-काज में महत्त्वपूर्ण परामर्शदाता के रूप में शामिल हो गए। सैन्य अभियानों में तो साँगा पर निर्भरता कुछ अधिक ही बढ़ गई थी। साँगा के पराक्रम से श्रीनगर की सीमाओं का विस्तार होता जा रहा था और उनके कुशल परामर्श से राजकोष में निरंतर वृद्धि हो रही थी। प्रजा में खुशहाली आ रही थी और इसका श्रेय प्रजा तो राव कर्मचंद की कुशल शासन नीतियों को देती थी, परंतु राव कर्मचंद इसका श्रेय साँगा को देते थे।
‘‘वह कौन-सी शुभ घड़ी थी, जब कुँवर सिंह ने हमारी रियासत में कदम रखा!’’ राव कर्मचंद भावविभोर होकर कहते थे, ‘‘जिस दिन से कुँवर सिंह आया है, हमारी सेना अपराजेय हो गई है। जंगल हरे-भरे हो उठे हैं। खेत-खलिहानों में अन्न के भंडार भरे पड़े हैं। प्रजा प्रसन्न है, निर्भय है। सीमाएँ सुरक्षित हैं।’’
राव कर्मचंद के राजज्योतिषी का तो यह कहना था कि वह छद्नामधारी सैनिक कोई कुलीन राजपुत्र है, जो ग्रह-नक्षत्रों की विपरीत गति के कारण अज्ञातवास भोग रहा है, जिसके प्रताप से कहीं भी भाग्योदय हो सकता है। इन बातों से राव कर्मचंद कुँवर सिंह नाम के उस सैनिक की वास्तविकता जानने का प्रयास करते थे, परंतु सफलता नहीं मिली थी। गुप्तचर भी यह नहीं जान सके थे कि वह वीर युवक कहाँ से आया है? अजमेर के ग्वाले से भी पूछताछ की गई थी, जिसने साँगा के विषय में अपने उद्गार इस प्रकार प्रकट किए—
‘‘सरकार! वह युवक क्या था, परिश्रम का प्रतीक था। अकेले ही मेरे सारे कार्य करता था और किसी भी प्रकार की शिकायत भी न करता था। अपने प्रत्येक कार्य को इस लगन और निष्ठा से करता था कि मुझे आश्चर्य होता था और चिढ़ भी हो जाती थी। कोई कैसे बिना बात किए इस प्रकार श्रमशील रह सकता है? मेरी मति मारी गई थी, जो मैंने उसके मौनव्रत को तोड़ने की सौगंध ली और वह मेरे पास से चला गया। आज मेरा व्यापार अस्त-व्यस्त हुआ जा रहा है। उसके जैसा आदमी न कभी पहले मिला और न कभी मिलने की संभावना है। न जाने कहाँ से आया और कहाँ चला गया। अब मिल जाए तो उससे हाथ-जोड़कर क्षमा माँगू और नौकर नहीं, भाई की तरह अपने पास रखूँ।’’
कहाँ से आया था, यह फिर भी न पता चला। राव कर्मचंद की उत्सुकता और बढ़ गई थी। उन्होंने साथी सैनिकों को आदेश दिया कि कुँवर सिंह के विषय में जानने की कोशिश करें, परंतु प्रयास सफल नहीं हुए।
अंततः राव कर्मचंद की उत्कंठा चरम पर पहुँच गई और उन्होंने एक दिन साँगा से इस विषय में स्वयं ही जानने का इरादा कर लिया। उन्होंने साँगा को अपने पास बुलाया और बड़े प्रेम से अपने पास बिठाया।
‘‘महाराज, मेरे लिए क्या आदेश है?’’
‘‘कुँवर सिंह, तुम्हारे इस कथन से हमें उस जिन्न की कथा याद आती है, जो कभी विश्राम नहीं करता और प्रत्येक काम के पूर्ण होने पर कहता है कि ‘क्या हुक्म है मेरे आका’! राव कर्मचंद विनोदपूर्ण स्वर में बोले, ‘‘वास्तव में तुम्हारी निष्ठा का दूसरा उदाहरण मिलना कठिन है। ऐसी निष्ठा साधारण पुरुष में मिलना तो असंभव ही है, परंतु तुम अपने विषय में सबकुछ छुपाकर रखते हो।’’
‘‘महाराज! मेरे विषय में जानकर आप क्या करेंगे? उचित यही होगा कि जैसा चल रहा है, चलने दें। मेरी निष्ठा में कोई त्रुटि दिखाई दे तो आप कहें।’’
‘‘कुँवर सिंह, इस संसार में उत्सुकता ऐसी चीज है, जो जाग जाए तो शांति भी छीन लेती है। हमने आरंभ में अपने लाभ के लिए इस विषय को अपने हृदय में नहीं आने दिया, परंतु जैसे-जैसे तुम्हारा कार्य देखा और उससे प्राप्त लाभ देखा, हमारी उत्कंठा बढ़ती ही चली गई। आज स्थिति यह है कि हम सोते-जागते इसी विषय में सोचते रहते हैं। हमारी शांति भंग हो गई है। हम यह सोच-सोचकर परेशान हैं कि हमें प्रगति के इस पथ पर लाने वाले उस सत्पुरुष के रूप में कोई अवतार तो हमारे बीच नहीं आ गया, जिसे हम पहचान नहीं पा रहे हैं और जिसका हमें सदैव पश्चात्ताप रहेगा। अतः अब तुम हमारे धैर्य की परीक्षा न लो और हमें बताओ कि तुम किस राजकुल के वीर कुमार हो?” राव कर्मचंद विनयपूर्वक बोले, ‘‘इसे तुम हमारा आदेश समझो या प्रार्थना। आज हम संकल्प कर चुके हैं कि तब तक भोजन नहीं करेंगे, जब तक तुम हमें अपना परिचय न दे दोगे।’’
‘‘महाराज!’’ साँगा आहत हो उठे।
‘‘हाँ कुँवर सिंह, यह हमारा प्रण है। हाँ, यह वचन हम भी देते हैं कि यदि तुम नहीं चाहोगे तो हम तुम्हारा परिचय स्वयं ही सीमित रखेंगे।’’
‘‘महाराज, आपने मुझे विवश कर दिया है।’’ साँगा ने कहा, ‘‘मेरा परिचय जानकर आपको आश्चर्य होगा, परंतु आप मुझे वचन दें कि आपकी सेवा में मुझे उसी प्रकार रहने का अवसर मिलेगा, जैसा आज तक मिला है। आज आपने ऐसा संकल्प लेकर मेरे सेवकधर्म को संकट में डाल दिया। अतः अब मुझे अपना परिचय देना ही होगा। जिससे मेरे स्वामी को प्रसन्नता हो।’’
राव कर्मचंद उत्सुकता से सजग होकर बैठ गए।
‘‘महाराज, मैं राजपूताने की सबसे महान् रियासत मेवाड़ के महाराणा कुंभा का पौत्र, महाराणा रायमल का पुत्र...।’’
‘‘कुँवर संग्राम सिंह!’’ राव के होंठों से पहले ही अस्फुट स्वर निकल पड़े और वे अपने स्थान से उठ खड़े हुए, ‘‘कुँवर साँगा, जिसकी तलवार ने किशोर आयु में ही राजपूताने में अपनी धाक जमा ली। अहा! मेरे सौभाग्य...पर कुमार, आप इस दशा में। मेवाड़ का राजपुत्र साधारण वेश में। एक तुच्छ से सैनिक के रूप में?’’
‘‘नियति ने मुझे इस दशा में पहुँचाया है महाराज, दुर्भाग्य ने मेवाड़ की परीक्षा ली और एक उच्च कुल में वैमनस्य की आग भड़का दी।’’ कुँवर साँगा के स्वर में वेदना सम्मिलित हो गई, ‘‘जिन भाइयों को मैंने सदैव सम्मान दिया और उनसे स्नेह की आशंका की, उन्होंने ही मुझे मेरी जन्मभूमि से दूर कर दिया।’’
‘‘कुमार, हमने तो सुना था कि कुँवर साँगा को आखेट करते समय किसी हिंसक जानवर ने अपना आहार बना लिया है।’’
‘‘महाराज, इस भूमि पर ऐसा कोई हिंसक जानवर नहीं जन्मा, जो मेरी तलवार के होते मेरे शरीर को खरोंच भी लगा सके। अवश्य ही मेवाड़ के सम्मान को बचाने के लिए यह प्रचारित किया गया होगा।’’
‘‘वास्तव में क्या हुआ था, कुमार संग्राम सिंह?’’
कुँवर साँगा ने आहत स्वर में सविस्तार सारी बातें बताईं।
‘‘आह! इतनी हृदयहीनता! इतना बड़ा षड्यंत्र! एक वीर पुत्र को छल से इस दशा में पहुँचा दिया। कुमार, आज तक तुम एक सैनिक के रूप में थे और जाने-अनजाने में हमसे कोई भूल हो गई हो तो हमें क्षमा करना। अब तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं। हम मेवाड़ के ऋणी हैं, तुम्हारे भी और इस ऋण को उतारने के लिए हम तुमसे एक प्रार्थना कर रहे हैं। हमारी यह प्रार्थना स्वीकार कर लीजिए।’’
‘‘आप हमें आज्ञा करें महाराज, हमने पहले ही कहा था, हमारा परिचय जानने के बाद भी हमें आपकी सेवा में रहने का अवसर चाहिए।’’
‘‘कुमार! यदि मेरे आदेश से ही आप मुझे उऋण करते हैं तो मैं अपने सैनिक कुँवर सिंह को आदेश देता हूँ कि वह श्रीनगर की राजकुमारी से विवाह करे। यह विवाह अतिशीघ्र संपन्न होना चाहिए, यही हमारा आदेश है।’’
कुँवर साँगा की आँखें छलछला उठीं। राव कर्मचंद ने उन्हें अपनी भुजाओं में भर लिया और पीठ थपथपाकर सांत्वना देने लगे।