पृथ्वीराज बदनोर में
पृथ्वीराज इन दिनों गोंडवाड के पर्वतीय क्षेत्र में था, जहाँ उसे जयमल की हत्या की सूचना मिली। एक बारगी तो उसके कलेजे को ठंडक पड़ गई कि विश्वासघाती जयमल को अपने किए का दंड मिल गया, लेकिन एक चिंता ने उसे भी घेर लिया। वह समझ रहा था कि इस सारे षड्यंत्र का सूत्रधार काका सूरजमल था, जिसने बड़ी चतुराई से मेवाड़ के सिंहासन पर अपनी पकड़ बना ली थी। तीनों राजकुमारों को उस मिठबोले ने एक-एक करके अपने रास्ते से हटा दिया था और अब मेवाड़ का उत्तराधिकारी कुँवर कल्याणमल था, जो अभी केवल 8 वर्ष का था और अन्य राजकुमार तो उससे भी छोटे थे। कुमार पृथ्वीराज ने सारी जानकारी प्राप्त कर ली थी। जयमल ने राजकुमारी तारा के चक्कर में अपने प्राण गँवाए थे, जबकि तारा को प्राप्त करना, उसके लिए कोई कठिन कार्य नहीं था। अवश्य कोई षड्यंत्र रचा गया होगा।
पृथ्वीराज ने इस विषय पर अपने विश्वस्त सलाहकारों से विचार-विमर्श किया।
‘‘इसमें कोई संदेह नहीं कि यह सब काका सूरजमल का किया-धरा है।’’ पृथ्वीराज गंभीर स्वर में बोला, ‘‘उसने बड़ी चतुराई से मेवाड़ के सिंहासन को लगभग उत्तराधिकारी, सक्षम और सशक्त उत्तराधिकारी से वंचित कर दिया है। अब महाराणा भी इन आघात से अशक्त ही हो गए समझो।’’
‘‘राजकुमार! सूरजमल ने अपने षड्यंत्र से प्रयास अवश्य किया है, लेकिन वह पूरी तरह सफल नहीं कहा जा सकता।’’ पृथ्वीराज के विश्वस्त सलाहकार सिंहाल ने कहा, ‘‘अभी आप मेवाड़ के सक्षम और सशक्त उत्तराधिकारी हैं। साँगा के विषय में भी निश्चित नहीं कहा जा सकता कि वे मर चुके हैं। अतः सूरजमल का यह स्वप्न तो पूरा नहीं होगा।’’
‘‘मुझे तो मेरे पिता ने सदैव के लिए त्याग दिया।’’
‘‘वे उस समय क्रोध में थे और परिस्थिति भी ऐसी ही थी, तब उत्तराधिकारी का विकल्प जयमल था। आज यह प्रश्न विकट हो गया है। महाराणा मेवाड़ को संकट में नहीं छोड़ सकते। हमें जानने का प्रयास करना चाहिए कि अब उनके हृदय में क्या विचार बन रहे हैं?’’
‘‘यद्यपि मैंने अपराध किया था, किंतु उसका दंड भी तो पाया है। अपने राज्य के हित में दिन-रात अपने प्राणों की बाजी मैंने इसीलिए लगाई कि पिताश्री की नफरत में कमी आए, परंतु वहाँ तो सूरजमल जैसा कपटी बैठा है, इसलिए ऐसा होना कठिन है। वह अपनी मीठी बातों से पिताश्री को बहकाता रहा होगा।’’
‘‘राजकुमार! महाराणा बहुत अनुभवी हैं। वे देर-सवेर सूरजमल का चरित्र जान जाएँगे। आपको इस भय से अपने अधिकारों को नहीं भूलना चाहिए और न मेवाड़ को त्यागना चाहिए।’’
‘‘अब हमें क्या करना चाहिए?’’
‘‘पहले तो बदनोर से जयमल की हत्या का प्रतिशोध लेना चाहिए, जिससे मेवाड़ के लोगों में आपकी धाक जम जाए।’’
‘‘यह कार्य तो महाराणा को ही कर देना चाहिए था।’’
‘‘उनकी विवशता है। जयमल पर गंभीर आरोप है। एक शासक को बहुत कुछ सोचना पड़ता है। प्रजा में अवश्य रोष होगा, परंतु महाराणा ऐसा संदेश नहीं देना चाहेंगे कि मेवाड़ गलत प्रवृत्तियों का संरक्षक या समर्थक है। यदि हम जयमल की हत्या का प्रतिशोध लेते हैं तो यह एक व्यथित भाई, राजप्रेमी और वीर राजपूत का कार्य कहा जाएगा, जिसे मेवाड़ की प्रजा अवश्य पसंद करेगी।’’
‘‘विचार तो ठीक है, किंतु मुझे और गहराई से सोचना है। बदनोर का ध्वंस करना मुझे भी उचित नहीं लगता, क्योंकि जो कार्य पिताश्री ने नहीं किया, उसे मैं करूँ तो वे और भी क्रोधित हो सकते हैं। जयमल की हत्या का यह कारण मुझे जँच नहीं रहा। वह जानता था कि राजकुमारी तारा के विवाह की एक शर्त है। टोडा को अफगानों से मुक्त कराना तो वह इतना अविवेकी कदम कैसे उठा पाया? स्पष्ट है कि उसे भरमा दिया गया और यह कार्य काका के अतिरिक्त और कौन करेगा? हमें इस षड्यंत्र पर से परदा उठाकर, जयमल को निर्दोष सिद्ध करके पिताश्री को प्रसन्न करना होगा और इसके लिए राजकुमारी तारा से भेंट करनी होगी। वही बताएगी कि जयमल ने उससे कोई अभद्रता की भी या नहीं?’’
‘‘यह विचार ठीक रहेगा।’’ दूसरे सलाहकार जन्ना ने सहमति जताई।
‘‘फिर ठीक है। हम बदनोर चल रहे हैं।’’
पृथ्वीराज ने अपने विश्वस्त साथियों को साथ लेकर बदनोर की ओर प्रस्थान किया और राव सुरतान से भेंट की। राव सुरतान ने उसका स्वागत किया और जयमल की आकस्मिक हत्या के लिए क्षमा माँगी।
‘‘राजकुमार! हमसे बड़ा अपराध हुआ! परंतु हम ईश्वर को साक्षी मानकर सौगंध खाते हैं कि सबकुछ इतना शीघ्र हुआ कि सोचने का भी समय नहीं मिला। हमने मेवाड़ का नाम सुनते ही अपने क्रोध पर वश कर लिया था, लेकिन हमारा क्रोधी सरदार रतन सिंह इतना उग्र हो गया कि उसने अनर्थ कर डाला।’’ राव सुरतान ने सारी बात बताई।
पृथ्वीराज को विश्वास हो गया कि इस षड्यंत्र के पीछे भी सूरजमल है। ‘‘हमें इतना पश्चात्ताप हो रहा है कि हम मेवाड़ को मुँह दिखाने के भी योग्य नहीं हैं। हमने एक ऐसे वीर योद्धा को धोखा दिया, जो हमारे टोडा को अफगानों से मुक्त कराने का वचन दे चुका था।’’
‘‘राव साहब! जयमल पर आरोप है कि उसने आपकी पुत्री के साथ अभद्रता की और उसके हरण का प्रयास किया। इससे मेवाड़ की शान में बट्टा लग रहा है। राणाकुल को इस आरोप ने लज्जित कर दिया है। महाराणा को इस बात ने व्यथित कर दिया है।’’
‘‘यह मिथ्या आरोप है। हम स्वयं महाराणा के चरणों में जाकर इस अफवाह का खंडन करेंगे और मेवाड़ की शान को अक्षुण्ण बनाए रखेंगे।’’ ‘‘और हम अपने भाई जयमल के दिए हुए वचन को पूरा करेंगे।’’ पृथ्वीराज ने दृढता से कहा, आपके टोडा को अफगानों से मुक्त किया जाएगा और मेरे अनुज का वचन पूर्ण होगा।’’
राव सुरतान ने प्रसन्नता से हाथ जोड़कर कृतज्ञता व्यक्त की।
‘‘हम राजकुमारी तारा से भेंट करना चाहते हैं।’’ पृथ्वीराज ने कहा, ‘‘टोडा की मुक्ति उनका स्वप्न है। अतः मैं उन्हें आश्वासन देना चाहूँगा कि वीर जयमल का दिया हुआ वचन उसके साथ समाप्त नहीं हो गया, अपितु उसका भाई अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी उसके वचन को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध है।’’
‘‘अवश्य राजकुमार पृथ्वीराज! हम अभी राजकुमारी से आपकी भेंट की व्यवस्था करते हैं।’’ राव सुरतान ने प्रसन्नता से कहा।
पृथ्वीराज की भेंट राजकुमारी तारा से हुई तो एकबारगी तो उसके रूप-सौंदर्य को देखकर वह भी स्तंभित रह गए। ऐसी अनिंद्य सुंदरी उसने भी जीवन में नहीं देखी थी। यदि जयमल उस रूप के दर्शन की लालसा में ऐसा कदम उठा गया तो यह स्वाभाविक ही था।
‘‘राजकुमारीजी! मेरे भाई जयमल ने आपके प्रेम के वशीभूत होकर राजमर्यादा के विरुद्ध कदम उठाया, लेकिन मैं इसे प्रेमवश एक वीर राजकुमार द्वारा उठाया साहस भरा कदम मानता हूँ। क्षत्रिय कुमार प्रेम में ऐसा कर उठते हैं। दुर्भाग्य से दुर्घटना हुई और वे हमारे बीच नहीं रहे, परंतु उसने आपको जो वचन दिया था, वह आज भी है। उस वचन को मैं पूरा करूँगा।’’
‘‘राजकुमार, उस घटना का मुझे अत्यंत दुख है। मेरी आशा मेवाड़ के वीरों से ही थी। दुर्भाग्य से पूरी होते-होते रह गई, किंतु आज आपने पुनः मेरी निराशा को आशा में बदल दिया। मैं किस प्रकार आपका आभार व्यक्त करूँ। अब यदि आप मेरी एक प्रार्थना और स्वीकार करें तो आपकी अति कृपा होगी।’’
‘‘कहिए राजकुमारीजी!’’
‘‘जब आप टोडा अभियान पर जाएँ तो मुझे भी साथ ले चलें, जिससे मैं उन अफगानों को अपनी आँखों से मरता देख सकूँ और कुछ को अपने हाथों से मार सकूँ, जिससे मेरे पूर्वजों की आत्मा को शांति मिले।’’
‘‘अवश्य राजकुमारीजी, परंतु इसके लिए आपको अपने पिता से आज्ञा लेनी होगी।’’
राजकुमारी तारा ने सहमति में सिर उठाया।
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पृथ्वीराज की टोडा-विजय
राव सुरतान से मिलकर पृथ्वीराज वापस गोंडवाड़ आ गए और उसने टोडा पर आक्रमण की तैयारी शुरू कर दी। उसने अपने पाँच सौ राजपूत साथी तैयार किए और अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित होकर चल पड़े। उसने अपने एक विश्वस्त साथी आभो को कुछ सैनिकों के साथ बदनोर भेज दिया, जहाँ से वीरबाला तारा सैनिक के वेश में अश्व पर सवार होकर अपने कुछ सैनिकों के साथ पृथ्वीराज की सेना में आ मिली। सैनिक वेश में तारा का रूप-लावण्य और भी निखर आया था। क्षत्रिय कुमारी के कंधे पर धनुष, तरकश, तलवार और अश्व की पीठ पर भी अनेक शस्त्रों से भरी पेटी लटक रही थी। पृथ्वीराज उसे देखता ही रह गया और तारा ने लजाकर नेत्र झुका लिये।
वह राजपूत दल टोडा की ओर चल दिया। पृथ्वीराज के नेतृत्व में कुछ दिन की यात्रा के पश्चात् जब यह दल टोडा पहुँचा तो उस दिन मुहर्रम का त्योहार था। टोडा में भी इस उत्सव की धूम थी। जगह-जगह ताजिए निकाले जा रहे थे। मुख्य ताजिया टोडा के अफगान सरदार के भव्य महल के चौक पर था, जहाँ हजारों की भीड़ थी। पृथ्वीराज ने इस अवसर का लाभ उठाया और अपने सैनिक भीड़ में इधर-उधर घुसा दिए। जब अफगान सरदार अपने महल से बाहर आया तो उसने राजपूत सैनिकों को पहचान लिया।
‘‘खबरदार! दुश्मन आ गया।’’ सरदार चीखकर वापस महल की ओर भागा तो वीरबाला तारा ने विद्युत् जैसी चपलता से अपने धनुष पर तीक्ष्ण बाण चढ़ाकर उसे लक्ष्य बनाया। बाण ने अफगान सरदार की खोपड़ी के पिछले भाग में स्थान बनाया और वह एक चीख के साथ धराशायी हो गया, फिर तो जैसे तूफान ही आ गया। राजपूत सैनिक टूट पड़े और मार-काट मच गई। अफगान सैनिक भी आ गए थे, लेकिन व्यवस्थित और योजनाबद्ध राजपूत आक्रमण के सामने उनकी एक न चल पा रही थी। पृथ्वीराज की तलवार जैसे साक्षात् कालरूप ही बन गई थी। तारा की तलवार भी कहर ढा रही थी। उस वीरांगना का तमतमाया मुख और भिंचे जबड़े उसके प्रतिशोध की कहानी कह रहे थे।
कुछ ही घंटोंके युद्ध में अफगानों की पराजय हो गई। अधिकतर अफगान सैनिक मारे गए और कुछ ने भागकर अपने प्राण बचाए। टोडा पर राजपूतों का अधिकार हो गया। तारा का स्वप्न साकार हो गया। उसके पूर्वजों की रियासत अफगानों से मुक्त हो गई।
विजयी पृथ्वीराज ने गर्व से राजकुमारी तारा को देखा।
‘‘राजकुमारीजी, विजय की बधाई स्वीकार करें।’’ पृथ्वीराज ने कहा।
‘‘कुमार, यह विजय आपके पराक्रम की है। आपकी प्रलयंकारी तलवार ने ही अफगानों के साहस को तोड़ा है।’’ तारा ने कहा।
‘‘नहीं राजकुमारीजी! विजय का श्रेय आपके उस तीर को जाता है, जिसने भाग रहे अफगान सरदार को धराशायी कर दिया। क्या अचूक लक्ष्यभेदन था! ऐसा कुशल बाण-संचालन हमने पहले कभी नहीं देखा।’’
‘‘कुमार, कुछ भी हो, टोडा की स्वतंत्रता आपकी देन है। मैंने संकल्प किया था कि जो भी वीर पुरुष टोडा का उद्धार करेगा, वही मेरा जीवनसाथी बनेगा। आपने मेरा स्वप्न पूरा करके जो उपकार किया है, अब मेरे संकल्प को पूरा करके मुझे अपने चरणों में स्थान दें।’’
इतना कहकर राजकुमारी तारा ने अश्व की पीठ पर रखी पेटी खोली और उसमें से एक हार निकालकर राजकुमार पृथ्वीराज के गले में डाल दिया।
‘‘राजकुमारीजी! आप...आप...।’’
‘‘तारा कहिए स्वामी! अब मैं मन-वचन से आपको समर्पित हो गई।’’
‘‘त...त...तारा!’’ पृथ्वीराज ने उस अतुल रूपराशि को निहारकर कहा, ‘‘मैं बड़ा भाग्यशाली हूँ, जो तुम जैसी वीर कन्या और अनिंद्य सुंदरी के प्रेम का पात्र बना, परंतु मैं इस विवाह को अपने पिता की इच्छा से ही स्वीकृति दे सकता हूँ। मेरे एक अपराध ने पहले ही मुझे इतने कष्ट दिए हैं। अब मैं अपने पिता को और दुःख नहीं देना चाहता।’’
‘‘अवश्य स्वामी, मैं शीघ्र ही अपने पिता को मेवाड़ भेजकर राजपूती विधान से इस विवाह को संपन्न कराऊँगी। यदि किसी कारणवश मेवाड़ मुझे स्वीकार नहीं भी करता तो मैं वचन देती हूँ कि आप इस बंधन से मुक्त होंगे और मैं सदैव आपके चरणों की ही दासी रहूँगी।’’
‘‘तुम धन्य हो तारा! रूप, वीरता और साहस के साथ बुद्धि का संगम दुर्लभ ही होता है। ईश्वर तुम्हारी सभी मनोकामना पूरी करेगा।’’
इसके पश्चात् पृथ्वीराज ने बड़ी कुशलता के साथ टोडा की शासन-व्यवस्था सुदृढ की। टोडा में राजपूत सेनाओं का गठन किया गया और हजारों राजपूत युवाओं को राजपूत सेना में सम्मिलित किया गया।