प्रजा-वत्सल महाराणा रायमल
मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ के राज उद्यान में इस समय बड़ा ही सुंदर दृश्य था। मेवाड़ नरेश महाराणा रायमल अपनी पटरानी रतनकँवर के साथ बैठे उद्यान की शोभा को निहार रहे थे। उस भव्य शाही बाग में बैठने का अवसर कभी-कभी ही मिल पाता था। राज-काज और शत्रु-मित्रों की व्यस्तता ही इतनी थी कि महाराणा को अपने परिवार के लिए समय निकाल पाना कठिन होता था। अपनी ग्यारह रानियों में वे रानी रतनकँवर को ही सबसे अधिक प्रेम करते थे। इसी प्रेम के कारण वे बहुत अधिक व्यस्त होने पर भी उनके लिए कुछ समय अवश्य ही निकाल लेते थे।
रानी रतनकँवर से अत्यधिक प्रेम होने का पहला कारण तो यही था कि महाराणा का सबसे पहला विवाह उन्हीं से हुआ था। उस पर भी रानी रतनकँवर ने उन्हें सर्वप्रथम पुत्र-प्राप्ति का सुख दिया था। उन्होंने मेवाड़ राजघराने को युवराज पृथ्वीराज दिया था। यद्यपि उसके बाद रानी वीरकँवर ने भी राजकुमार जयमल को जन्म दिया और फिर अगले ही वर्ष रानी रतनकँवर ने एक और पुत्र राजकुमार संग्राम सिंह को जन्म देकर महाराणा के हृदय में अपने प्रेम तथा महत्त्व को और भी बढ़ा लिया था।
महाराणा रायमल उन वीर शासकों में से थे, जो अपने आन-बान के लिए प्राण तक न्योछावर करने को भी तैयार रहते थे। उनका जीवन मेवाड़ की रक्षा में ही व्यतीत हुआ था। उनके बड़े भाई उदय सिंह उर्फ ‘उदा’ ने अपने कुटिल षड्यंत्रों से उन्हें कभी चैन से नहीं रहने दिया। यहाँ तक कि उदा ने षड्यंत्र रचकर अपने पिता महाराणा कुंभा को भी भ्रमित कर दिया था। इसी कारण उन्होंने रायमल को मेवाड़ से निष्कासित कर दिया था। रायमल ने निष्कासन का यह समय अपनी रानी रतनकँवर के मायके ईडर में व्यतीत किया था। यह भी उन दोनों के बीच अगाध प्रेम का एक कारण था।
उदा ने सिंहासन पर छल-बल से अधिकार जमाने के लिए सन् 1468 ई. में अपने पिता महाराणा कुंभा की हत्या करने जैसा घृणित कार्य कर डाला और वह कुंभलगढ़ के सिंहासन पर बैठ भी गया। मेवाड़ की प्रजा उस पितृहंता को अपना राजा कैसे मान लेती? अतः उसके विरुद्ध जन-विद्रोह भड़क उठा और 1473 ई. में इस जन-विद्रोह ने उदय सिंह उर्फ ‘उदा’ को राजसिंहासन से उतार फेंका। अब समस्त प्रजा रायमल को मेवाड़ के शासक के रूप में देखना चाहती थी। अतः मेवाड़ के सभी सरदार ईडर पहुँचे और रायमल को सम्मान सहित चित्तौड़ लाकर उनका राज्याभिषेक कर दिया। अब राणा रायमल के कंधों पर मेवाड़ की सुरक्षा का दायित्व था।
उधर जन-विद्रोह के कारण राजगद्दी से वंचित हो चुका उदय सिंह अपने पुत्रों सूरजमल और सहसमल के साथ अपमान की आग में जल रहा था और किसी भी प्रकार मेवाड़ के सिंहासन को हथियाने का कुचक्र रच रहा था। राजपुताना के किसी भी राजपूत शासक में इतना साहस नहीं था कि वह मेवाड़ के विरुद्ध उदय सिंह (उदा) की मदद कर पाता। अंततः निराश उदय सिंह ने उस शत्रु से सहायता माँगी, जो किसी भी तरह राणा कुल का विनाश चाहता था। यह शत्रु मांडू का सुलतान ग्यासुद्दीन खिलजी था, जिसे मेवाड़ की स्वतंत्रता एक आँख न सुहाती थी।
ग्यासुद्दीन खिलजी ने इसे उचित अवसर जानकर उदय को सशर्त सहायता देने का आश्वासन दिया। उसने शर्त के रूप में उदय सिंह की अपनी पुत्री का विवाह अपने शहजादे पुत्र से करने को कहा था, जो राजपूती आन के विरुद्ध था। प्रतिशोध में जलते उदय सिंह ने यह शर्त भी मान ली और उसने ऐसा करने का वचन दे दिया। वह पितृहंता व कुलद्रोही सुल्तान को वचन देकर मांडू के महल से निकला ही था कि घन गरज के साथ उसके ऊपर वज्रपात हुआ और उसके प्राण पखेरू उड़ गए।
सुलतान खिलजी ने इस अवसर को हाथ से जाते देखा तो तत्काल उदयसिंह के पुत्रों से हाथ मिला लिया और उन्हें मेवाड़ के सिंहासन का लालच देकर उनके पिता के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। क्रोध, निराशा और लालच ने सूरजमल और सहसमल की बुद्धि भ्रष्ट कर दी थी।
सुलतान खिलजी ने उसी समय विशाल सेना लेकर चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। महाराणा रायमल और मेवाड़ की सेना ने इस युद्ध में उसे बुरी तरह पराजित करके यह संकेत दे दिया कि कुछ सपने कभी पूरे नहीं होते। सुल्तान खिलजी इस पराजय से हतोत्साहित न हुआ। उसने फिर से सेना संगठित की और जफर खाँ के नेतृत्व में उसे चित्तौड़ की ओर भेज दिया। इस विशाल तुर्क सेना ने कोटा, भैंस रोड, शिवपुर आदि क्षेत्रों में भारी रक्तपात किया और फिर मांडलगढ़ की ओर बढ़ी।
जब महाराणा रायमल को यह समाचार मिला तो उन्होंने तुर्क सेना को वहीं पर जा घेरा और पुनः बुरी तरह परास्त कर दिया। इस पराजय ने सुलतान को भयभीत कर दिया। जब महाराणा ने उसके खैराबाद के किले पर अधिकार कर लिया तो सुलतान को संधि के अलावा कोई दूसरा मार्ग न सूझा। उसने अनुनय-विनय करके महाराणा से अपनी गलती की क्षमा माँगी।
महाराणा रायमल के पराक्रम की धूम सभी दिशाओं में गूँजने लगी थी। उन्होंने एक-एक करके लगभग सभी शत्रुओं का दमन कर दिया और मेवाड़ में शांति स्थापित कर ली थी। मगर वे कभी निश्चिंत नहीं रहते थे। वे अपने दायित्व को भली-भाँति जानते थे और उसका निर्वाह भी करते थे। भले ही वे अपने लिए समय नहीं निकाल पाते थे, परंतु अपनी प्रजा के सुख-दुःख में हमेशा आगे रहते थे। यही कारण था कि उनकी छवि प्रजा-वत्सल राजा के रूप में स्थापित हो चुकी थी। उन्होंने अपने राज्य में कई तालाब बनवाकर जल की समस्या का समाधान किया और मनोरम सरोवरों का निर्माण करके चित्तौड़ की भव्यता में चार चाँद लगा दिए। उनका यह राजकीय उद्यान इतना मनोरम था कि वहाँ चार घड़ी बिताकर चिंताएँ दूर हो जाती थीं।
‘‘राणाजी!’’ रानी रतनकँवर ने प्रेम से परिपूर्ण स्वर में कहा, ‘‘मैं बड़ी सौभाग्यवती हूँ, जो आपके प्रेम के अविस्मरणीय क्षण मुझे बारंबार प्राप्त होते रहते हैं। इतने व्यस्त जीवन में भी आपकी यह कृपा मुझे विभोर कर देती है।’’
‘‘ रानीजी!’’ महाराणा गंभीरता से बोले, ‘‘ईश्वर की कृपा रही तो अब हमारे राज्य में चारों ओर सुख-शांति रहेगी। प्रजा को कोई कष्ट न होगा, तो हमारे पास समय-ही-समय होगा। हमने शत्रुओं का दमन तो कर दिया है, फिर भी कुछ ऐसी समस्याएँ हैं, जो हमारी प्रजा को कष्ट दे रही हैं। हम शीघ्र ही उनका भी समाधान करेंगे, फिर युवराज पृथ्वी को राज्यभार सौंपकर जीवन का आनंद लेंगे।’’
‘‘अभी तो कुमार पृथ्वी चौदह वर्ष का ही हुआ है। आप अभी से शासन से कैसे विमुक्त हो सकते हैं।’’ रानी ने हँसकर कहा, ‘‘राणाजी! अभी हमारा ऐसा सौभाग्य कहाँ कि हम प्रतिदिन, प्रतिक्षण आपके प्रेम का सुख प्राप्त कर सकें! यह क्षणिक प्रेमालय भी मिलता रहे तो अच्छा है।’’
‘‘ईश्वर पर विश्वास रखो, महारानी!’’ महाराजा रायमल रानी रतनकँवर को सांत्वना देते हुए बोले, ‘‘समय से पूर्व और भाग्य से अधिक किसी को कुछ नहीं मिलता। राजपूताना में तो प्रेम के लिए वैसे भी समय और परिस्थितियाँ सामान्य नहीं रहतीं।’’
‘‘आपका कथन सर्वथा सत्य है, राणाजी!’’ रानी रतनकँवर अर्थपूर्ण स्वर में बोलीं, ‘‘राजपूताना में तो पुष्पों से अधिक कटारें पल्लवित होती हैं और राजपूतों को इनसे ही अधिक प्रेम होता है।’’
‘‘महारानी, हमें तो तुमसे अत्यधिक प्रेम है और तुम तो कदाचित् कटार नहीं हो!’’
महाराणा हँसते हुए बोले, रानी रतनकँवर लजाते हुए महाराणा के अंकपाश में मुँह छुपाने का असफल प्रयास करने लगीं।
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कुमारों का आखेट-गमन
कुँवर पृथ्वीराज अपने दोनों छोटे भाइयों जयमल और संग्राम सिंह के साथ मेवाड़ के मरुस्थलीय वन में आखेट के लिए आए थे। उनके साथ कई राजपूत सरदार और सैनिक थे। इसी आखेट दल में सूरजमल भी था। सूरजमल उदयसिंह का बड़ा बेटा था, जो पिता की मृत्यु के बाद महाराणा रायमल की शरण में आ गया था। आयु में वह पृथ्वीराज से दो साल बड़ा था। उसका व्यवहार भी मधुरभाषी था और वह सूरजमल को काका कहते थे, बड़ा होने के नाते उनका सम्मान भी करते थे। सूरजमल उन विशेष कुटिलों में से था, जो सरलता से पहचान में नहीं आते।
कुँवर पृथ्वी अपने भाइयों सहित अधिक समय उसी के साथ बिताते और उसकी ज्ञान भरी बातों को बड़े ध्यान से सुनते। तीनों कुमार किशोर हो चले थे और उनके बलिष्ठ शरीर व ललाट से चमकते राजपूती तेज को देखकर मेवाड़ की प्रजा हर्षित होती थी। तीनों ही कुमारों ने तलवारबाजी, मल्लयुद्ध और घुड़सवारी में दक्षता प्राप्त कर ली थी। जब मेवाड़ का वार्षिकोत्सव हुआ तो सारी प्रजा उनका कौशल देखकर तालियाँ बजाती थी। तीनों कुमार वीर, बलवान और दक्ष थे, परंतु जब संग्राम सिंह ने अपने कौशल का प्रदर्शन किया तो महाराणा रायमल ने सिंहासन से उतरकर उन्हें अपनी भुजाओं में भर लिया। तीनों किशोर भाइयों में छोटे होने के नाते संग्राम सिंह पर महाराणा का यह प्रेम स्वाभाविक भी था, परंतु कुछ नेत्रों में इस प्रेम-प्रदर्शन पर कुटिल मुसकराहट तैर रही थी।
इसके अतिरिक्त तीनों कुमारों के व्यवहार में भी कुछ अंतर था। जहाँ कुँवर पृथ्वी को अपनी वीरता, अपने युवराज और राजपुत्र होने का गर्व था, वहीं संग्राम सिंह प्रजाजनों में अपने मधुर व्यवहार के कारण प्रसिद्ध हो रहे थे। जयमल को पिछले कुछ दिनों से जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि वह राजपुत्र अवश्य है, परंतु उन दोनों कुमारों की भाँति उसे सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। यह बात उसके दिमाग में सूरजमल की ज्ञानवाणी ने भर दी थी।
‘‘कुँवर, इसमें दुखी होने जैसा तो कुछ नहीं। प्रजा तो सदैव ही पटरानी के पुत्रों को महत्त्व देती है। लक्ष्मण या भरत भी तो राजकुमार ही थे, परंतु उन्हें भी राम जैसा सम्मान कभी नहीं मिला।’’
सूरजमल की ज्ञानवाणी में छुपी कुटिलता को जयमल क्या समझता? उसे जब भी अवसर मिलता, वह जयमल की ईर्ष्या के हार में अपने कुटिल ज्ञान का मोती प्रेम से पिरो देता। कई बार कुँवर पृथ्वी और संग्राम भी अपने काका की उन भेद भरी बातों में आकर एक-दूसरे से उलझ पड़ते थे। सूरजमल शिक्षा भरी राय देकर उनमें सुलह भी कराता था। इसी कारण किसी को तनिक भी उस पर शंका या अविश्वास नहीं होता था।
आज आखेट पर जाते समय तीनों कुमार बड़े प्रसन्न थे, किसी शिकार की खोज में अपने घोड़ों को आगे बढ़ा रहे थे।
‘‘काका! आज तो कोई शेर मिल जाए।’’ कुँवर पृथ्वीराज ने कहा, ‘‘फिर देखना मेरी तलवार कैसे उसकी चपलता और बल का मानमर्दन करती है।’’
‘‘उससे पहले तो मेरा बाण उसे बींध डालेगा भ्राताश्री!’’ संग्राम सिंह ने उत्साह से कहा, ‘‘इधर दिखा नहीं कि उधर मैंने धराशायी किया।’’ पृथ्वीराज ने रोष भरी दृष्टि से संग्राम को देखा, जो मुसकरा रहा था, उसने फिर काका की ओर देखा।
‘‘शेर इन मरुस्थलों में कहाँ मिलते हैं कुमारो!’’ सूरजमल ने कहा, ‘‘शेर तो मालवा के पहाड़ों और गिर के जंगलों में मिलते हैं। शेर के शिकार की इच्छा तो तभी पूरी होगी, जब आप बड़े होकर इन क्षेत्रों को जीतेंगे। वैसे आप भी तो शेर हैं। एक जंगल में दो तरह के शेर कैसे हो सकते हैं। क्यों कुँवर जयमल! तुम कुछ नहीं बोलोगे?’’
‘‘काका, मैं जब शेर का शिकार करूँगा तो इसी मरुस्थल में करूँगा।’’ जयमल ने अपने विचार व्यक्त कर दिए, ‘‘आप भी साक्षी होंगे।’’
‘‘भ्राताश्री,’’ संग्राम सिंह ने कहा, ‘‘हमारी सहायता के बिना शेर का शिकार संभव न होगा। कभी हमारी अनुपस्थिति में आखेट को मत चले आना।’’
‘‘अनुज, तुम अपने आपको समझते क्या हो?’’ पृथ्वीराज भड़क उठा, ‘‘क्या तुम ही अकेले वीर हो? हमारी रगों में भी उन्हीं वीर राणाओं का रक्त प्रवाहित हो रहा है, जो तुम्हारी रगों में है। तुम अपने को श्रेष्ठ क्यों कहते हो?’’
‘‘भ्राताओ। श्रेष्ठ किसी के कहने से कोई नहीं बनता। श्रेष्ठता तो समय आने पर सिद्ध की जाती है। क्यों काका, यही बात है न?’’
‘‘बात तो सोलह आने सत्य है कुमार, परंतु अपनों के बीच इसे उठाना उचित नहीं होता। तुम तीनों श्रेष्ठ हो और मिलकर सर्वश्रेष्ठ बन जाते हो। मेरी राय में तो सर्वश्रेष्ठ ही बने रहो, यही हमारे कुल के लिए उचित रहेगा। अब किसी शिकार पर अपना ध्यान लगाओ।’’
अभी तीनों कुमार सामान्य भी न हुए थे कि एक ओर से शोर उठा। ऐसा प्रतीत हुआ कि कुछ लोगों को पीटा जा रहा है। तत्काल आखेट दल के घोड़े द्रुतगति से उस दिशा में दौड़ पड़े और घटनास्थल पर पहुँचे तो देखा कि आठ-दस पथिक घायल पड़े हैं और कराह रहे हैं।
‘‘कौन हैं ये सब? इनकी यह दशा किसने की?’’ पृथ्वी सिंह ने पूछा। सूरजमल अपने घोड़े से उतरकर घायलों के पास पहुँचा।
‘‘हम सभी व्यापारी हैं। मालवा से व्यापार करने चले थे। यहाँ रेगिस्तानी लुटेरों ने हमें घेर लिया। वे सौ के आसपास थे। उन्होंने हमारा सारा धन लूट लिया और हमारी यह दशा कर दी।’’ एक घायल ने बताया।
‘‘रेगिस्तानी लुटेरे,’’ संग्राम सिंह का चेहरा क्रोध से भभक उठा, ‘‘हमारे राज्य की सीमा में पथिकों को इतना कष्ट सहना पड़ता है।’’
‘‘कुमार,’’ एक सरदार ने कहा, ‘‘इन रेगिस्तानी टीलों में बहुत साल पहले जंगली लुटेरों का आतंक व्याप्त था। प्रजा और पथिकों की शिकायत पर महाराणा ने उसे ढूँढ़ निकाला था और अपनी तलवार से उसका वध कर दिया था। उसके बहुत से साथी या तो मारे गए या चित्तौड़ के कारागृह में बंदी पड़े हैं। यह अवश्य ही कोई नया गिरोह है।’’
‘‘हमें पिताश्री को शीघ्र ही सूचित करना होगा।’’ जयमल ने कहा।
‘‘पिताश्री को क्यों भ्राताश्री?’’ संग्राम सिंह ने दृढ स्वर में कहा,‘‘क्या हमारी तलवारें शत्रुरक्त की प्यासी नहीं हैं? हम आखेट के लिए आए थे, हमें उन दुष्ट लुटेरों से अच्छा शिकार और क्या मिलेगा? उनके लिए तो हमारी ये तलवारें ही काफी हैं।’’
‘‘संग्राम ठीक कहता है।’’ पृथ्वीराज ने कहा, ‘‘लुटेरे अभी अधिक दूर नहीं गए होंगे। रेतीली भूमि पर उनके चिह्नों से उन्हें ढूँढ़ने में भी कठिनाई न होगी काका। आप इन घायलों के उपचार की व्यवस्था करें और हम इस रेगिस्तान को भयमुक्त करते हैं। चलो अनुजो।’’
कुछ सैनिक सूरजमल के पास घायल पथिकों को चित्तौड़ ले जाने के लिए छोड़ दिए गए और शेष छोटी सी सेना तीनों कुमारों के साथ उन लुटेरों की खोज में आगे बढ़ गई। संग्राम सिंह की चीते जैसी दृष्टि उन चिह्नों पर टिकी थी, जो लुटेरे घुड़सवारों के घोड़ों के पैरों के थे। अंततः एक घेरा बनाकर तीनों राजपुत्रों ने उस लुटेरे दल को घेर लिया।
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महाराणा रायमल को जिस समय समाचार मिला, उस समय वे राजउद्यान से लौटकर दरबार में पहुँचे थे। तत्काल सूरजमल को बुलाया गया, जो घायल पथिकों के साथ वैद्य के पास था। उसके आने तक दरबार में विद्यमान राजपूत सरदारों में व्यग्रता फैली रही।
‘‘महाराज।’’ सेनापति ने व्यग्रता से कहा, ‘‘ रेगिस्तानी क्षेत्र में इस प्रकार की सूचना कई दिनों से मिल रही थी। अब आप शीघ्र आदेश करें, ताकि हम सेना ले जाकर उन उत्पाती लुटेरों को दंड दे सकें।’’ महाराणा ने दृढता से कहा, ‘‘सेनाओं को सेनाओं से युद्ध करना होता है, लुटेरों से नहीं। उनके लिए तो मेवाड़ के वे तीन सिंह ही पर्याप्त होंगे, जो अपने तीखे नाखूनों से उन लुटेरों के कलेजे फाड़कर भूमि पर डाल देंगे। कुँवर पृथ्वीराज की तलवार में इतना पराक्रम है और उस पर भी कुँवर साँगा उनके साथ हैं, इसलिए उस ओर से निश्चिंत रहो। सेना जब तक वहाँ पहुँचेगी, रणभूमि में लुटेरों के शव बिखरे मिलेंगे।’’
बहुत से दरबारियों ने महाराणा की बात का अनुमादेन किया। सभी को मेवाड़ के वीर राजकुमारों के पराक्रम पर विश्वास था। कुछ देर बाद सूरजमल भी वहाँ आ गया।
‘‘कुमार सूरजमल! आखेट पर क्या हुआ, सविस्तार बताओ?’’ महाराणा ने पूछा। सूरजमल ने बड़े ही गंभीर अंदाज में सारी बात कह सुनाई।
‘‘हूँ ऽऽऽ! बहुत पहले एक और लुटेरे ने ऐसा आतंक मचाया था, जो हमारी तलवार के एक ही वार से धराशायी हो गया था। आज तो मेवाड़ का खौलता-उबलता किशोर रक्त उन शत्रुओं के सामने है, इसलिए चिंतित होने की कोई बात नहीं, परंतु कुमार! तुम्हें भी तो इस अभियान पर जाना चाहिए था। तीनों कुमार वीर हैं, साहसी हैं, परंतु अभी उन्हें मार्गदर्शन की आवश्यकता है, इसलिए हमने तुम्हें यह दायित्व दिया है।’’
‘‘महाराज! जिनकी तलवारें म्यान से निकलते ही बिजली कड़काती हैं और शत्रु का हृदय कंपित हो जाता है, ऐसे वीर राजपुत्रों को रणभूमि में किसी मार्गदर्शन की क्या आवश्यकता? ऐसे छोटे-छोटे रण के लिए तो अकेले कुँवर संग्राम सिंह ही पर्याप्त हैं, इस पर बड़े और मझले कुँवर भी उनके साथ हैं तो विजय में कोई संदेह ही नहीं, फिर भी मैं जाना चाहता था, परंतु कुँवर संग्राम सिंह ने घायल पथिकों के उपचार की व्यवस्था का कार्य मुझे सौंप दिया, जो कि मानवीय धर्म था। मेरे मना करने पर संभवतः कुमारों को लगता कि मैं उनकी वीरता के प्रति आश्वस्त नहीं हूँ।’’
‘‘शाबाश कुमार! तुम वास्तव में वीर ही नहीं, बुद्धिमान भी हो।’’ महाराणा ने प्रसन्न होकर कहा,‘‘वीर की वीरता पर वीर ही विश्वास करते हैं। तुमने सही सोचा कि तीनों कुमार इससे आहत हो सकते थे। अब इन घायलों की दशा भी बताओ।’’
‘‘घायलों में तीन की दशा गंभीर है, तथापि वैद्य का कहना है कि खतरे की कोई बात नहीं। शेष सात घायल तो हैं, परंतु शीघ्र स्वस्थ हो जाएँगे।’’
‘‘हूँ ऽऽऽ सेनापति! यद्यपि आज तीनों कुमार उनमें से किसी लुटेरे को जीवित छोड़कर नहीं आएँगे, परंतु हमें निश्चिंत नहीं होना चाहिए। वह व्यापारिक मार्ग हमें निष्कंटक और निर्भय करना होगा। अतः उस मार्ग पर उचित स्थान देखकर कुछ सैनिक शिविर स्थापित किए जाएँ और पथिकों के विश्राम की उचित व्यवस्था की जाए।’’
‘‘जो आज्ञा महाराज, आदेश का शीघ्र पालन होगा।’’
‘‘और शत्रु का शिकार करके लौटने वाले राजकुमारों के भव्य स्वागत की तैयारी की जाए। इसे मेवाड़ के राजकुमारों के उज्ज्वल भविष्य को इंगित करता हुआ अभ्यास अभियान समझा जाए। मेवाड़ की गौरवशाली वंश-परंपरा के अध्याय में यह आखेट और भी नए कीर्ति-स्तंभों की स्थापना करेगा, ऐसा हमारा विश्वास है। प्रजा को विजयोत्सव मनाने की सूचना दी जाए और विजयी कुमारों के नाम पर राजकोष से प्रजा में धनदान, वस्त्रदान और अन्नदान किया जाए। रात्रि होने पर समया संकट सरोवर में दीपदान का उत्सव हो।’’
‘‘जो आज्ञा महाराज!’’
‘‘महाराज!’’ सूरजमल ने प्रार्थना भरे स्वर में कहा, ‘‘यद्यपि आपकी दयादृष्टि से सभी को कृपालाभ होगा, परंतु मैं आपका ध्यान उन घायल पथिकों की ओर इंगित कराने की धृष्टता कर रहा हूँ, जो इस उत्सव का कारण भी बने हैं और उन्होंने बहुत हानि उठाई है। महाराज की कृपा से उनकी हानि की पूर्ति हो जाए तो वे हमारे शत्रु मालवराज के सामने मेवाड़ की प्रशंसा और उदारता का गुणगान अवश्य करेंगे।’’
‘‘शाबाश कुमार! तुमने निश्चय ही एक उत्तम सुझाव दिया है। वास्तव में कुमारों के विजय-अभियान की प्रसन्नता में हम इस बात को भूल ही गए थे। उन पथिक को जो धनहानि हुई है, उसका दोगुना धन उन्हें दिया जाएगा।’’
‘‘महाराज की जय हो!’’ सूरजमल ने उच्च स्वर में कहा। अन्य दरबारी भी महाराणा की उदारता में जयघोष कर उठे।