जिस्म बिना रूह
(A Body Without Soul)
> "इंसान सिर्फ तब तक जिंदा होता है, जब तक उसमें रूह होती है... जिस्म तो बस एक खोल है। पर अगर किसी जिस्म को रूह छोड़ दे, और वो फिर भी ज़िंदा रहे... तो?"
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वर्ष 2004। देहरादून की पहाड़ियों के बीच बसा एक पुराना सरकारी हॉस्पिटल — राजकीय जनरल हॉस्पिटल। समय के साथ ये हॉस्पिटल एक बदनाम इमारत बन चुका था। कहानियाँ थीं कि वहां कुछ ऐसा है जो दिखाई नहीं देता, पर महसूस किया जा सकता है।
एक ऑपरेशन थिएटर नंबर 3, पिछले पाँच सालों से बंद पड़ा था। वजह किसी को ठीक से नहीं पता थी। बस हर कोई कहता —
> “वहाँ कोई रहता है… जो इंसान नहीं है…”
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डॉ. विक्रांत शर्मा, एम्स से पढ़ा हुआ तेज तर्रार युवा डॉक्टर, देहरादून में पोस्टिंग पर आया। उसे ऐसी बातों पर यकीन नहीं था। हॉस्पिटल के पहले ही दिन हेड नर्स रीमा ने कहा —
> “सर, एक बात ध्यान में रखें… ऑपरेशन थिएटर नंबर 3 की चाबी आपको नहीं दी जाएगी। वहाँ मत जाना।”
विक्रांत ने मुस्कुरा कर जवाब दिया, “डरती हो क्या? मैं डॉक्टर हूं, आत्मा पकड़ने वाला नहीं।”
रीमा कुछ नहीं बोली, लेकिन उसकी आँखों में डर साफ झलक रहा था।
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पहली रात, विक्रांत की नाइट ड्यूटी थी। रात के करीब 2:30 बजे अचानक हॉस्पिटल की बिजली चली गई। जनरेटर ऑन हुआ, लेकिन ओटी नंबर 3 का रेड बल्ब अपने आप जल उठा।
रीमा बदहवास दौड़ी आई, “सर! OT-3 में कोई है…”
विक्रांत को लगा कोई मजाक कर रहा है। वह रीमा को लेकर कमरे तक गया। दरवाज़ा थोड़ा खुला था। अंदर झांकते ही ठंडी हवा का झोंका आया — जैसे बर्फ की सर्दी शरीर में उतर गई हो।
कमरे में अंधेरा था। मोबाइल की टॉर्च से जब उसने ऑपरेशन टेबल पर रोशनी डाली — वहां कोई लेटा हुआ था।
वो धीरे-धीरे अंदर गया, लेकिन जैसे ही टॉर्च की लाइट सीधी पड़ी — टेबल खाली थी।
“मुझे तो कुछ नहीं दिख रहा,” विक्रांत बोला।
पर रीमा कांपते हुए बोली —
> “मैंने अपनी आँखों से देखा था, कोई था वहाँ…”
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अगले दिन, जिज्ञासा में घिरे विक्रांत ने हॉस्पिटल के रिकॉर्ड रूम में पुराने मरीजों की फाइलें खंगालनी शुरू कीं। तभी उसे मिली एक पुरानी, धूल भरी फाइल:
> नाम: अमन कुमार
तारीख: 17 नवंबर 1999
केस: हार्ट सर्जरी
नोट्स: "ऑपरेशन के दौरान मरीज़ की धड़कन थी, लेकिन EEG (दिमागी तरंगे) बंद हो गईं। डॉक्टर ने सर्जरी रोक दी। शरीर जीवित था, पर आत्मा… जैसे कहीं चली गई हो।"
“जिस्म बिना रूह…” यह शब्द विक्रांत के ज़हन में गूंज उठे।
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अगली रात, OT-3 का दरवाज़ा फिर खुला मिला। इस बार कोई डर नहीं, बल्कि उत्सुकता थी। विक्रांत अकेले कमरे में गया।
अंदर घुप्प अंधेरा था। तभी लाइट अपने आप जल उठी।
ऑपरेशन टेबल पर कोई लेटा हुआ था।
वह व्यक्ति सफेद कपड़ों में था, चेहरे पर ऑक्सीजन मास्क, पर उसकी आँखें खुली थीं — और घूर रही थीं।
वह धीरे से बोला —
> “तुम वही डॉक्टर हो… मेरी सर्जरी अधूरी रह गई थी। उसे पूरा करो… मुझे इस जिस्म से मुक्ति चाहिए…”
विक्रांत काँप उठा। आवाज़ में इंसानियत नहीं थी — वो गूंजती, दरकती और बहुत भीतर तक डराने वाली थी।
जैसे ही वो पीछे हटा, कमरे का दरवाज़ा ज़ोर से बंद हो गया।
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अगले कुछ दिनों में हॉस्पिटल में अजीब घटनाएं होने लगीं — मरीज़ों का अचानक चीखना, नर्सों का बेहोश हो जाना, और OT-3 का दरवाज़ा हर रात अपने आप खुल जाना।
डॉ. विक्रांत को अब ये समझ आ चुका था — यह आत्मा अधूरी सर्जरी की वजह से फँसी हुई है। और अगर उसने सर्जरी पूरी नहीं की, तो अगला निशाना वही होगा।
वो अपने रिस्क पर OT-3 की चाबी ले आया।
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रात के 3:00 बजे, विक्रांत ने सबकुछ तैयार किया — औजार, रोशनी, दवाइयां, और खुद का आत्मविश्वास।
जैसे ही वह कमरे में गया, टेबल पर अमन फिर से लेटा था — जैसे इंतज़ार कर रहा हो।
> “गलती मत करना डॉक्टर… वरना इस जिस्म में अगली रूह तुम्हारी होगी…” आत्मा बोली।
विक्रांत ने कंपकंपाते हाथों से सर्जरी शुरू की। चाकू चलाते ही — कमरे की दीवारों से चीखें आने लगीं, खून की बूंदें छत से टपकने लगीं, और बिजली फड़फड़ाने लगी।
हर एक कट के साथ आत्मा दर्द में कराहती रही, पर उसने विक्रांत को रोका नहीं।
आखिरी टांका लगाते ही आत्मा ने अपनी आँखें बंद कीं और एक गहरी सांस छोड़ी — जैसे कोई सदियों बाद मुक्त हुआ हो।
विक्रांत ने चैन की सांस ली।
लेकिन तभी ऑपरेशन टेबल पर पड़ी बॉडी ने फिर से आँखें खोलीं — और इस बार उसकी आंखों में एक नई आत्मा थी।
"अब ये जिस्म तेरा है डॉक्टर…" और टेबल पर पड़ी बॉडी ने डॉ. विक्रांत का चेहरा ले लिया।
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सुबह हॉस्पिटल में खबर फैली — “डॉ. विक्रांत अब हॉस्पिटल छोड़कर चला गया है। किसी को बिना बताए।”
रीमा ने जब उसे देखा, तो बोली —
> “सर, आप ठीक हैं?”
वो मुस्कराया,
> “बिलकुल… अब मैं पूरी तरह… जिंदा हूं…”
पर उसकी आँखें अब भी लाल थीं, और उसकी आवाज़… बिल्कुल वैसी नहीं थी।
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अब सवाल ये है… क्या सर्जरी सच में पूरी हुई? या कोई और आत्मा अब नए शरीर में बस गई है?
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