डाकिया जो कभी नहीं लौटा
लेखक: विवेक सिंह
शैली: हॉरर | सस्पेंस | एक ही भाग में पूरी
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गांव का नाम था – गंगापुर।
चारों ओर हरियाली, शांत जीवन, और समय पर पहुंचने वाला डाकिया – राकेश यादव।
राकेश सिर्फ चिट्ठियां नहीं लाता था, वो लोगों की उम्मीदें, भावनाएं और रिश्तों की डोर साथ लाता था। सभी उसे बहुत मानते थे।
लेकिन 13 जुलाई 2003 की दोपहर, जैसे ही उसने एक ख़ास चिट्ठी उठाई, उसका जीवन ही नहीं… पूरा गांव बदल गया।
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🔴 एक चिट्ठी जो रुक गई
राकेश को उस दिन एक चिट्ठी मिली, लिफाफा पुराना था, कागज़ सड़ा हुआ, और ख़ून के धब्बे साफ़ दिख रहे थे।
लिखा था:
"डाक - श्री अमर सिंह, ठाकुर हवेली, सुनसान चौक के पार"
राकेश चौंका।
ठाकुर हवेली?
वो तो पिछले 60 सालों से वीरान थी। गांव में उसके बारे में डरावनी कहानियाँ थीं:
वहां हर अमावस को जंजीरों की आवाजें आती हैं।
रात 3 बजे किसी औरत की भयानक चीख़ गूंजती है।
और जो भी वहां गया... वो लौट कर कभी नहीं आया।
राकेश ने गांव के बुजुर्ग से पूछा, "ये हवेली बंद है न?"
बुजुर्ग कांपती आवाज़ में बोले, "बंद तो है बेटा... पर जो बुलावा वहां से आता है... वो मना नहीं किया जाता…"
राकेश ने हँसते हुए कहा, "मैं डरता नहीं..."
और साइकिल उठाई और निकल गया।
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👻 ठाकुर हवेली — जहां रौशनी भी कांपती थी
सड़क से हटकर कंटीले रास्ते पर, धूल और सन्नाटा लिए हवेली खड़ी थी – काली, ऊंची और टूटी हुई।
दरवाजे खुद-ब-खुद खुले।
राकेश ने ज़ोर से आवाज़ लगाई — "डाक है ठाकुर साहब के लिए!"
कोई उत्तर नहीं आया।
अंदर घुसते ही उसकी सांसें तेज़ हो गईं।
कमरे में दीवारों पर काली स्याही से मंत्र, जले हुए दीये, और बीच में पड़ा एक लोहे का तख़्त… जिस पर कब्र जैसी गंध थी।
एक कोने में आईना रखा था, और आईने में कुछ था… जो राकेश के पीछे नहीं बल्कि उसके अंदर दिख रहा था।
राकेश ने जैसे ही चिट्ठी नीचे रखी, आईना दरक गया और पूरा कमरा हिलने लगा।
फिर... सब कुछ अंधेरे में डूब गया।
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🕳️ और 20 साल बाद…
अब साल था 2023।
निखिल वर्मा, एक युवा पत्रकार, जो सच्चाई खोजने की सनक में जीता था, इस केस पर डॉक्यूमेंट्री बना रहा था।
उसे राकेश के बारे में खबर लगी।
"20 साल हो गए… एक आदमी, जो साइकिल पर गया… और हवा में गायब हो गया?"
उसने फैसला किया –
"मैं उस हवेली के अंदर जाऊंगा। मैं रिकॉर्ड करूंगा वो सब… जो कभी किसी ने नहीं देखा।"
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🎥 कैमरे में कैद हुआ काला सच
निखिल ने रात 12:15 पर हवेली में कदम रखा।
कैमरा ऑन था।
हर कोना रिकॉर्ड हो रहा था।
दरवाजे खुद-ब-खुद बंद हो गए।
चारों तरफ सन्नाटा, बस घड़ी की टिक-टिक और दिल की धड़कन।
नीचे तहखाने में उसे एक पुराना डाक बैग मिला — राकेश का।
अंदर वही चिट्ठी — अब भी ताज़ा ख़ून से सनी हुई।
पर इस बार लिफाफे पर एक नई लाइन जुड़ी थी:
"जिन्होंने भी पढ़ा… वो अब मेरे दूत हैं।"
निखिल ने जैसे ही उसे खोला, चारों तरफ आग की लपटें घुमने लगीं, और एक आवाज़ गूंजी:
> "तू भी अब लौटेगा नहीं..."
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⛓️ आत्माएं जो बंधी हैं चिट्ठियों से
निखिल को एक कमरा मिला जिसमें दीवारों पर लाखों चिट्ठियाँ चिपकी थीं।
हर चिट्ठी के साथ एक फोटो – और हर फोटो एक डाकिये की थी।
इनमें से एक राकेश की थी।
उसकी आंखें अब भी खुली थीं।
और फिर उसने आईने में देखा — खुद को…
काले कपड़ों में, आंखें बिना पलकें झपकाए, और होंठों पर चुप्पी।
वो अब “निखिल” नहीं था…
वो अगला डाकिया बन चुका था।
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टाइम लूप या श्राप?
हर रात 13 जुलाई को, कोई नया पत्रकार, कोई नया खोजकर्ता, कोई नया डाकिया —
हवेली में जाता है और वहीं खो जाता है।
गांव वालों ने उस हवेली को अब मंदिर बना दिया है — पर असली वजह है कि कोई अंदर ना जाए।
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❗ अंतिम मोड़: सच्चाई जो डर से भी बड़ी थी
कुछ महीने बाद गांव के पास वाली नदी में एक कैमरा मिला, उसमें आखिरी रिकॉर्डिंग थी:
> "मेरा नाम निखिल है... अगर तुम ये देख रहे हो, तो मैं अब इस दुनिया में नहीं हूं।
राकेश कभी मरा नहीं था... वो अब भी ज़िंदा है... हर आने वाले में समा जाता है।
हर चिट्ठी एक श्राप है... और अब अगला नंबर... शायद तुम्हारा है।"
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🩸 अब सवाल ये है...
क्या राकेश सच में मर चुका है, या वो हर नए डाकिए में जन्म लेता है?
क्या निखिल की आत्मा भी अब एक नई चिट्ठी के रूप में किसी नए इंसान की जान लेगी?
क्या तुम कभी ऐसी चिट्ठी पाओ तो उसे पढ़ने की हिम्मत करोगे...?
या तुम बन जाओगे… अगला "डाकिया जो कभी नहीं लौटा..."
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✍️ लेखक: विवेक सिंह