रचना: बाबुल हक़ अंसारी
अध्याय 5 "चिट्ठियाँ जो धड़कनों से लिखी गईं"
रात ढल चुकी थी, लेकिन आयशा की आँखों में नींद नहीं थी।
उसके सामने रखी थीं वो सारी चिट्ठियाँ, जो उसने आर्यन को कभी भेजीं और कभी भेज न सकी।
आदित्य ने उन्हें एक-एक करके समेटा था,
जैसे किसी बिखरे हुए प्रेम को फिर से पन्नों में दर्ज करने की ज़िम्मेदारी उसी की हो।
आयशा ने वो चिट्ठियाँ फिर से पढ़नी शुरू कीं —
हर शब्द, हर मोड़, हर विराम में आर्यन की साँसें थीं।
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"प्रिय आर्यन,
तुमसे दूर होकर भी मैं तुम्हारे आसपास साँस ले रही हूँ।
तुम्हारे गिटार की हर तान आज भी मेरी नसों में बहती है।
अगर तुम्हारी कोई धुन अधूरी रह गई है,
तो शायद मेरी मोहब्बत भी…"
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कमरे में एक पुराना रेडियो बज रहा था —
जिसे आदित्य ने खास तौर पर मरम्मत कराया था,
क्योंकि उसी से कभी आर्यन के बैंड का इंटरव्यू आया करता था।
आज उसी रेडियो से एक परिचित आवाज़ गूंज उठी:
“हम पेश कर रहे हैं एक नई सीरीज़ —
‘अनकही मोहब्बत की चिट्ठियाँ’
जो बनारस की घाटों से निकली है,
एक गुमशुदा धुन और एक सिसकती वफ़ा की दास्तान...”
आयशा चौंकी नहीं — मुस्कुरा दी।
"आदित्य… तुमने मेरी चिट्ठियों को आवाज़ दे दी?"
आदित्य दरवाजे पर खड़ा था।
"दीदी, ये सिर्फ आपकी मोहब्बत नहीं,
हम सबका अधूरापन है —
जिसे अब कोई अधूरा नहीं कह सकेगा।"
अब बनारस में, हर हफ्ते एक चिट्ठी पढ़ी जाती है।
घाट पर लोग इकट्ठा होते हैं,
और आयशा की आवाज़ में वो मोहब्बत सुनते हैं —
जो कभी कही नहीं गई,
लेकिन अब हर दिल की धड़कन बन चुकी है।
एक शाम घाट पर एक लड़की आई —
उसके हाथ में एक पुराना गिटार था।
उसने आदित्य को चुपचाप थमाया और कहा —
"ये मेरा नहीं… ये भी किसी अधूरी धुन का हिस्सा है।
क्या आप इसे भी आवाज़ दे सकेंगे?"
आदित्य मुस्कुराया —
"यह सिर्फ शुरुआत है…
‘सिसकती वफ़ा’ अब एक आंदोलन है,
हर अधूरी मोहब्बत की मुकम्मल पहचान।"
"वो आवाज़ जो लौट आई"
बनारस की वो शाम… घाट पर सन्नाटा नहीं था,
बल्कि एक सुनहरा मौन पसरा था —
जिसमें सैकड़ों लोगों की धड़कनें एक साथ सुनाई दे रही थीं।
"अनकही चिट्ठियाँ" की अगली रेकॉर्डिंग शुरू होने वाली थी,
लेकिन इस बार कुछ अलग था।
रेडियो स्टूडियो के भीतर आदित्य अपने माइक को ठीक कर रहा था,
आयशा चुपचाप खड़ी थी —
हाथ में वही पुरानी डायरी लिए।
तभी स्टूडियो के दरवाज़े पर एक जानी-पहचानी सी परछाईं आई।
आयशा ने पलटकर देखा और एक पल को उसका दिल रुक गया।
अयान!
उसे यकीन नहीं हुआ।
सामने वही शख्स खड़ा था —
जिसके शब्दों में कभी आर्यन के सुर बसते थे।
"मैं जानता हूँ," अयान ने धीमे स्वर में कहा,
"तुम्हारे पास अब मुझसे ज़्यादा कहने को है…
पर मेरे पास अब भी वही अधूरी बात है —
जो मैं आर्यन से कह नहीं सका…"
आयशा ने उसकी आँखों में देखा —
उसमें पछतावा भी था और सम्मान भी।
"आर्यन के जाने के बाद…
मैंने सिर्फ एक ही चीज़ सीखी है —
कि कुछ आवाज़ें लौटती नहीं…
लेकिन कुछ लौटकर अधूरी मोहब्बत को पूरा कर जाती हैं।"
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स्टूडियो में माइक ऑन हुआ,
और पहली बार आयशा की जगह अयान की आवाज़ गूंजी —
"ये चिट्ठी…
उस दोस्त के नाम है
जिसने कभी मुझसे कुछ नहीं माँगा,
लेकिन मुझे सब दे गया —
मेरा गुस्सा, मेरा अहंकार, और मेरी आवाज़ भी..."
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बाहर घाट पर बैठे सैकड़ों श्रोता चुपचाप सुनते रहे।
कोई नहीं जानता था कि इस चिट्ठी का अंत क्या होगा —
लेकिन हर कोई जानता था कि
"आज वक़्त ने खुद अपनी चुप्पी तोड़ी थी।
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स्टूडियो से बाहर निकलते हुए अयान ने गिटार उठाया,
आयशा ने डायरी बंद की,
और आदित्य ने कहा —
"अब ये कहानी सच में मुकम्मल होने लगी है…"
(…जारी है – अगला भाग: "धुन जो अब रुकती नहीं")