रचना: बाबुल हक़ अंसारी
अध्याय 4: "पहली बार… पूरी धुन"
पिछले अध्याय में:
"मैं आर्यन का छोटा भाई हूँ… आदित्य। ये गिटार, आपकी चिट्ठियाँ — सब कुछ मेरे पास है। शायद अब वो अधूरी धुन फिर से सांस ले सके…"
घाट पर शाम उतर चुकी थी।
गंगा की लहरें धीरे-धीरे अंधेरे में खो रही थीं,
लेकिन आयशा की आँखों में अतीत अब भी चमक रहा था।
वो सीढ़ियों पर चुप बैठी थी, और आदित्य सामने गिटार थामे खड़ा था।
चारों ओर एक अजीब सी निस्तब्धता थी —
जैसे वक़्त रुककर इस पल को महसूस करना चाहता हो।
“क्या मैं… वो धुन बजा सकता हूँ?”
आदित्य ने पूछा।
आयशा ने धीरे से सिर हिलाया।
गिटार के पहले तार से ही घाट पर एक हल्की सिहरन फैल गई।
आदित्य की उंगलियों से निकलती हर तान जैसे आर्यन की धड़कनें थीं।
आयशा की आँखें बंद थीं।
चेहरे पर कोई शिकन नहीं —
बस सुकून था, यादें थीं, और वो अधूरा प्रेम… जो अब सुरों में ढल रहा था।
धुन पूरी हुई।
और आयशा की आँखों से आंसू बह निकले —
लेकिन इस बार वो आंसू टूटे हुए दिल के नहीं,
बल्कि "मुकम्मल होने" के थे।
तभी पीछे से एक आवाज़ आई – "ओए राज़ी!"
राज़ी – आर्यन का सबसे क़रीबी दोस्त —
जो कॉलेज के दिनों में उसी बैंड में था —
बाहर से लौटकर बनारस आ चुका था।
"आयशा दी… आप आज भी वैसी ही हैं।
लेकिन वक़्त बदल गया है।
आदित्य अब सिर्फ आर्यन का भाई नहीं… वो उसकी आवाज़ है।
क्या हम इस धुन को रिकॉर्ड कर सकते हैं?"
आयशा ने देखा…
“हाँ राज़ी, लेकिन धुन अधूरी नहीं रहेगी…
अब उसके साथ मेरी चिट्ठियाँ भी बोलेंगी।”
रात का समय, घाट पर एक रिकॉर्डिंग सेटअप
गंगा के किनारे टेबल पर एक पुराना माइक रखा गया।
गिटार हाथ में था आदित्य के, और माइक के सामने बैठी थी आयशा —
कांपती आवाज़ में, लेकिन दिल से भरी हुई।
उसने पढ़ना शुरू किया:
> "आर्यन,
जब तुम गिटार बजाते थे, तब मैं सांस लेती थी।
तुम्हारी हर धुन में मेरी चुप मोहब्बत बसी थी…
और जब तुम चुप हुए, तो मेरी आवाज़ भी कहीं खो गई।
आज… तुम्हारा भाई, तुम्हारी धुन, और ये घाट…
सबने मिलकर मुझे लौटा दिया है — मैं फिर से ज़िंदा हूँ…"
भीड़ सन्न थी।
घाट पर खड़े लोग, नाव वाले, फूल बेचने वाली लड़की… सब ठहर गए।
धुन बजती रही…
चिट्ठियाँ गूंजती रहीं…
और पहली बार, "सिसकती वफ़ा" एक मुकम्मल संगीत बन गई।
रिकॉर्डिंग के बाद आयशा ने आदित्य से कहा —
“ये कहानी अब सिर्फ मेरी नहीं… ये सबकी होनी चाहिए।
क्या तुम इसे एक किताब बना सकते हो?”
आदित्य ने गिटार उठाते हुए जवाब दिया —
“हाँ दी… लेकिन उसका नाम वही रहेगा जो आपने दिया था —
‘सिसकती वफ़ा: एक अधूरी मोहब्बत की मुकम्मल दास्तान’”
उस रात, बनारस की हवाओं में वो धुन बसी…
जो कभी अधूरी थी —
पर अब हर दिल की आवाज़ बन चुकी थी।*
और फिर…
जब घाट से सब लौट गए,
तो आयशा आखिरी बार पीछे मुड़ी।
घाट पर खालीपन था,
लेकिन भीतर एक भराव था —
जिसे न कोई सुर बयां कर सकता था,
न कोई शब्द।
गंगा की लहरों में उसे आर्यन की हँसी सुनाई दी —
वो वही मुस्कान थी,
जो धुन के हर विराम में छुपी रहती थी।
उसने आसमान की ओर देखा और बुदबुदाई —
"अब तेरा जाना नहीं लगता…
क्योंकि अब तू धुन बन गया है — और धुनें कहीं जाती नहीं…"
वो मुड़ी और बिना पलटे चली गई —
मगर इस बार उसकी रूह अधूरी नहीं थी।
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(…जारी है – अध्याय 5 “चिट्ठियाँ जो धड़कनों से लिखी गईं”)