भूल-69
दयनीय भारत बनाम अन्य देश
जब नेहरू ने देश की कमान सँभाली थी, तब दक्षिण-पूर्वी एशिया के कई देशों के मुकाबले भारत बेहतर स्थिति में था, जो अब काफी पीछे रह गया, नेहरू के कार्यकाल के अंत तक उन सबसे काफी पीछे। नेहरू भारत की क्षमता के साथ न्याय करने में बुरी तरह विफल रहे।
आइए, एक ठोस तुलनात्मक उदाहरण लेते हैं। सन् 1965 में मलेशिया से विभाजन के बाद सिंगापुर को एक ऐसे स्वतंत्र देश के रूप में छोड़ दिया गया, जो न सिर्फ गरीब और पिछड़ा हुआ था, बल्कि जिसकी रक्षा क्षमताएँ बेहद कमजोर थीं और उसके पास कोई प्राकृतिक संसाधन भी नहीं थे, यहाँ तक कि पानी भी नहीं। उसे मलेशिया से पानी का आयात करना पड़ता। ली कुआन यू को अकसर उनके नाम के प्रारंभिक शब्दों ‘एल.के.वाई.’ के रूप में संदर्भित किया जाता है, इस देश को दर्दनाक विभाजन में नेतृत्व प्रदान करने के लिए इसके प्रधानमंत्री बने। ‘एक देश को क्या मजबूत और समृद्ध बनाता है’ पर उनकी प्रबुद्ध पकड़, दूरदर्शी व ठोस कूटनीति और विदेश नीति, नए विचार, मनीषी रणनीति तथा शासन करने की बेजाेड़ क्षमता की बदौलत उन्होंने सिंगापुर को वर्ष 1965 के एक गरीब, पिछड़े, तीसरे दर्जे के देश से 1980 तक ‘पहले दर्जे’ का एशियाई ब्याघ्र (बाघ) बना दिया, वह भी सिर्फ 15 वर्षों में!
इसकी तुलना में भारत ने नेहरू के 17 वर्षों के शासन के दौरान क्या हासिल किया? भारत के पास जबरदस्त प्राकृतिक और जल संसाधन के साथ रक्षा, सैन्य, प्रशिक्षित नौकरशाही, उद्योग और बुनियादी ढाँचे, विशेषकर रेलवे की महत्त्वपूर्ण औपनिवेशिक विरासत थी। हालाँकि, नेहरू के 17 वर्षों के शासन के अंत में भारत एक गरीब, तीसरे दर्जे का देश ही बना रहा, जो भूख से तड़पते अपने लाखों लोगों के लिए दुनिया से भोजन और सहायता की भीख माँग रहा था।
एल.के.वाई. ने बिना किसी जल संसाधन वाले बंजर सिंगापुर को एक स्वच्छ, सुंदर, हरे-भरे, उद्यान राष्ट्र में बदल दिया। और भारत ने आजादी के बाद क्या किया है? भारत को एक विशाल कचरे के ढेर में परिवर्तित कर दिया।
जापान, जिसकी जी.डी.पी. 1950 के दशक में करीब-करीब भारत की जी.डी.पी. के बराबर ही थी, वर्ष 1980 तक इतनी तेजी से बढ़ा कि भारत की जी.डी.पी. जापान की जी.डी.पी. की सिर्फ 17 प्रतिशत ही रह गई। सन् 1965 से शुरू होनेवाली 15 वर्ष की अवधि के दौरान जापान सालाना 18 प्रतिशत की दर से बढ़ा और 1980 तक अपनी जी.डी.पी. को 91 अरब डॉलर से बढ़ाकर 1.1 ट्रिलियन डॉलर तक ले गया।
दक्षिण कोरिया के पार्क चुंग-ही ने जब अपने देश की सत्ता सँभाली, तब उनके देश की गिनती दुनिया के सबसे गरीब और दयनीय देशों में की जाती थी (भारत की आजादी के समय वह भारत से भी कहीं अधिक गरीब था)। वह दक्षिण कोरिया को प्रगति के ऐसे स्वचलित रास्तेपर ले गए, जहाँ से वह ‘विकसित’ की श्रेणी में पहुँच गया। आज दक्षिण कोरिया एक ऐसा समृद्ध, चमचमाता, आत्मविश्वास से भरा हुआ देश है, जो कई उन्नत विकसित पश्चिमी देशों को आसानी से पीछे छोड़ दे। वर्तमान में, दक्षिण कोरिया की प्रति व्यक्ति आय भारत के मुकाबले 1400 प्रतिशत अधिक है; हालाँकि हमारी स्वतंत्रता के समय यह बिल्कुल बराबरी पर थी।
जापान और साथ ही दक्षिण कोरिया, ताइवान एवं सिंगापुर ने जो हासिल किया, वह इसलिए संभव हो पाया, क्योंकि उनके नेताओं ने किसी भी मंजिल तक न पहुँचानेवाले राजनीतिक रूप से सुविधाजनक और अपना खुद का फायदा देखनेवाले लोक-लुभावन समाजवादी तरीके को अपनाने से इनकार कर दिया; साथ ही यह नहीं सोचा कि सोवियत संघ की नकल करना रामबाण दवा है। चीन को समय पर आई अक्ल की बदौलत उसने अपने समाजवादी अतीत को अलविदा कर दिया, अपने शासन को जबरदस्त तरीके से सुधारा और अब वह आर्थिक एवं सैन्य—दोनों ही मोरचों पर महाशक्ति है।
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पुस्तक ‘द टाटा ग्रुप : फ्रॉम टॉर्चबियरर्स टू ट्रेलब्लेजर्स’ में नेहरू-जे.आर.डी. टाटा के वार्त्तालाप के अंश दिए गए हैं—
“विडंबना यह है कि इन (नेहरू की) आर्थिक नीतियों के परिणाम कम-से-कम प्रोत्साहित करनेवाले तो नहीं थे। सन् 1947 से 1964 के बीच प्रधानमंत्री नेहरू के दौर में प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. का सी.ए.जी.आर. सिर्फ 1.68 प्रतिशत था। इसी अवधि के दौरान द्वितीय विश्व युद्ध की तबाही से उबरने का प्रयास कर रहा एक और एशियाई देश जापान 7.96 प्रतिशत की दर से वृद्धि कर रहा था। जे.आर.डी. (टाटा) ने राजतंत्र की बातचीत को लेकर उदासीनता पर खेद प्रकट किया, जो भारत और उसकी युवा अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकती थी।” (टी.टी.जी./413)
जे.आर.डी. बोले, “मैंने उनके (नेहरू के) साथ अपने विचार साझा करने का प्रयास किया। लेकिन (हमारे विचार भिन्न थे) अर्थशास्त्र के क्षेत्र में, मेरे ख्याल से, वे बेहद कम जानकारी रखते थे और बहुसंख्यकों की स्वतंत्रता को नुकसान पहुँचाए बिना समाजवाद को कैसे अपनाया जा सकता है इससे वे अनभिज्ञ थे। मैंने जब भी राष्ट्रीयकरण या नौकरशाही के विषयों पर बात करने का प्रयास किया, वह बात तक करने को तैयार नहीं थे। जिस क्षण भी मैंने उन्हें कुछ बताने की कोशिश की, वे घूम जाते और खिड़की से बाहर देखने लगते या फिर मुझे अपना विशाल पांडा दिखाने के लिए ले गए।” (टी.टी.जी./413)
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