भूल-67
कृषि की उपेक्षा
“मैंने ग्रामीण अर्थव्यवस्था, विशेषकर कृषि के प्रति उनके (नेहरू के) उपेक्षापूर्ण व्यवहार, को लेकर उनसे झगड़ा किया था और सिंचाई, जो भारतीय कृषि क्षेत्र की कुंजी है, की लगभग पूर्ण उपेक्षा को लेकर उनके सामने अपना विरोध दर्ज करवाया था। नेहरू ने बेहद उपेक्षात्मक ढंग से कहा, ‘तुम गँवार हो। तुम्हें कुछ नहीं पता।’ मैंने प्रतिवाद किया, ‘अगर आपके मन में गाँवों के प्रति मेरे सम्मान का दसवाँ हिस्सा भी होता तो भारतीय अर्थव्यवस्था बिल्कुल अलग होती।’ ...मुझे नहीं पता कि उनकी कोई धारणा थी, सिवाय रूसी मॉडल की नकल करने के।”
—एस. निजलिंगप्पा
‘माई लाइफ ऐंड पॉलिटिक्स : एन अॉटोबायोग्राफी’ (निज)
ऐसा लगता है कि नेहरू और उनकी मंडली अर्थशास्त्र के इस बुनियादी सिद्धांत से पूरी तरह से बेखबर थी कि बिना समृद्ध कृषि क्षेत्र के आपके पास कृषि अधिशेष (Surplus) नहीं हो सकता और उसके बिना आप बढ़ती हुई शहरी आबादी का पेट नहीं भर सकते तथा न ही औद्योगिकीकरण को जारी रख सकते हैं। इसके बावजूद, उन्होंने कृषि क्षेत्र की अनदेखी की। कृषि का क्षेत्र इतना उपेक्षित था कि वर्ष 1957 तक भारत का कृषि उत्पादन 1953 के कृषि उत्पादन से भी नीचे पहुँच गया था।
जापान और उसके जैसे अधिकांश देश, जिन्होंने बहुत तेजी से विकास किया और विकसित देशों की श्रेणी में शामिल हुए, ने सबसे पहले कृषि और सार्वभौमिक शिक्षा पर अपना ध्यान केंद्रित किया। नेहरू ने दोनों की उपेक्षा की। नेहरू ने बिना यह सोचे-समझे सोवियत संघ की नकल की कि सभी कम्युनिस्ट देशों को कृषि की कीमत पर भारी उद्योगों पर अपना सारा जोर देने के परिणामस्वरूप भयंकर अकाल का सामना करना पड़ा।
नेहरू वहाँ समाजवादी बन गए, जहाँ उन्हें नहीं बनना चाहिए था—औद्योगिकीकरण में; और जहाँ समाजवादी नस पकड़नी चाहिए थी, वहाँ नहीं पकड़ी—कृषि एवं भूमि-सुधार के क्षेत्र में। जाने-माने अर्थशास्त्री जगदीश भगवती ने सुझाव दिया था कि शायद भारत को उद्योग में पूँजीवाद और भूमि में समाजवाद की आवश्यकता है। लेकिन नेहरू ने इसका बिल्कुल उलटा किया—गलत भावना के अलावा इसका प्रमुख कारण थे वोट; आखिर शक्तिशाली जमींदारों और भूमि-संपन्न वर्गों को क्यों नाराज किया जाए?
कुलदीप नैयर ने अपनी पुस्तक ‘बियॉण्ड द लाइंस’ (के.एन.) में लिखा—“...मेरे हाथ वुल्फ लेडजिंस्की की एक रिपोर्ट (भूमि सुधार संबंधी) लगी। उनकी रिपोर्ट में इस बात के लिए सरकार की कड़ी आलोचना की गई थी कि उसके किए गए सुधार कागजों में तो हो रहे हैं, लेकिन जमीन पर बहुत कम दिखाई दे रहे हैं। आश्चर्य की बात है कि नेहरू ने उस रिपोर्ट को सार्वजनिक किए जाने से रोक दिया था। नेहरू ने कठोर भूमि-सुधार को शुरू करने के प्रस्ताव से हाथ झाड़ लिये थे, जब उन्हें पता चला कि राज्य इस कदम के खिलाफ हैं। इसका पूरे देश में एक गलत संदेश गया और उन्होंने एक बार फिर यह बात साबित कर दी कि जब निहित स्वार्थ शामिल हों तो वे किसी भी मुद्दे से जुड़ने से नफरत करते हैं।” (के.एन.)
भारत को खाद्य पदार्थों में भारी कमी का सामना करना पड़ा। वह यू.एस.पी.एल.-480 खाद्य सहायता पर निर्भर हो गया और एक अंतरराष्ट्रीय भिखारी बन गया। भोजन की कमी के बारे में सवाल पूछे जाने पर नेहरू का एक बेहद हास्यास्पद बहाना था, “भारत में भोजन की कमी है, क्योंकि लोग अधिक खा रहे हैं।” (यू.आर.एल.107)
------------
भूल-68
‘आधुनिक’ भारत की भूल
नेहरू के प्रशंसक दावा करते हैं कि वे आधुनिक भारत के निर्माता थे। क्या कोई ऐसे ‘आधुनिक’ भारत की बात कर रहा है, जिसके राजमार्ग टूटी-फूटी पगडंडियों जैसे हैं, जिन पर फिएट और एंबेसडर कारें दौड़ती हैं, जिसकी सुरक्षा का जिम्मा द्वितीय विश्व युद्ध के समय के हथियारों पर हो, जहाँ भोजन की कमी बारहमासी हो, अकाल और सूखा, लाखों लोग गरीबी में जीवन जीने को मजबूर हों और जिसके दोनों हाथों में भीख का कटोरा हो? उन्होंने अनुसंधान करनेवाली प्रयोगशालाओं की एक शृंखला को खड़ा किया; लेकिन उन्होंने बहुत कम काम किया और पैसा डुबोने वाली बन गईं। दयनीय संचार के नेटवर्क और यातायात ने आर्थिक विकास, गरीबी के विरुद्ध लड़ाई, गतिशीलता और राष्ट्रीय एकीकरण को बुरी तरह से प्रभावित किया।
कई देश—जिनमें दक्षिण-पूर्वी एशिया के देश भी शामिल हैं, जो भारत के स्वतंत्र होने के समय भारत से कहीं पीछे थे—भारत से कहीं आगे निकल गए। जब आप उनके हवाई अड्डों, उनकी सड़कों, उनके महानगरों, उनके योजनाबद्ध शहरों, उनके बुनियादी ढाँचे, उनकी स्वच्छता, उनकी किसी भी चीज को देखते हैं तो आप इस सोच में पड़ जाते हैं कि आखिर क्यों आप अब तक टूटी-फूटी सड़कों, भीड़भाड़, बिजली के पुराने तारों के जाल, आसमान में लटकते दिखाई देते केबल टी.वी. एवं इंटरनेट के तारों और आस छोड़ चुकी पीढ़ियों की ‘चलता है’ वाली मानसिकता वाले देश में रहते आए हैं (नेहरूवादी और नेहरू के राजवंश के समय तक (मोदी के आने के बाद स्थितियों में बदलाव आने लगा है))? अनुपस्थित फुटपाथों या अतिक्रमित फुटपाथों या ऐसे कामों के परिणामस्वरूप बदबू मारते फुटपाथों, जिनके लिए वे बने ही नहीं हैं और जहाँ पर पैदल चलनेवालों के लिए जरा भी दया नहीं है, बल्कि उनके लिए हैं टूटे हुए फर्श के टुकड़े, जो बिना ढक्कनवाले या आधे-अधूरे ढक्कनवाले या गलत तरीके से ढँके हुए सीवरों से भरे पड़े हैं, जो बेसब्री से खुद उनके मुँह में समाने का इंतजार कर रहे हैं; बदबू से भरी झुग्गी-झोंपड़ियों और गंदे गाँवों, खुली नालियों व सीवरों, सड़ते कूड़े, चारों तरफ फैली मलिनता और बदबू, सड़क किनारे शौच आदि से निवृत्त होते बच्चे और बड़ों का देश—ये सभी आधुनिक और सभ्य होने के मूल आधारों की अनुपस्थिति की गवाही देते हैं।
अधिकांश भारतीय कस्बे, शहर एवं महानगर गंदे, दुर्गंध से भरे और घिनौने हैं। वे स्थानों की कमी और भू-दृश्य पर धब्बे जैसे दिखते हैं। पश्चिम, दक्षिण-पूर्व एशिया, चीन और अन्य जगहों के शहर साल-दर-साल और अधिक बेहतर, स्वच्छ, शानदार, अच्छे होते जा रहे हैं; जबकि हमारे शहर और अधिक बदतर, ज्यादा भीड़भाड़ वाले, अधिक प्रदूषित, रहने के लिहाज से अधिक दुश्वार और घिनौने होते जा रहे हैं।
आखिर ऐसा क्या हुआ कि हम इतना पीछे रह गए? आखिर वह क्या है, जो हमने आजादी के बाद किया या जिसे करने से चूक गए कि सब कुछ इतना अधिक घृणित और दयनीय है? और ये तमाम दुर्गति भारत की आजादी के समय एक देश के रूप में प्रथम श्रेणी के लोगों, बहुतायत से प्राकृतिक संसाधनों, भव्य सभ्यतागत विरासत, समृद्ध संस्कृति और भाषाओं, बेजोड़ नैतिक व आध्यात्मिक परंपराओं और इन सबसे ऊपर, सभी क्षेत्रों (बुनियादी ढाँचे, प्रशिक्षित श्रम-शक्ति, नौकरशाही, सेना) के क्षेत्र में उन सबके मुकाबले, जो उसके बाद से हमसे आगे निकल चुके हैं। आखिर क्यों हम एक प्रतिभा-संपन्न देश की इतनी समृद्ध संपत्ति का लाभ उठाने में असफल रहे? यह सब हुआ नेहरूवादी नीतियों की बदौलत। भारत को हमेशा एक विकासशील, तीसरे दर्जे का देश बनाए रखने का जिम्मेदार है नेहरूवाद।