भूल-12
किन परिस्थितियों ने भारतीय स्वतंत्रता का रास्ता वास्तव में साफ किया?
अकसर होता यह है कि जब भी कोई नेहरू की भूलों और गलतियों की तरफ इशारा करता है तो उनकी बात को यह कहते हुए नकारने का प्रयास किया जाता है कि “आखिरकार, नेहरू (गांधी और अन्य गांधीवादियों के साथ) ने हमारे लिए स्वतंत्रता हासिल की!” तो क्या वे गांधी-नेहरू-कांग्रेस थे, जिन्होंने अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया?
क्या आजादी गांधी-नेहरू और कांग्रेस की देन थी? नहीं।
पूर्ण स्वतंत्रता के लिए अंतिम (और इकलौता!) गांधीवादी आंदोलन सन् 1942 का ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ आंदोलन था। आपको यह ध्यान दिलाना आवश्यक है कि उनके पूर्व के आंदोलन, जैसे रॉलेट सत्याग्रह इत्यादि, या फिर एक दशक में एक बार किए गए दो प्रमुख गांधीवादी आंदोलन—1920-22 का ‘खिलाफत आंदोलन’ एवं ‘असहयोग आंदोलन’ और 1930 का ‘नमक सत्याग्रह’ तथा साथ ही उसके बाद हुआ 1931-32 का सविनय अवज्ञा आंदोलन—पूर्ण स्वतंत्रता किसी एक के भी एजेंडे में बिल्कुल भी मौजूद नहीं थी! हाँ, यह बात दीगर है कि कांग्रेस और कांग्रेस के नेता अपनी बैठकों, प्रस्तावों, भाषणों व लेखों में स्वराज या फिर स्वतंत्र उपनिवेश या स्वतंत्रता की बात करते थे और उन्होंने ‘पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा’ या फिर 29 दिसंबर, 1929 को लाहौर में (बहुत देर से) ‘स्वतंत्र भारत की घोषणा’ और उसके बाद 26 जनवरी, 1929 को उसकी प्रतिज्ञा का आधिकारिक तौर पर ऐलान करते थे; लेकिन सन् 1942 के ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ आंदोलन से पहले कांग्रेस के किसी भी महत्त्वपूर्ण आंदोलन में पूर्ण स्वराज या पूर्ण स्वतंत्रता की माँग उनके एजेंडे के आइटम या अंग्रेजों से की गई माँगों में शामिल नहीं थी!
और यहाँ तक कि 1942 ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के लिए भी जाने-माने इतिहासकार डॉ. आर.सी. मजूमदार ने लिखा—“1942 (भारत छोड़ो) की उपलब्धियों के लिए किसी भी श्रेय का दावा करने की बात तो बहुत दूर की रही, गांधी और कांग्रेस दोनों ने ही उस ‘पागलपन’ के लिए माफी और स्पष्टीकरण की पेशकश की, जिसने लोगों को उसमें भाग लेने के लिए प्रेरित किया था।” लेखक अनुज धर ने 1 जुलाई, 2018 के अपने एक ट्वीट में उद्धृत किया। अनुज धर ने यह भी ट्वीट किया, “यह दावा कि भारत की आजादी ‘भारत छोड़ो’ की देन है, राज्य-प्रायोजित धोखा है।” (ए.डी.1)
‘भारत छोड़ो’ करीब दो महीने में ही असफल हो गया। गांधी ने ‘भारत छोड़ो’ के बाद कोई आंदोलन नहीं प्रारंभ किया। क्या कोई इस बात को मान सकता है कि ब्रिटिशों ने सन् 1942 में किए गए ‘भारत छोड़ो’ के आह्वान पर ध्यान दिया और पाँच साल के विलंब के बाद सन् 1947 में उस पर काररवाई अमल में लाए? क्या किसी प्रकार की कोई अति विलंबित ट्यूबलाइट प्रतिक्रिया थी? ‘भारत छोड़ो’ का आह्वान पाँच साल की देरी के बाद सुना गया!
ब्रिटेन ने सन् 1946 में स्वतंत्रता का संकेत दिया और 1947 में औपचारिक रूप से इसकी घोषणा की और उस पर ऐसा करने के लिए कांग्स की ओर से शायद ह रे ी जरा भी दबाव डाला गया था। कई रियासतों के शासकों ने तो वास्तव में आश्चर्य व्यक्त किया (वे नहीं चाहते थे कि ब्रिटिश छोड़कर जाएँ, क्योंकि यह उनकी शक्ति और उन्हें मिलनेवाले भत्तों का सवाल था, जो ब्रिटिशों के राज में सुरक्षित थे) और राज से पछूा कि जब उसके खिलाफ कोई आंदोलन तक नहीं चल रहा है और उन पर छोड़कर जाने की कोई माँग या फिर जरा भी दबाव नहीं है तो फिर वे यहाँ से क्यों जाना चाहते हैं?
ब्रिटिशों ने शुरू में भारत छोड़ने के लिए जून 1948 की समय-सीमा की घोषणा की। उसके बाद उन्होंने खुद ही इसे पीछे खिसकाकर अगस्त 1947 कर दिया। अगर अंग्रेज छोड़कर नहीं जाना चाहते थे और वह कांग्रेस थी, जो उन्हें छोड़कर जाने को मजबूर कर रही थी, तो फिर क्यों ब्रिटिशों ने स्वेच्छा से अपने प्रस्थान की तारीख को पीछे करने की घोषणा की? इसका सीधा सा मतलब यह है कि गांधी तथा गांधीवाद और गांधीवादी कांग्रेस वास्तव में अंग्रेजों के जाने के पीछे की असल वजह नहीं थे। इतना तो गांधी ने खुद भी स्वीकार किया।
किसने क्या कहा
गांधी ने खुद क्या कहा—
“मैं इसे बिल्कुल अपने हाथ की उँगलियों की ही तरह स्पष्ट रूप से देख सकता हूँ—ब्रिटिश हमारी तरफ से प्रदर्शित की गई किसी मजबूती के चलते यहाँ से नहीं जा रहे हैं, बल्कि वे ऐसा ऐतिहासिक परिस्थितियों और कई अन्य कारणों के चलते कर रहे हैं।”—महात्मा गांधी (गिल/24) ‘ऐतिहासिक परिस्थितियाँ और कई अन्य कारण’ गांधी या फिर कांग्रेस की उपज नहीं थे। ये उनके बावजूद थे।
22 जुलाई, 1947 को तिरंगे को भारतीय राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाए जाने से पहले गवर्नर जनरल लॉर्ड लुइस माउंटबेटन ने भारतीय राष्ट्रीय ध्वज के लिए ऊपरी बाएँ या ऊपरी दाएँ कोने में ‘यूनियन जैक’ का डिजाइन और प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। जब अन्य लोगों ने इस प्रकार के घटिया सुझाव का विरोध किया या उसे अस्वीकार किया तो महात्मा गांधी ने 19 जुलाई, 1947 को एक प्रार्थना सभा में अपने भाषण के दौरान यह कहा था (सी.डब्ल्यू.एम.जी./खंड-96/86-87)
“मुझसे (गांधी) कुछ सवाल पूछे गए हैं। उनमें से एक यह है—‘सब यह बात समझ रहे हैं कि प्रस्तावित किए गए राष्ट्रीय ध्वज के एक कोने में छोटा सा यूनियन जैक मौजूद होगा। अगर ऐसा है तो हम ऐसे झंडे को फाड़ देंगे और अगर आवश्यकता हुई तो अपने जीवन का बलिदान देने से भी पीछे नहीं हटेंगे।’
“जवाब (गांधी द्वारा) : ‘लकिन हमारे ध्वज के एक कोने में यूनियन जैक होने में क्या गलत है? अगर हमें ब्रिटिशों द्वारा नुकसान पहुँचाया गया है तो यह उनके झंडे द्वारा नहीं किया गया है और इसके अलावा, हमें ब्रिटिशों की खूबियों को भी ध्यान में रखना चाहिए। वे सत्ता को हमारे हाथों में सौंपते हुए भारत से स्वेच्छा से जा रहे हैं। एक सशक्त बिल, जो वस्तुतः साम्राज्य को समाप्त कर देता है, को संसद् में पारित होने में एक सप्ताह का समय भी नहीं लगा। यह ऐसा समय था, जब महत्त्वहीन बिलों को भी पारित होने में एक वर्ष या उससे अधिक का समय लगा।... हमारे पास प्रमुख द्वारपाल के रूप में लॉर्ड माउंटबेटन मौजूद हैं। वे इतने लंबे समय से ब्रिटिश राज के सेवक रहे हैं। अब वे हमारे सेवक बनकर रहेंगे। अगर इस दौरान हम उन्हें अपने सेवक के रूप में रखते हैं और साथ ही अपने झंडे के कोने में यूनियन जैक भी मौजूद रहता है तो इसमें भारत के साथ विश्वासघात वाली कोई बात नहीं होगी, यह मेरा मानना है। मुझे यह देखकर काफी दुःख होता है कि कांग्स नेता रे ऐसी उदारता नहीं दिखाते हैं। इस वजह से हमें ब्रिटिशों के प्रति अपनी दोस्ती दिखानी चाहिए थी। अगर मेरे पास वह शक्ति होती, जो कभी मेरे पास होती थी, तो मैंने लोगों को इस काम पर लगा दिया होता। आखिरकार, हमें अपनी मानवता को क्यों छोड़ देना चाहिए?’” (सी.डब्ल्यू.एम.जी./खंड-96/86-87)
गांधी ने सन् 1946-47 के दौरान अलग-अलग मौकों पर स्वीकार किया, “क्या मैंने देश को गुमराह किया है?...क्या मेरे साथ कुछ गलत है या फिर चीजें ही वास्तव में गलत हो रही हैं?... सत्य और अहिंसा, मैं जिनकी शपथ लेता हूँ और जो मेरी जानकारी में पिछले साठ वर्षों से मेरे साथ हैं, असफल होती दिखाई दे रही हैं। मेरा अपना सिद्धांत भी असफल हो रहा था। मैं असफल नहीं बल्कि एक सफल व्यक्ति बनना चाहता हूँ। लेकिन हो सकता है कि मैं एक असफल के रूप में मर जाऊँ।” (गिल/212)
उन्हें इस बात का अंदाजा हो गया था कि उनका दशकों का काम एक ‘शर्मनाक अंत’ तक पहुँच गया था। ऐतिहासिक, आर्थिक, धार्मिक और साम्राज्यवादी ताकतों को नजरअंदाज करनेवाला एक असत्य, अवैज्ञानिक और तर्कहीन नींव पर आधारित हवा-हवाई मत और जिसने ब्रिटिशों के हितों की प्रकृति और उन ताकतों को पहचाना नहीं या फिर उन्हें बेहद कम करके आँका, जिनके खिलाफ वह खड़ा था, को विफल होना ही था।
गांधी ने इस बात की कल्पना की थी कि स्वतंत्रता के बाद भारतीयों को प्रशिक्षित करने के लिए ब्रिटिश सेना कुछ समय तक यहाँ रुकेगी। इसका मतलब यह हुआ कि गांधी ने ब्रिटिशों को निकाल बाहर करने को कभी एक विकल्प के रूप में लिया ही नहीं और इस मामले में ब्रिटिशों ने निश्चित रूप से अपने विरोधियों को प्रशिक्षित करने के लिए भारत में रुकने की जहमत नहीं उठाई होती। गांधी ने कहा था, “हमारे पंखों को काट देने के बाद यह उनका (ब्रिटिशों का) फर्ज है कि वे हमें पंख दें, जिनकी सहायता से हम उड़ सकें।” (नैन/314)
उपर्युक्त का अर्थ यह निकलता है कि गांधी का स्वाधीनता आंदोलन और कुछ नहीं, बल्कि एक दोस्ताना मुकाबला था, जिसमें प्रतिद्वंद्वी (ब्रिटिश) से उम्मीद की जा रही थी कि वे पीछे हटने के बाद दूसरे पक्ष के प्रति न्यायसंगत और उदार रहें।
एस.एस. गिल
“गांधी के अभियानों और रणनीतियों में दोष निकालना धृष्टता की पराकाष्ठा है और एक महान् आयामोंवाले एक व्यक्ति को छोटा करके दिखाने का प्रयास लगता है, विशेषकर तब, जब राष्ट्रवादी कथाएँ उनकी उपलब्धियों को पुनर्मूल्यांकित करने को धर्म-विरोधी मानती हैं। काम करनेवाले महान् व्यक्ति, जो बड़े काम करते हैं, बड़ी गलतियाँ ही करते हैं। उनकी ओर ध्यान दिलवाने में कुछ भी गलत नहीं है। यह भी एक प्रकार से गांधीवादी कर्तव्य ही है, क्योंकि उन्होंने सत्य की तुलना भगवान् के साथ की है।” (गिल/75)
“आमतौर पर माना यह जाता है कि गांधी की सबसे बड़ी उपलब्धि औपनिवेशिक शासन से भारत की मुक्ति थी; लेकिन ऐतिहासिक साक्ष्य इस दृष्टिकोण का समर्थन नहीं करते हैं।” (गिल/24)
डॉ. बी.आर. आंबेडकर
“भारत छोड़ो अभियान पूरी तरह से विफल साबित हुआ। यह एक पागलपन भरा काम था और इसने सबसे अप्रिय रूप ले लिया। यह घर फूँककर तमाशा देखनेवाला एक ऐसा अभियान था, जिसमें लूट-पाट, आगजनी और हत्याओं के शिकार होनेवाले भारतीय थे और इसके मुजरिम थे कांग्रेसी; पराजित होने के बाद उन्होंने (गांधी ने) मार्च 1943 में कारावास में यह सोचकर इक्कीस दिनों का उपवास प्रारंभ किया कि वे उससे बाहर आ सकेंगे। वे विफल रहे। इसके बाद वे बीमार पड़ गए। उनके मरणासन्न होने की सूचना मिलने पर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें इस डर से रिहा कर दिया कि कहीं वे उनके हाथों मारे न जाएँ और इस बदनामी का दाग उनके सिर न लगे! कारावास से बाहर निकलने पर उन्हें (गांधी को) यह आभास हुआ कि वे और कांग्रेस सिर्फ पीछे ही नहीं छूट गए हैं, बल्कि वे रास्ते से भी भटक चुके हैं। पुरानी स्थिति को दोबारा पाने और देश के सबसे प्रमुख दल के रूप में ब्रिटिश सरकार के भरोसे, जिसे उन्होंने ‘भारत छोड़ो’ अभियान की विफलता और उसके बाद फैली हिंसा के चलते खो दिया था, को दोबारा हासिल करने के लिए उन्होंने वायसराय के साथ बातचीत प्रारंभ की। इस प्रयास में विफल रहने के बाद श्रीमान गांधी ने श्रीमान जिन्ना की ओर रुख किया।” (आंबे.3)
नीरद चौधरी
उस (विश्व) युद्ध के चलते खतरनाक विचारक साबित होने के बाद शांतिवादियों ने अब अपने अंतिम औजार के रूप में दोबारा गांधी का रुख किया है और उनका यह कहना है कि अपने अहिंसक तरीकों से भारत को विदेशी शासन से मुक्त करवाने के साथ उन्होंने यह साबित कर दिया है कि अहिंसक तरीके और विचार कारगर हैं। दुर्भाग्यवश, गांधी की मृत्यु से पहले अंग्रेजों के भारत से चले जाने ने उसे एक नकली और दिखावटी स्वीकार्यता प्रदान कर दी है, जो वास्तव में बिना अनौपचारिक संबंधों वाला एक संयोग है।...और आखिर में, उनके (गांधी के) पास कोई वास्तविक उपलब्धि तो थी नहीं, जैसाकि मैं आपको तब दिखाऊँगा, जब मैं उनकी मृत्यु के बारे में बात करूँगा। उन पर जो भी थोपा जाता है, वह राजनीतिक रूप से पूर्णतः छलावरण है।” (एन.सी./41)
पैट्रिक फ्रेंच
“1930 के दशक के उत्तरार्ध से गांधी स्वतंत्रता आंदोलन के लिए एक ऐसा बोझ थे, जो एक विचित्र एजेंडे का पालन कर रहे थे, जिसने जितनी समस्याएँ हल कीं, उतनी ही नई पैदा कर दीं। वी.एस. नायपॉल ने इस बात को और अधिक दो-टूक शब्दों में कहा, ‘गांधी बहुत अधिक समय तक जीवित रहे।’” (पी.एफ./105)
वी.एस. नायपॉल
“किसी ने गांधी के तरीकों को स्वीकार नहीं किया। कई लोग स्पष्ट रूप से उनकी ‘अंतरात्मा की आवाज’ के मनमाने आदेशों से हतोत्साहित हो गए। और 1930 के दशक के राजनीतिक गतिरोध में, जिसके लिए कुछ भारतीय अभी भी उन्हें ही दोषी ठहराते हैं—गांधी की अप्रत्याशित राजनीति, वे कहते हैं कि उनके द्वारा छोड़ी शक्तियों को प्रबंधित करने में उनकी अक्षमता के चलते स्वतंत्रता के संघर्ष को अनावश्यक रूप से लंबा खींचना पड़ा, स्वायत्त शासन में पच्चीस बरस की देरी हुई और इसने कई अच्छेलोगों के जीवन और प्रतिभा को बरबाद कर दिया।” (नाय.1)
सीता राम गोयल
“सुभाष बोस द्वारा चुना गया रास्ता एक सच्चे देशभक्त का रास्ता था। वे कठिनाइयों के बावजूद अंत तक उस रास्ते पर बने रहे। उन्होंने अपना रास्ता तब भी नहीं बदला, जब दक्षिणपंथियों और वामपंथियों के एक विचित्र संयोजन ने उन्हें कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखा दिया। उन्होंने अपना रास्ता तब भी नहीं बदला, जब उन्हें देश में ही अलग-थलग कर दिया गया। इस रास्तेपर चलने के दौरान ही वे देश से बाहर चले गए, आजाद हिंद फौज की स्थापना की, खून से सने युद्ध के मैदान पर राष्ट्रीय एकता को तैयार किया और ब्रिटिश भारतीय सेना के मनोबल को तोड़ा, जिसने (ऐसा खादी पहने भीड़ के संकल्पों और जेल यात्राओं के चलते नहीं हुआ था, जैसाकि हमें अब तक आधिकारिक रूप से मानने के लिए कहा जाता है) ब्रिटिशों को भारत छोड़ने पर मजबूर किया।” (एस.आर.जी.2/144)
“आजादी के बाद से ही कांग्रेस का सारा प्रचार-प्रसार इस बात के चारों ओर केंद्रित रहा कि उसने अहिंसक असहयोग के रास्तेपर चलकर ब्रिटिशों को देश से बाहर खदेड़ा और देश को आजादी दिलवाई। कांग्रेस बड़े विशिष्ट गर्व के साथ द्वितीय विश्व युद्ध के समय अपनाई गई नीतियों का उल्लेख करती है, विशेषकर अगस्त 1942 में बॉम्बे में ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव के पारित होने के बाद की। इसे और अधिक आसान शब्दों में समझने के लिए हमें यह मानने के लिए कहा जाता है कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद सिर्फ इसलिए भयभीत हो गया कि देश के कुछ भागों में कुछ कांग्रेसियों ने ब्रिटिश जेलों में ठूसे जाने से पहले टेलीफोन के कुछ खंभों को उखाड़ फेंका और कुछ पत्र-पेटियों को तोड़ दिया।” (एस.आर.जी.2/146)
“लेकिन यह मानव जाति के इतिहास में ज्ञात सबसे बड़े झूठों में से एक है। और प्रत्येक कांग्रेसी अपने दिल की गहराइयों से इस बात को जानता है कि वह झूठ बोल रहा है। द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारंभ होने से पहले कांग्रेस की नीतियों के गुण-दोष चाहे जो भी रहे हों, युद्ध के दौरान कांग्रेस ने जिन नीतियों को अपनाया, वे पूरी तरह से बेकार और दिवालिया थीं। अगर ये नीतियाँ कुछ हासिल करने में कामयाब रहीं तो वह था—देश का विभाजन और हमारी मानसिकता में वामपंथी ट्रोजन हॉर्स को स्थापित करने में।” (एस.आर.जी.2/146)
“जहाँ तक स्वतंत्रता की बात है, यह इसलिए मिली, क्योंकि युद्ध ने ब्रिटेन को एक दिवालिया शक्ति के रूप में सीमित कर दिया था; क्योंकि सुभाष बोस की आजाद हिंद फौज ने ब्रिटिश भारतीय फौज के मनोबल को बुरी तरह से तोड़ दिया था और क्योंकि ब्रिटिश लेबर पार्टी को, नेहरू द्वारा अपनी सभी पुस्तकों में उनके विरुद्ध दुर्भावनापूर्ण आक्षेपों के बावजूद, वास्तव में उन नारों पर विश्वास था, जो उन्होंने लगाए थे। यह एक बिल्कुल ही अलग मामला है कि कांग्रेस को वह शक्ति विरासत में प्राप्त हुई थी, ब्रिटिश जिससे अपना संबंध समाप्त करने की बेहद जल्दी में थे। इससे यह साबित नहीं होता कि कांग्रेस को मिली शक्ति उसके अपने प्रयासों का परिणाम थी, या फिर यह कि कांग्रेस अपने आंतरिक सामंजस्य या आंतरिक चरित्र के संदर्भ में उस शक्ति का उपयोग करने के लिए योग्य थी। इससे सिर्फ यह बात साबित होती है कि जाते हुए ब्रिटिशों ने कांग्रेस के संगठन में विश्वास की एक पर्याप्त भावना देखी थी। अंग्रेजों को इस बात का पूरा भरोसा था कि कांग्रेस उस राजनीतिक व्यवस्था के जीवन को जारी रखने में सक्षम होगी, जो उन्होंने उन पर थोपा है।” (एस.आर.जी.2/146)
स्वतंत्रता : असल कारण
1940 के दशक के प्रारंभ तक ब्रिटिश सत्ता में अच्छी तरह से स्थापित थे और वे वर्ष 1918 के बाद गांधीवादियों द्वारा दो दशकों तक किए गए आंदोलनों के बावजूद कई अन्य दशकों तक उसे आराम से जारी रखने के लिए पूरी तरह से तैयार थे। अगर उन्होंने कांग्रेस और मुसलिम लीग के बीच राजनीति खेली तो इसके पीछे का उनका मकसद सिर्फ अपने शासन को लंबा खींचना था, न कि स्वतंत्रता प्रदान करने या फिर पाकिस्तान का निर्माण कराना। उन्होंने कभी भी गांधीवादी अहिंसक तौर-तरीकों को अपने शासन के लिए खतरा नहीं माना। फिर ऐसा क्या बदला, जो उन्होंने इसे छोड़ दिया? नीचे उन प्रमुख कारणों को विस्तार से बताया गया है।
1. द्वितीय विश्व युद्ध और उसके प्रभाव
ब्रिटेन की संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था और द्वितीय विश्व युद्ध का क्षय।
(1.1) द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था बेहद संकटग्रस्त स्थिति में थी। वह पूरी तरह से कर्ज के बोझ तले डूबा हुआ था और उसके उपनिवेशों का रख-रखाव ब्रिटेन के राजकोष पर बड़ा भारी दबाव डाल रहा था। ब्रिटेन ने भारत पर कब्जा सिर्फ लूटने के लिए किया था, न कि इसमें निवेश करने के लिए या फिर इसे बनाए रखने के लिए। उपनिवेश की निरंतरता को बनाए रखने के लिए धन का बहाव भारत से ब्रिटेन की ओर होना चाहिए था, न कि इसके विपरीत, जो होना प्रारंभ हो गया था।
“साम्राज्य अब जरा भी फायदा नहीं दे रहा था और यहाँ तक कि अपनी जरूरतें तक पूरी नहीं कर पा रहा था। इसका नतीजा वह हुआ, जिसे इतिहासकार कोरेली बानेर्ट ने ‘इतिहास में रणनीतिक अति-विस्तार के सबसे उत्कृष्ट उदाहरणों में से एक’ कहा है।” (पी.एफ./197)
प्रसिद्ध ब्रिटिश अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कीन्स, जो ब्रिटेन के आर्थिक सलाहकार भी रहे, ने सन् 1945 में युद्ध मंत्रिमंडल के सामने एक वित्तीय विश्लेषण प्रस्तुत किया, जिसमें प्रदर्शित किया गया था कि पिछले दो वर्षों के दौरान प्रत्येक वर्ष में ब्रिटिश साम्राज्य को चलाने में 100 करोड़ पाउंड का खर्चा आया है, जो युद्ध के बाद बढ़कर 140 करोड़ पाउंड प्रतिवर्ष तक पहुँच गया है; और यह भी कि बिना अमेरिकी वित्तीय सहायता के ब्रिटेन पूरी तरह से दिवालिया हो जाएगा! (टिम)
ब्रिटिश राजकोष को कर्ज-अदायगी को पूरी तरह से रोक देना पड़ा। ब्रिटेन पर युद्ध ऋण के रूप में सबसे बड़ी राशि भारत की ही बकाया थी—125 करोड़ पाउंड! (ची/3) (वायर 1)
उपर्युक्त के बिल्कुल उलट, भारत को लूटने के जरिए प्राप्त होनेवाली संपत्ति ब्रिटिश राज की स्थापना और उसके लंबे समय तक बने रहने के कारण थी—
“ ‘एक सदी से भी कम समय में दो बार ब्रिटिशों ने भारतीय धन के सहारे भारत को जीत लिया था।’ पहले, भारत ने कंपनी की सेनाओं (ईस्ट इंडिया) के लिए भुगतान किया, अभियान- दर-अभियान दिल्ली पहुँची और फिर देश पर विद्रोह को दबाने की कीमत का बोझ डाला गया, जिसकी कीमत करीब 40 करोड़ रुपए आँकी गई (उस समय का मूल्य)। (जिसका मतलब है—भारत को जीतने के लिए और फिर विद्रोह के बाद ब्रिटिश राज को दोबारा स्थापित करने तथा बनाए रखने के लिए भारत और भारतीयों पर टैक्स का बोझ डालने, उन्हें लूटने और उनसे पैसा उगाहने के जरिए।) इसके अलावा, भारतीय संपदा का लंदन की ओर निरंतर प्रवाह भी जारी था। वर्ष 1850 तक कंपनी प्रतिवर्ष 3,00,00,000 पाउंड कमा रही थी और 11.66% वापस इंग्लैंड भेज रही थी। ताज के शासन के तहत (विद्रोह के बाद सन् 1858 से) यह बदतर हो गया। वर्ष 1876- 77 तक 5,60,00,000 पाउंड के कुल वार्षिक राजस्व में से 1,35,00,000 पाउंड या 24 प्रतिशत ही लंदन जा रहा था। इसके अलावा, गाँवों में बढ़ती गरीबी ने सदी के अंत तक एक असाधारण आकार प्राप्त कर लिया।” (अकब./159-60)
(1.2) ब्रिटिश द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अपने उपनिवेशों को सँभाले रहने को लेकर सैन्य, प्राशासनिक, आर्थिक और इन सबसे ऊपर, मानसिक रूप से बेहद थक चुके थे।
2. क्षेत्रीय उपनिवेशन व्यवहार्य उपक्रम नहीं रहा
(2.1) द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक क्षेत्रीय उपनिवेशन एक व्यवहार्य उपक्रम के रूप में अपनी उपयोगिता से हाथ धो बैठा था और उपनिवेशों का स्वतंत्र होना प्रारंभ हो चुका था। वास्तव में, जिस समय भारत को स्वतंत्रता मिली, उसी समय के लगभग कई अन्य उपनिवेशों (जैसे—श्रीलंका, बर्मा—म्याँमार आदि) को भी अपनी आजादी हासिल हुई; हालाँकि इन उपनिवेशों में स्वतंत्रता आंदोलन इतना तीव्र नहीं था, जिसके चलते उपनिवेशवादियों को वहाँ से निकलने को मजबूर होना पड़ता। सन् 1947 के दौरान ही ब्रिटेन ने संयुक्त राष्ट्र के जरिए ऐसी योजनाओं को आगे बढ़ाया, जिनके चलते वह फिलिस्तीन छोड़ने में सक्षम हो सके और आखिरकार 14 मई, 1948 को इजराइल का निर्माण हुआ।
(2.2) सन् 1945 के बाद उपनिवेशों के स्वतंत्र होने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। ब्रिटेन के अलावा फ्रांस, नीदरलैंड इत्यादि जैसी यूरोपीय उपनिवेशवादी शक्तियाँ भी पीछे हटने लगीं। जैसाकि ऊपर ब्रिटेन के बारे में बताया जा चुका है, यूरोप की बाकी उपनिवेशवादी ताकतें भी युद्ध के कर्ज में डूबी हुई थीं और वे अपने उपनिवेशों का प्रबंधन करने में सक्षम नहीं थीं। इसके अलावा, अमेरिका और सोवियत संघ ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद औपनिवेशिक प्रणाली का विरोध किया और इन दोनों के बीच उपनिवेशवाद से आजाद हुए देशों को अपने प्रभाव में लेने के लिए लड़ाई जारी रही।
(2.3) वायसराय लॉर्ड ववे ले ने 8 जुलाई, 1946 को ही सम्राट् किगं जॉर्जषष्ठम से कह दिया था, “हम भारत को जल्द-से-जल्द उसकी आजादी देने के अपने वादे को पूरा करने के लिए बाध्य हैं—और हमारे पास अब न तो इतनी शक्ति बची है और न ही, मेरा मानना है कि, हमारे पास इतनी इच्छा-शक्ति है कि हम भारत को एक बेहद सीमित अवधि से अधिक समय तक अपने नियंत्रण में रख सकें। हम वास्तव में पीछे हट रहे हैं और वह भी बेहद कठिन परिस्थितियों में।” (पानी2/वी)
3. नेताजी सुभाष बोस, आई.एन.ए. और सेना के विद्रोह
(3.1) नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनकी आई.एन.ए. के सैन्य हमलों ने ब्रिटिश और भारतीय सेना को पूरी तरह से हिलाकर रख दिया।
(3.2) सन् 1942 में सिंगापुर के पतन के बाद वायसराय यह जानकर स्तब्ध रह गए कि हजारों की संख्या में ब्रिटिश-भारतीय सैनिक आई.एन.ए. में शामिल (दुश्मन देश जापान के समर्थन के लिए) हो रहे हैं। इसका मतलब यह था कि ब्रिटिश-भारतीय सेना में शामिल भारतीय सैनिकों पर जरा भी भरोसा नहीं किया जा सकता था। इससे भी अधिक यह था कि भारत की आम जनता के बीच नेताजी सुभाष बोस और उनकी आई.एन.ए. के प्रति भारी समर्थन था।
मौलाना आजाद अपनी आत्मकथा में लिखते हैं—
“जापान के आत्मसमर्पण के बाद ब्रिटिशाें ने एक बार फिर बर्मा पर अपना कब्जा कर लिया और आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) के कई अधिकारियों को बंदी बना लिया गया। उन्हें आजाद हिंद फौज में शामिल होने पर कोई पछतावा नहीं था और उनमें से कुछ तो अब देशद्रोह के मुकदमों का सामना भी कर रहे थे। इन तमाम घटनाक्रमों ने अंग्रेजों को यह मानने पर विवश कर दिया कि वे अब सशस्त्र बलों पर विश्वास नहीं कर सकते।” (आजाद/142)
(3.3) वर्ष 1945-46 के आई.एन.ए. के लाल किला मुकदमों ने जनता की राय को अंग्रेजों के खिलाफ इतने बड़े पैमाने पर भड़का दिया कि नेहरू जैसे कांग्रेस नेताओं (जो तब तक और उसके बाद तक भी नेताजी एवं आई.एन.ए. का विरोध करते थे) को भी सन् 1946 के आम चुनावों में जनता के मत पाने के लिए आई.एन.ए. के विचाराधीन कैदियों के प्रति सार्वजनिक रूप से अपना समर्थन प्रकट करना पड़ा।
(3.4) सन् 1946 का भारतीय नौसेना का विद्रोह और 1946 का जबलपुर सेना के विद्रोह, दोनों को ही भड़काने में काफी हद तक आई.एन.ए. के विचाराधीनों का हाथ था, ने अंग्रेजों को इस बात के लिए आश्वस्त किया कि अब वे भारतीयों को दबाने और उन पर शासन करना जारी रखने के लिए भारतीय सेना का इस्तेमाल नहीं कर सकते।
(3.5) भारतीय उपनिवेश के संदर्भ में सर स्टैफोर्ड क्रिप्स ने 5 मार्च, 1947 को ब्रिटिश संसद् में कहा था कि ब्रिटेन के पास केवल दो विकल्प मौजूद हैं—(1) सत्ता भारतीयों को हस्तांतरित करें या (2) भारत में अपना दबदबा बनाए रखने के लिए ब्रिटिश सैनिकों को पर्याप्त रूप से सुदृढ़ करें। उन्होंने दूसरे विकल्प को पूरी तरह से असंभव बताया! (गिल/24)
(3.6) नरेंद्र सिंह सरीला ने कहा, “दक्षिण-पूर्व एशिया में बोस फले-फूले और...उन्होंने भारत में ब्रिटिश सैन्य प्रतिष्ठानों को हतोत्साहित करने में बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालाँकि यह कहना काफी मुश्किल है कि वर्ष 1945-46 की अवधि के दौरान गांधीजी और बोस में से (यहाँ तक कि बोस की मृत्यु के बाद भी) भारत में ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने में किसकी भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण रही।” (सार/125)
(3.7) एम.के.के. नायर ने लिखा—“कांग्रेस द्वारा विरोध के सुर तेज किए जाने से पहले ही ब्रिटेन ने एकतरफा स्वतंत्रता प्रदान कर दी तो उसकी वजह थी नेताजी की महानता। कभी अंग्रेजों के खिलाफ एक भी शब्द न निकालनेवाले सेना के जवान यह घोषणा करने के लिए एकजुट हो गए थे कि आई.एन.ए. के सैनिक देशभक्त हैं। नौसैनिकों ने बेहद निडरता के साथ ब्रिटिश जहाजों और प्रतिष्ठानों पर बंदूकें उठाईं और गोलीबारी की। ये वही सैनिक थे, जिन्होंने सैकड़ों वर्षों तक गुलामों की तरह हर हुक्म की तामील की थी, यहाँ तक कि बिना किसी हिचकिचाहट के बदनाम जलियाँवाला बाग के नर-संहार के दौरान भी। वे अब अपनी राय को सामने रखने के लिए एकजुट हो गए थे और नौसैनिकों ने विरोध का झंडा उठाने की अपनी तत्परता को दिखा दिया था। एटली और अन्यों को शायद इस बात का अंदाजा हो गया था कि भारतीयों का शिकार करने के लिए अब भारतीय सैनिक उपलब्ध नहीं होंगे। हो सकता है कि इस बात ने उन्हें सम्मान और स्वाभिमान के साथ चले जाने को प्रेरित किया हो।” (एम.के.एन.)
(3.8) डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने कहा, “...आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) जो सुभाष चंद्र बोस द्वारा तैयार की गई थी। ब्रिटिश इस देश पर बेहद बेफिक्री से यह मानते हुए शासन कर रहे थे कि देश में चाहे जो कुछ भी हो जाए या फिर राजनेता चाहे जो कुछ भी कर लें, वे कभी भी सैनिकों की वफादारी को बदल पाने में कामयाब नहीं होंगे। यह एक ऐसा औजार था, जिसके बूते वे शासन करते आ रहे थे और इसे पूरी तरह से चकनाचूर कर दिया गया (सुभाष और आई.एन.ए. द्वारा)। उन्होंने पाया कि सैनिकों को एक पक्ष बनाने के लिए—ब्रिटिशों को उड़ाने के लिए एक बटालियन बनने को बहकाया भी जा सकता है। मुझे ऐसा लगता है कि ब्रिटिश इस नतीजे पर पहुँच चुके थे कि अगर उन्हें भारत पर शासन करना जारी रखना है तो ऐसा सिर्फ एक ही आधार पर किया जा सकता है और वह है ब्रिटिश सेना के जरिए।” (आंबे.)
(3.9) ब्रिटिश इतिहासकार माइकल एडवर्ड्स ने लिखा—“भारत सरकार पर धीरे-धीरे यह बात स्पष्ट हो गई कि भारतीय सेना, जो ब्रिटिश शासन की रीढ़ थी, अब जरा भी भरोसेमंद नहीं रह गई है। सुभाष बोस का भूत बिल्कुल हेमलेट के पिता की तरह लाल किले की प्राचीर (जहाँ आई.एन.ए. के सैनिकों पर मुकदमा चल रहा था) पर पहुँच गया और उनके अचानक से बढ़े हुए कद ने उस सम्मेलन को ढँक दिया, जो आजादी का नेतृत्व करनेवाला था।” (एम.ई./93)
(3.10) कलकत्ता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी.बी. चक्रवर्ती, जिन्होंने स्वतंत्रता के बाद भारत में पश्चिम बंगाल के कार्यवाहक राज्यपाल के रूप में भी कार्य किया था, ने डॉ. आर.सी. मजूमदार की पुस्तक ‘ए हिस्टरी अॉफ बंगाल’ (आई.टी.1) के प्रकाशक को संबोधित अपने पत्र में लिखा था—
“आपने डॉ. मजूमदार को बंगाल के इस इतिहास को लिखने के लिए राजी करके और इसे प्रकाशित करके एक महान् कार्यकिया है। डॉ. मजूमदार ने पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है कि वे इस मान्यता को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि भारत की स्वतंत्रता के पीछे सिर्फ या प्रमुख रूप से गांधी के अहिंसक सविनय अवज्ञा आंदोलन का ही हाथ था। जब मैं कार्यवाहक गवर्नर के रूप में कार्यरत था, तब भारत से ब्रिटिश शासन को हटाकर हमें स्वतंत्रता प्रदान करनेवाले लॉर्ड क्लेमेंट एटली ने भारत के अपने दौरे के दौरान कलकत्ता स्थित गवर्नर पैलेस में दो दिन बिताए। उस समय मुझे उनसे उन वास्तविक कारणों के बारे में लंबी चर्चा करने का अवसर प्राप्त हुआ, जिन्होंने ब्रिटिशों को भारत छोड़ने पर मजबूर किया। मेरा उनसे बिल्कुल स्पष्ट सवाल था कि जब गांधी का ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन कुछ समय पहले ही खत्म-सा हो गया था और सन् 1947 में कोई ऐसी नई प्रभावशाली परिस्थिति सामने नहीं आई थी, जिसके चलते अंग्रेजों को जल्दबाजी में यहाँ से निकलना पड़े, तो फिर वे जा क्यों रहे हैं?
“एटली ने अपने जवाब में कई कारणों का हवाला दिया और उनमें से सबसे प्रमुख था—नेताजी (सुभाष बोस) की सैन्य गतिविधियों के परिणामस्वरूप भारतीय सेना और नौसेना के कर्मियों के बीच ब्रिटिश राज के प्रति वफादारी का क्षरण। मैंने उस चर्चा के अंत में एटली से पूछा कि ब्रिटिशों के भारत छोड़ने के फैसले में गांधी का प्रभाव किस हद तक एक वजह था? इस सवाल को सुनते ही एटली के होंठ व्यंग्यात्मक मुसकान में घूम गए और उन्होंने बहुत धीरे से एक शब्द कहा, ‘न-के-ब-रा-ब-र!’” (ग्ला/159) (स्टेट1)
मुख्य न्यायाधीश ने यह भी लिखा—
“संशोधनवादी इतिहासकारों से इतर यह खुद लॉर्ड क्लेमेंट एटली के अतिरिक्त कोई और नहीं था कि भारत को स्वतंत्रता प्रदान करने के जिम्मेदार सिर्फ ब्रिटिश प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने कुछ इतिहासकारों द्वारा फैलाए गए इस दुष्प्रचार के मुँह पर करारा तमाचा जड़ा कि गांधी और उनके आंदोलन के चलते ही देश को आजादी प्राप्त हुई।”
(3.11) इस प्रकार, ब्रिटिशों ने मूल रूप से भारत छोड़ने का फैसला इसलिए किया, क्योंकि वे बहुत तेजी से ऊपर विस्तार से बताए गए कारकों पर अपना नियंत्रण खो रहे थे और उनके पास वित्तीय संसाधनों, सैन्य दबदबे (बोस, आई.एन.ए., विद्रोह और उनके परिणामस्वरूप तैयार हुए ब्रिटिश-विरोधी माहौल) की कमी थी और उस सबके ऊपर उस नियंत्रण को दोबारा पाने की इच्छा-शक्ति की।
4. अमेरिका का दबाव
मार्च-अप्रैल 1942 का क्रिप्स मिशन, जो भारत की स्वतंत्रता की दिशा में पहला कदम था, अमेरिका के दबाव में था। अमेरिका को लगता था कि भारत को जापान से सुरक्षित करने और द्वितीय विश्व युद्ध में उसके समर्थन को पाने का सबसे अच्छा तरीका है—उसे स्वतंत्रता प्रदान करना।
अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने भारत के मसले पर ब्रिटेन पर लगातार दबाव बनाए रखा और भारत की आजादी की पैरवी के लिए कर्नल लुइस जॉनसन को विशेष रूप से अपने व्यक्तिगत प्रतिनिधि के रूप में भारत में नियुक्त किया था। (सार/104)
राष्ट्रवादियों (भारतीयों) के प्रति अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट की सहानुभूति से क्षुब्ध विस्टन चर्चिल ने कांग्रेस को सिर्फ ‘न लड़नेवाले हिंदू तत्त्वों के बुद्धिजीवी वर्ग’ के रूप में खारिज कर दिया, जो न तो भारत की रक्षा कर सकते हैं और न ही विद्रोह कर सकते हैं। (एम.एम./218)
अमेरिका ने दबाव बनाए रखा। वह चाहता था कि ब्रिटेन जल्द-से-जल्द भारत से जुड़ा मामला सुलझाए, ताकि भारत द्वितीय विश्व युद्ध में पूरे दिल से उसका समर्थन कर सके। हालाँकि अप्रैल 1945 तक यूरोप में युद्ध लगभग समाप्त हो चुका था (हिटलर ने 30 अप्रैल को आत्महत्या कर ली थी), लेकिन एशिया में युद्ध जारी था—एक बड़े क्षेत्र पर अभी भी जापान का कब्जा था। जापान ने आखिरकार 6 एवं 9 अगस्त को क्रमशः हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद 14 अगस्त, 1945 को समर्पण किया। भारतीय स्वशासन के लिए वायसराय लॉर्ड वेवेल द्वारा 25 जून, 1945 को बुलाया गया ‘शिमला सम्मेलन’ भी अमेरिकी दबाव में आयोजित किया गया था, ताकि अमेरिका को बर्मा, सिंगापुर और इंडोनेशिया के अपने उपनिवेशों से जापान को निकाल फेंकने के लिए भारतीय समर्थन मिल सके।
परमाणु बम गिराए जाने के बाद जापान के समर्पण ने अमेरिकी सेना के दबदबे को बेहद नाटकीय तरीके से बढ़ा दिया। इसके बाद अमेरिका ने जोर देकर कहा कि ‘अटलांटिक चार्टर’ को एशिया में यूरोपीय उपनिवेशों के लिए भी लागू किया जाएगा (आखिरकार, यह अमेरिकी पूँजीपतियों के लिए बाजारों को हथियाने का एक सवाल था) और उन सबको आजाद किया जाए। युद्ध के परिणामस्वरूप ब्रिटेन लगभग दिवालिया हो गया था और काफी हद तक अमेरिकी सहायता पर निर्भर था। इसके चलते वह अमेरिकी दबाव को नजरअंदाज करने की स्थिति में नहीं था। क्लेमेंट एटली ने खुद अपनी आत्मकथा में इस बात को स्वीकार किया है कि ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ अमेरिका के निरंतर दबाव को देखते हुए ब्रिटेन के लिए भारतीय उपनिवेश पर अधिक समय तक बने रहना बेहद कठिन था।
मारिया मिश्रा लिखती हैं—
“...संकटग्रस्त ब्रिटिश अर्थव्यवस्था और, हो सकता है, विशेषकर स्वतंत्रता प्रदान करने का अमेरिकी दबाव सिर्फ नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था। जैसाकि (वायसराय) वेवेल ने अपनी डायरी में लिखा है, एक तरफ जहाँ चर्चिल, बेविन और उनकी मंडली ‘हमारे भारत छोड़कर जाने के विचार से भी घृणा करते हैं; लेकिन (उनके पास) सुझाने के लिए कोई विकल्प भी नहीं है।’” (एम.एम./32)
पेट्रिक फ्रेंच लिखते हैं—
“(1946 तक) सैन्य विघटन (सशस्त्र बलों के) का काम लगभग पूरा हो चुका था और हाउस अॉफ कॉमन्स के दोनों पक्षों में से किसी ने भी इस प्रक्रिया को रोकने या फिर भारत को आवश्यक पाँच डिवीजनों के साथ सुदृढ़ करने की जरा भी राजनीतिक इच्छा- शक्ति प्रदर्शित नहीं की। वास्तव में, बिना अमेरिकी वित्त-पोषण के ऐसा करना संभव ही नहीं था, जो इसके बाद भविष्य में मिलनी नहीं थी।” (पी.एफ./289)
मौलाना आजाद ने लिखा—
“मैं पहले ही उस दबाव का हवाला दे चुका हूँ, जो अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट भारतीय मसले के निबटारे के लिए ब्रिटिश सरकार पर डाल रहे थे। पर्ल हार्बर के बाद अमेरिकी जनता की राय और अधिक हठी हो गई और इस बात की माँग उठाई गई कि युद्ध के प्रयास में भारत के स्वैच्छिक सहयोग को (उसे स्वतंत्रता प्रदान कर) सुरक्षित किया जाना चाहिए।” (आजाद/47)
भारत के लिए स्वतंत्रता प्राप्त करने में अमेरिकी मदद और दबाव की सच्चाई को भारत द्वारा पर्याप्त रूप से स्वीकार नहीं किया गया है।
अमेरिका के अलावा चीनी जनरल सिमो चियांग काई-शेक, जो द्वितीय विश्व युद्ध में मित्र सेनाओं का हिस्सा थे, ने भी लगातार ब्रिटिश सरकार पर भारत की स्वतंत्रता को मान्यता देने के लिए दबाव बनाए रखा, ताकि वह जो भी सहायता प्रदान कर सकता है, वह प्रदान कर सके। (आजाद/41)
‘द शिकागो ट्रिब्यून’ ने विस्टन चर्चिल को दी गई विदाई श्रद्धांजलि में इस बात का उल्लेख किया—“हमें (अमेरिका को) उसके दमनकारी साम्राज्य को बनाए रखने में (या बनाए रखने की अनुमति देने में) जरा भी दिलचस्पी नहीं है।” (पी.सी./366)
5. अंग्रेजों ने भारत से आजादी माँगी?
यह बात थोड़ी व्यंग्यात्मक प्रतीत हो सकती है, लेकिन वर्ष 1946-47 आते-आते वह वास्तव में ब्रिटेन ही था, जो भारत से आजादी लेना चाहता था!
जैसेकि पेट्रिक फ्रेंच सामने रखते हैं—
“एटली की सरकार द्वारा उन्हें (माउंटबेटन को) दी गई जिम्मेदारी राजशाही की वापसी को आसान बनाने की थी, इसके अलावा और कुछ भी नहीं। उनका प्रमुख कार्य परेशान, युद्ध से टूटे हुए, छोटे से गरीब द्वीप ब्रिटेन को उसके उस भारतीय उपनिवेश से आजादी देना था, जो उसके लिए एक मूल्यवान् संपत्ति से एक बड़े बोझ में बदल चुका था।” (पी.एफ./289)
6. गांधी और कांग्रेस?
ब्रिटिशों के भारत छोड़ने के पीछे गांधी और कांग्रेस मामूली एवं गैर-निर्णायक कारणों में से एक थे। इस पहलू को ऊपर ‘क्या आजादी गांधी-नेहरू और कांग्रेस के प्रयासों का नतीजा थी? नहीं’, के तहत आ चुका है। आखिर, गांधी और नेहरू ने कैसे स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया और हमें किस प्रकार की स्वतंत्रता प्राप्त हुई, वह नेहरू के निम्नलिखित पत्र (टी.डब्ल्यू.4) से पूरी तरह स्पष्ट है—

और नेहरू भारतीय नियुक्तियों को करने के लिए आजादी के बाद से लेकर 26 जनवरी, 1950 को डोमिनियन स्टेटस के खात्मे तक भी ब्रिटिश राजा से स्वीकृति लेते रहे, जैसाकि उपर्युक्त पत्र से बिल्कुल स्पष्ट है।
फिर भी, पता नहीं क्यों और अकारण ही भारत के स्वतंत्रता दिवस की प्रत्येक वर्ष गाँठ पर सारा ध्यान सिर्फ गांधी, नेहरू और कांग्रेस पर ही रहता है!