Nehru Files - 5 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-5

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नेहरू फाइल्स - भूल-5

भूल-5 
असम की सुरक्षा से समझौता 

सन् 1826 में असम पर कब्जा कर लेने के बाद ब्रिटिश अधिक आबादी वाले पूर्वी बंगाल से कृषक समुदाय को चाय की खेती और अन्य कामों के लिए वहाँ पर लाए। मुसलिम लीग ने प्रमुख रूप से गैर-मुसलमान आबादी वाले असम और पूर्वोत्तर पर हावी होने के क्रम में तथा इसे एक और मुसलमान बाहुल्य क्षेत्र बनाने के लिए सन् 1906 में ही ढाका में आयोजित हुए अपने सम्मेलन में असम में किसी भी तरह से मुसलमानों की आबादी को बढ़ाने की योजना तैयार की थी और पूर्वी बंगाल के मुसलमानों का असम में पलायन कर बस जाने का आह्व‍ान किया था। वर्ष 1931 की जनगणना में भी बड़े पैमाने पर प्रवास की वास्तविकता को प्रदर्शित किया गया था। कांग्रेस के नेताओं—बाेरदोलोई, मेधी और अन्य लोगों ने प्रवास के इस गंभीर मुद्दे को उठाया; लेकिन उन्हें केंद्र में स्थित कांग्रेस के नेतृत्व से उचित समर्थन नहीं प्राप्त हुआ। 

1930 के दशक में और उसके बाद, जब पूर्वी बंगाल (अब बँगलादेश) के मुसलमानों ने आजीविका की तलाश में असम में ब्रह्म‍पुत्र नदी की ओर पलायन प्रारंभ किया, तब कुछ समझदार वर्गों की ओर से दी गई चेतावनियों को दरकिनार करते हुए छद्म धर्मनिरपेक्ष, अनुभवहीन नेहरू ने एक बेहद गैर-जिम्मेदाराना बयान दिया, “प्रकृति खाली स्थान से घृणा करती है, जिसका मतलब है कि जहाँ पर खुला स्थान है, वहाँ लोगों को बसने से कैसे रोका जा सकता है!” सावरकर ने अपने अद्वितीय पूर्वानुमान के साथ जवाब दिया, “प्रकृति तो जहरीली गैस से भी घृणा करती है। असम में इतनी बड़ी संख्या में मुसलमानों के प्रवास (migration) ने न केवल स्थानीय संस्कृति को खतरे में डाल दिया है, बल्कि यह उत्तर-पूर्वी सीमा पर भारत के लिए एक राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी बड़ी समस्या भी साबित हो सकती है।” 

सन् 1938 में असम में मुसलिम लीग के नेतृत्व वाली सरकार के गिर जाने के बाद नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने सरकार बनाने के कांग्रेस के दावे का समर्थन किया। कांग्रेस के कई नेता इस विचार के विरोध में थे, विशेषकर मौलाना आजाद। सरदार पटेल ने पूरी तरह से सुभाषचंद्र बोस का समर्थन किया और आखिरकार गोपीनाथ बाेरदोलोई के नेतृत्व वाले कांग्रेसी मंत्रालय ने कार्यभार सँभाला। बाेरदोलोई के कार्यभार सँभालने के साथ ही यह उम्मीद की गई थी कि मुसलमानों के पलायन पर लगाम लगेगी और मुसलिम लीग के खेल को बिगाड़ा जाएगा। हालाँकि नेहरू और उनके वाम समर्थकों के इस नासमझी भरे कदम के चलते प्रांतों में कांग्रेस के मंत्रालयों ने सन् 1939 में इस्तीफा दे दिया (उपर्युक्त भूल#3)। उनके इस कदम ने असम में बाररदोलोई को भी इस्तीफा देने को मजबूर किया; हालाँकि नेताजी सुभाषचंद्र बोस और सरदार पटेल चाहते थे कि बोरदोलोई की सरकार बनी रहे। यह मुसलिम लीग के लिए भगवान् का वरदान कहें या तो अल्लाह की नेमत थी। मुसलिम लीग के ब्रिटिश समर्थक सर सैयद मोहम्मद सादुल्ला, जिनसे बाेरदोलोई ने सत्ता छीनी थी, ने एक बार फिर से सत्ता सँभाली। प्रांतों में सत्ता के समर्पण के नासमझी भरे फैसले (नेहरू और उनकी मंडली के चलते) के कारण कांग्रेस के उपेक्षित होने के चलते और उसके बाद सन् 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में उसके नेतृत्व के जेल चले जाने के कारण सादुल्ला ने अगले सात साल तक बिना किसी रुकावट के राज किया और असम में मुसलमानों के आधार को बेहद मजबूती के साथ तैयार कर दिया। 

सादुल्ला सन् 1941 में एक भूमि व्यवस्थापन नीति लेकर आए, जिसने पूर्वी बंगाल से आप्रवासियों (मुसलमानों) को असम में घुसने और प्रत्येक घर के लिए 30 बीघा जमीन रखने की अनुमति प्रदान की। उन्होंने लियाकत अली खाँ के सामने डींग हाँकी कि उन्होंने अपनी नीतियों के चलते असम घाटी के निचले चार जिलों में मुसलमानों की आबादी को चार गुना करने में कामयाबी हासिल की है। संक्षेप में, असम की जनसांख्यिकीय स्थिति बद-से-बदतर हो गई और इसके लिए नेहरू का गलत निर्णय जिम्मेदार था। 

सन् 1946 में भारतीय स्वतंत्रता की प्रारंभिक ब्रिटिश योजना में असम और बंगाल को एक साथ संयोजित कर ‘समूह-सी’ में रखा गया था। इस प्रकार के समावेश के परिणामस्वरूप असमिया अल्पसंख्यक हो सकते थे, जिन्हें अंततः पूर्वी पाकिस्तान में शामिल किया जा सकता था। इस मनहूस संभावना के मद्देनजर बाेरदोलोई ने ‘समूह-सी’ में जोड़े जाने का विरोध किया, जो उसके विपरीत था, जिसे नेहरू ने सहमति प्रदान की थी। नेहरू पर कोई फर्क न पड़ते देख, बाेरदोलोई ने बड़े पैमाने पर आंदोलन प्रारंभ किया। उन्होंने असम और पूर्वोत्तर क्षेत्र (एन.ई.आर.) के अन्य हिस्सों को पूर्वी पाकिस्तान में शामिल करने के मुसलिम लीग के प्रयासों का विरोध किया। अगर बोरदोलोई ने कांग्रेस पार्टी की असम इकाई के अध्यक्ष की मदद से और महात्मा गांधी तथा असम की जनता के समर्थन से विद्रोह का झंडा बुलंद नहीं किया होता तो कांग्रेस पार्टी ने तो राष्ट्रीय स्तर पर नेहरू के नेतृत्व में मुसलिम लीग को मौन सहमति प्रदान कर ही दी थी।