आरंभ — "वो आखिरी चिट्ठी"
"अगर तुम ये चिट्ठी पढ़ रहे हो, तो समझो मैं अब इस दुनिया में नहीं हूं... और अगर कभी गलती से भी 'कालवन' की ओर जाना पड़े — तो पीछे मुड़कर मत देखना। किसी भी कीमत पर नहीं।"
ये आखिरी पंक्तियाँ थीं उस चिट्ठी की जो सूरज को उसके लापता बड़े भाई अर्जुन के कमरे से मिली थी। चिट्ठी पुरानी थी, लेकिन अक्षर आज भी जैसे ताजे खून से लिखे गए हों। सूरज को याद था — जब अर्जुन गया था, तब उसने कहा था, "मैं 'उस जंगल' की सच्चाई जानकर लौटूंगा..."
लेकिन वो कभी नहीं लौटा।
कालवन, एक ऐसा जंगल, जो नक्शों में नहीं मिलता। गाँव वाले उसे “शापित” कहते हैं। कहा जाता है कि सूरज ढलते ही वहाँ पेड़ों की छाया साँसे लेने लगती है। पत्तों की सरसराहट नहीं, वहां रात में किसी के फुसफुसाने की आवाज़ आती है।
सूरज को यकीन नहीं था, पर भाई की चिट्ठी ने उसे उस जंगल की ओर खींचा।
जैसे ही सूरज जंगल के मुहाने पर पहुँचा, घड़ी ने रात के 12:00 बजाए। हवा में ठंडक नहीं, बल्कि कुछ भारी और भीगा हुआ था — जैसे जंगल सांस ले रहा हो।
जैसे ही उसने पहला कदम भीतर रखा, पीछे से दरख़्तों की जड़ें खुद-ब-खुद हिलने लगीं। पेड़ों की छाल पर चेहरों जैसी आकृतियाँ उभर आईं और जंगल का अंधकार... उसके भीतर उतरने लगा।
जंगल में चलते-चलते सूरज को कुछ अजीब दिखा — एक लाल रंग का झूला, पेड़ की डाल से लटकता हुआ... और उस पर बैठी एक छोटी बच्ची जो बिना हिले-डुले उसे घूर रही थी।
“तुम्हारा नाम क्या है?” सूरज ने कांपती आवाज़ में पूछा।
बच्ची ने जवाब नहीं दिया। बस, मुस्कुराई — और उसकी आंखों से काले आँसू बहने लगे।
अगले ही पल वो गायब हो गई।
और फिर हर दिशा से उसी बच्ची की हँसी गूंजने लगी — पीछे, बाईं ओर, ऊपर पेड़ से, नीचे ज़मीन से।
सूरज को लगा वह पागल हो जाएगा।
जैसे-जैसे वह आगे बढ़ा, उसे एक वीरान झोपड़ी दिखी — छत टपक रही थी, लेकिन अंदर से रौशनी आ रही थी।
अंदर घुसते ही उसे अर्जुन की डायरी मिली — और कुछ पन्नों पर अजीब आकृतियाँ, जैसे किसी ने नाखून से खरोंचकर बनाए हों।
"मैंने उस बच्ची को देखा है। वो अकेली नहीं है। पूरा जंगल उसका गुलाम है।"
"और अब... मैं भी..."
पन्ने यहीं फटे हुए थे।
उसी पल, सूरज के पीछे किसी ने धीरे से फुसफुसाया,
“तुम अब यहाँ से लौट नहीं सकते…”
सूरज ने बाहर निकलने की कोशिश की, लेकिन अब रास्ता वही नहीं था। हर दिशा घनी झाड़ियों और घूमते हुए पेड़ों से घिरी थी — जैसे जंगल खुद को बदल रहा हो।
वो दौड़ता रहा… और अचानक उसने एक दर्पण देखा — एक बड़ा, काला दर्पण जो जंगल के बीच अकेला खड़ा था।
उसने झाँका — और वहाँ अपना चेहरा नहीं, अर्जुन का चेहरा दिखा।
“भाई!” सूरज चिल्लाया।
दर्पण में अर्जुन ने आंखें उठाईं — लेकिन वो इंसान नहीं था। उसकी आंखें काली थीं, चेहरा खाल की तरह खिंचा हुआ, और उसने कहा:
“मैं ही जंगल हूं… और अब तुम भी हो।”
सूरज की चीख गूंज उठी, लेकिन आवाज़ बाहर नहीं निकली। झाड़ियों से अनगिनत हाथ निकले, उसके पैरों को पकड़ लिया, और एक गड्ढे में खींचने लगे।
वो जंगल नहीं था — वो एक पुराना बलिदान-स्थल था, जहाँ हर सौ साल में एक भाई को अपने भाई को चढ़ाना होता था, वरना जंगल गाँव के हर बच्चे को निगल जाता।
और अर्जुन... उसने खुद को बचाने के लिए सूरज को चुना था।
“माफ़ कर, छोटे… यही एक रास्ता था…”
अंत — "अब अगला कौन?"
कहानी यहीं खत्म नहीं हुई।
आज भी जब कोई गाँव वाला रात को झील के पास से गुजरता है, तो वो एक बच्ची को झूले पर हँसते हुए देखता है।
और झूले के नीचे की मिट्टी से कभी-कभी दो हाथ बाहर आते हैं, जैसे कोई वापिस आना चाहता हो।
लेकिन डर कभी लौटकर नहीं आता —
वो वहीं रहता है... इंतजार करता है अगले 'भाई' का।
"क्योंकि असली डर... वहीं शुरू होता है, जब कोई कहानी खत्म होती है।"