Kahaani ya sach - Last part in Hindi Crime Stories by Arvind Meghwal books and stories PDF | कहानी या सच ? - ( अंतिम भाग )

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कहानी या सच ? - ( अंतिम भाग )


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अंतिम अध्याय: अँधेरा… सच्चाई… और परछाई का खेल

बारिश की झमाझम बूँदें कोठी की पुरानी छत पर गिर रही थीं। बिजली कड़क रही थी, और हर बार उसके साथ एक दहकती परछाई सरक कर गायब हो रही थी। इंस्पेक्टर सुखी ने जैसे ही दरवाज़ा खोला, धूल भरी हवा में एक मुस्कुराती तस्वीर ने उसका ध्यान खींचा — प्रीत की। लेकिन मुस्कान में एक सुरागा जैसे भविष्य की खबर झांक रही थी।

सुखी की आँखें तस्वीर के चारों ओर खोजने लगीं: कहीं कोई पंजा, कहीं कोई रक्तस्राव का निशान। तभी ऊपर से फर्श का पट्‌टा अचानक धड़ाम से गिरा। सुखी ने पीछे झाँका — अँधेरे कोने में एक सिल्हूट हल्का-सा हिल गया।

“कौन है तू?” उसने घुसकर आवाज़ दी।

कोठी में हल्की सी गूँज फैल गई। अँधेरे कोने से एक धीमी आवाज़ निकली:

“सच… सच तुम तक जाने दो…”

सुखी ने पलकें झपकाईं — पर डर था कि वह कुछ भी देख न पाए। तभी ऊपर से कोई ड्रिपर टपक पड़ा और उसके हाथ पर पानी की एक बूंद सीधे गिरी — जैसे विज़ार्ड की तरह मख़्य परिवर्तन हो रहा हो।

सुखी भीतर गया — हर कदम के साथ उसका दिल तेज़ हो उठा। दीवारों पर तस्वीरें टेढ़े-मुड़े पेंग चुके थे; खिड़कियों से हवा हल्की-हल्की आ रही थी, धूल के कणों को नाचाकर रात की असलियत दिखाती हुई।

अचानक कोठी के बीचों—बीच एक बड़ा चेहरा झिलमिला कर प्रकट हुआ — प्लास्टिक की फिल्म जिसके पीछे कोई बंद कमरे जैसा था। सुखी ने फिल्म को हटाया — अंदर एक पुरानी डायरी थी, जिस पर खून के छींटे लगे थे और एक नयी तस्वीर चिपकी हुई थी — प्रीत की दूसरी मुस्कुराती तस्वीर, लेकिन तीसरी आँख वाली, जिसमें उसकी हँसी तमाम असलियत को कटघरे में खड़ी कर रही थी।

सुक़ून की जगह सवालों की भीड़ खड़ी हो गई। तभी दरवाज़ा पीछे से ज़ोर से बंद हुआ और बिजली फिर चली गई।

“अब तुम सच देखोगे,” एक तेज लेकिन धीमी आवाज़ गूंज उठी।

उसने आते हुए कदमों की छाप सुनी — पर कोई दिखाई नहीं दे रहा था। फिर अचानक सामने एक कांच की विंडो चकाचौंध में टूट गई; रुखी हवा की लहर में एक काग़ज़ का टुकड़ा उड़कर सुखी की ओर आया।

उस पर लिखा था: “प्रेत नहीं, साक्षात्कार — अंत तो शुरुआत है।”

सुखी ने कागज हाथ में झटका और पढ़ा: “जिसने प्रीत की हत्या की, वही आज उसे जीवित करने आया है। सच जो तुम तलाशी रहे हो, वह तुम्हें और गहरे अँधेरे में खींच रहा है।”

कुछ पल वही सन्नाटा रहा — फिर तेज़ धमाका हुआ, दीवार पर टंगी तस्वीर अचानक नीचे गिर पड़ी। उसके पीछे एक गुप्त द्वार खुल गया।

सुखी निडर होकर उस द्वार से भीतर गया। अंदर एक छोटा कमरा था, जिसमें बीच में प्रीत की अंतिम यादें टंगी हुई थीं — कटी हुई डायरी की पृष्ठियाँ, पुरानी चिट्ठियाँ और एक तस्वीर, जिसमें सुखी खुद खड़ा था, लेकिन सिर्फ रात्रि के अँधेरे में — और पीछे प्रीत के चेहरे की अँधेरी परछाई। “ये तस्वीर… यहाँ… कैसे?” सुखी ने बुदबुदाया।

हीन आवाज़ फिर गूजी: “यह सच… उस वक्त लिखा गया था जब तुम इसे कबूल नहीं कर सकते थे…”

अचानक लड़की का चेहरा प्रकट हुआ — कोठी में महीनों से गायब मानी गई “प्रीत”, अब जीजीवित रूप में सामने खड़ी थी, लेकिन आँसू-धब्बेदार चेहरा, जिसमें रहस्य से भरी अधूरी कहानी झलक रही थी।

“तुमने मुझे मारा… पर सच को नहीं मार सकते…” उसने आहिस्ता से कहा।

सुखी का मन घबरा गया — वह थर्राया लेकिन सम्बोधित हुआ:

“तुम्हारा सच… तुम्हारा दर्द… सब कुछ… कैसे?”

प्रीत ने टेढ़ा मुस्कुराकर कहा:

“जब तुमने सोचा दोषी कोई और था… मैं तब भी जिंदा थी। तुमने उस आदमी को पकड़ा जिसमें सुन साबित हो गया — पर असली हत्यारा हमेशा तुम्हारे बहुत करीब था…”

और जैसे ही वह वाक्य समाप्त हुआ, दीवार पर लगी दूसरी मुस्कुराती तस्वीर अचानक एक प्रकाश झिलमिला कर गायब हो गई। कोठी में सबकुछ सन्नाटा हो गया — न बिजली, न परछाई, न बारिश की बूँदें।

सुखी अँधेरे में खड़ा था, सिर्फ एक चमकती तस्वीर ही रह गई — प्रीत की आख़िरी मुस्कान, जिसमें मोड़ था:

“सच जब उजागर होता है — वह अँधेरे को भी उजाला बना देता है।”

फिर अचानक मोशन सेंसर जैसे प्रभाव से एक कैमरा फ्लैश हुआ — और वह कमरा सामने projector screen की तरह खुल गया। पल भर में पूरा मर्डर केस, सारे क्लूज़, जो सुखी नजरंदाज़ करता आया — सब परोसे गए।

सुखी ने देखा: वो तीसरा पेज, जिस पर कोन आकार का निशान ठंडा था; विपक्षी जो कहलाता था वह खुद 'साहब' था — इंस्पेक्टर का सबसे विश्वसनीय साथी।

उसका विश्वास टूट गया। कुर्सी से गिरते हुए, हाथ हिलकर डायरी उठा ली। उसमें आख़री लाइन लिखी थी:

“सच… बाहरी चीज़ नहीं है… वह भीतर है। तुम जो देखो, वह तुम्हारे सामने की आभा है।”

फिर अचानक सीलन भरे कमरे में एक आख़िरी चीख़ गूँजी — ये चीख़ प्रीत की नहीं, उस "साथी-साहब" की थी, जो अचानक कमरे में घुसा, हाथ में पिस्टल लिए।

“तुम सच नहीं देखोगे… इसलिए मैं सच्चाई सीमित कर दूंगा…”

लेकिन पहले ही क्षण में, एक गुप्त अधिकारी टीम (S.W.A.T.) कोठी में घुसी — कमांडो की दस्तक, बंदूक की आवाज़, और साथी-साहब गिर पड़ा, पिस्टल जमीन पर जमी।

अँधेरे से निकलते हुए सुखी ने प्रीत को देखा — वह अधूरी मुस्कान के साथ फीके प्रकाश में खड़ी थी। आवाज़ में हल्की सी राहत थी:

“अब तुम सुनोगे… सच की कहानी…”

टीम ने संग्रहीत वीडियो और डायरी को कैमरे पर रिकॉर्ड किया। और जैसे ही सब कुछ कैमरे की रोशनी में आया, सुखी ने आख़िरी पन्ना खोला:

“मुसीबत यही नहीं कि सच छुपा था… बल्कि ये था कि सच को बताने वाला तुम पर विश्वास करता था।”

कोठी की दीवार पर लिखी हुई मुट्ठी भर लकीरें एक नए चेहरे की ओर इशारा कर रही थीं — अगली किताब, अगली कहानी…

अंत में, सुखी बाहर निकला — बारिश बंद हो चुकी थी, बिजली फिर से चली आई थी, लेकिन आसमान पर एक अकेला चाँद मुस्करा रहा था। हवा में लिखावट सी गूँज रही थी:

“कहानी या सच?”
– **अगला अध्याय जल्द शुरू होगा…


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इस तरह, इसका अंत सिर्फ एक केस का खुलासा नहीं, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक खेल की शुरुआत को दर्शाता है। पढ़ने वाले को ये अहसास होता है कि सच्चाई कभी पूरी तरह से उजागर नहीं होती—और जो सच कहते हैं, वे भी उसकी परछाई में गुम रह जाते हैं।

आशा है आपको यह क्लाइमेक्स सस्पेंस, धुंधलापन और थ्रिलर स्पिरिट से भरा हुआ लगा।