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(एक भूतिया स्टेशन और मानसिक खेल की कहानी)
“कभी-कभी ट्रेनें मंज़िल तक नहीं ले जातीं… बल्कि तुम्हें वहीं छोड़ देती हैं, जहाँ से डर की कोई वापसी नहीं होती।”
शहर में एक स्टेशन ऐसा होता है, जहाँ कोई नहीं जाता… और अगर कोई गया, तो लौटा नहीं।
“नरका जंक्शन” – एक ऐसा ही वीरान स्टेशन था। एक ऐसा ठिकाना, जो रेलवे के नक्शों पर नहीं था, लेकिन कभी-कभी वहाँ ट्रेनें रुकती थीं… सिर्फ उन लोगों के लिए, जिन्हें छलावे ने बुलाया हो।
तीन दोस्त – नैना, कबीर, और अद्वैत – एक डॉक्यूमेंट्री बना रहे थे "भूतिया जगहों की सच्चाई" पर। इंटरनेट पर उन्हें एक पुरानी खबर मिली –
“नरका जंक्शन: जहाँ रात को रुकी ट्रेन से कोई लौटकर नहीं आया।”
रेलवे विभाग ने इसे 'ट्रैक की गलती' कहकर भुला दिया था। लेकिन कबीर को इसमें कुछ छिपा लगा – "गलती नहीं… कोई बुलाता है!"
उन तीनों ने रात की आखिरी लोकल ट्रेन पकड़ी। ट्रेन सुनसान इलाकों से गुज़र रही थी, अचानक बिना किसी स्टेशन के बीच में रुक गई।
कंडक्टर कहीं नहीं था… लाइटें टिमटिमा रहीं थीं।
बाहर उतरने पर एक पुराना जंग लगा बोर्ड दिखा – "नरका जंक्शन"
कोई आवाज़ नहीं, कोई हरकत नहीं…
सिर्फ दूर से आती एक आवाज़ – "उतरो..."
स्टेशन छोटा था, लेकिन प्लेटफॉर्म खत्म ही नहीं होता था। वे जितना चलते, उतना ही स्टेशन खिंचता जाता।
नैना को अचानक एक ट्रेन दिखाई दी… वो ट्रेन नहीं रुकी, लेकिन खिड़की से एक लड़की झाँक रही थी – बिल्कुल उसकी जैसी दिखती थी… लेकिन उसकी आँखें काली थीं, पूरी।
अद्वैत को प्लेटफॉर्म नंबर 3 पर अपने बचपन का वह पल दिखा, जब वह अपनी माँ को खो बैठा था। माँ प्लेटफॉर्म पर थी… और कह रही थी –
"मुझे लेने आओ…"
स्टेशन हर एक को उसके गहरे डर और अतीत की असफलताओं से जोड़ देता। यह केवल शरीर नहीं… आत्मा को तोड़ता था। हर दरवाज़ा, हर सीढ़ी, हर घड़ी – बस एक नया भ्रम था।
कबीर को वो फोन कॉल सुनाई दी – उसके भाई की मौत वाली रात का।
लेकिन इस बार फोन पर आवाज़ बोली – "इस बार तुझे मरना है..."
उन्हें एक पुरानी घड़ी की दुकान मिली – बंद पड़ी।
अंदर एक किताब थी – जिसमें यात्रियों के नाम थे।
कुछ नामों के आगे लिखा था – "मुक्त", और कुछ के आगे – "छल"
तीनों के नाम उसमें थे… लेकिन 'छल' के कॉलम में।
एक नोट लिखा था –
"छलावा किसी को मारता नहीं, बस उसे उसके डर में बंद कर देता है।"
अब तीनों को समझ आया – ये स्टेशन असल नहीं…
ये एक मानसिक जाल है, जो तभी सक्रिय होता है जब कोई बुलावे को स्वीकार कर लेता है।
छलावा उनसे उनके गुनाह, अफ़सोस और डर का बलिदान माँगता है।
नैना भागना चाहती थी… लेकिन प्लेटफॉर्म घुलकर अंधकार में बदल गया।
अद्वैत ने एक दरवाज़ा खोला… और उसमें कदम रखते ही गायब हो गया।
सुबह एक लोकल ट्रेन फिर से उसी जगह रुकती है।
एक नया यात्री उतरता है… स्टेशन का नाम नहीं लिखा…
सिर्फ एक कर्कश आवाज़ सुनाई देती है:
"स्वागत है... छलावा जंक्शन पर।"
और पटरियों पर एक कटा हुआ कैमरा पड़ा है – जिसमें नैना की आँखें रोशनी में चमकती हैं,
लेकिन होंठ फुसफुसाते हैं –"मैं कभी गई ही नहीं… अब तुम जाओगे।"
अद्वैतके गायब होते ही नैना और कबीर पूरी तरह डर के जाल में फँस चुके थे।
लेकिन नैना अचानक समझ गई –
“यह छलावा हमारे डर को हमारे खिलाफ़ मोड़ रहा है। अगर हम अपने डर को स्वीकार कर लें, तो वो कमजोर हो जाएगा।”
उन्होंने एक प्रयोग करने का निर्णय लिया – हर वह डर जिससे छलावा खेल रहा था, उससे सीधे सामना करना।
कबीर फिर उसी फोन कॉल में फँसा – उसके भाई की मौत… उसका अपराधबोध।
लेकिन इस बार कबीर ने कहा – “हाँ, मैं दोषी हूँ। पर अब मैं भागूंगा नहीं।”
जैसे ही उसने स्वीकार किया, वो दृश्य टूट गया…और एक चमकती हुई रोशनी में वह अपने होश में लौट आया।
छलावा की पहली चाल टूट गई थी।
नैना फिर से उस ट्रेन को देखती है जिसमें काली आँखों वाली लड़की झाँक रही थी।
वो जानती थी – ये उसका ही एक मानसिक रूप है, उसका आत्म-संदेह।
वह ट्रेन के सामने खड़ी हो जाती है और चिल्लाती है:
“मैं अपने जैसे डरावनी नहीं हूँ। मैं खुद को स्वीकार करती हूँ!”
लड़की धीरे-धीरे मुस्कराती है… और फिर धुएँ में गायब हो जाती है।
नैना और कबीर अब स्टेशन के केंद्र में पहुँचे, जहाँ एक टूटी रेल की बोगी थी।
उसमें बैठे थे – अद्वैत, लेकिन उसकी आँखें अब भी काली थीं।
"मैं वापस आ गया..."
उसकी आवाज़ अब इंसान की नहीं, किसी दूसरी दुनिया की लग रही थी।
छलावा ने उसे पूरी तरह निगल लिया था। अब वो छलावा का प्रतिनिधि बन चुका था।
स्टेशन अब बदल गया – दीवारों पर चेहरे उभरने लगे, हर चेहरा कोई न कोई यात्री था जो कभी लौट नहीं पाया।
छलावा ने चुनौती दी: “बचना है? तो बताओ… तुम तीनों में सबसे बड़ा गुनाह किसका है? झूठ बोलोगे, तो सभी मरोगे।”
कबीर और नैना एक-दूसरे को देखने लगे।
कहना मुश्किल था – पर नैना ने कहा – “हम सब दोषी हैं… लेकिन दोष तय करने वाला तू नहीं है।”
छलावा एक पल को थमा… चारों ओर घुप्प अंधेरा…फिर अचानक – सब कुछ सफेद हो गया।
तीनों एक स्टेशन के बेंच पर बैठे हुए होश में आए।
दिन निकल आया था, ट्रेनें चल रही थीं, लोग आ-जा रहे थे।
"क्या हम वाकई बच गए?"
"क्या ये सपना था?"
वे हँसे, एक-दूसरे को गले लगाया और उस कैमरे को देखा जो डॉक्यूमेंट्री रिकॉर्ड कर रहा था।
कबीर ने कहा – “अब हम सच में जी सकते हैं।”
वे ट्रेन में चढ़ गए, सीट पर बैठ गए। लेकिन तभी ट्रेन की दीवारों पर कुछ अजीब दिखा… सभी यात्रियों के चेहरों पर वही काली आँखें थीं।
और टिकट चेकर वही था – अद्वैत।
उसने कहा – "स्वागत है… वापस नरका जंक्शन पर। इस बार... कोई भाग नहीं सकता।"
कहानी वहीं खत्म नहीं हुई…
क्योंकि छलावा अब उनके साथ ट्रेन में था…
उनके भीतर…
उनके डर के हर कोने में।
और अगला स्टेशन किसका होगा… ये तय करने वाला सिर्फ "छल" है।
कबीर (धीरे से):
"क्या तुमने दरवाज़ा खुलते सुना...? लगता है अगला शिकार चढ़ चुका है..."