कहानी का शीर्षक: “सपनों का बंटवारा”
लेखक: विजय शर्मा ऐरी
अजनाला के पास एक बड़ा सा गाँव था — शांतपुर। यहाँ की सबसे बड़ी हवेली थी ‘वीर निवास’। यह हवेली किसी महल से कम नहीं थी, जिसकी दीवारें सफेद संगमरमर की थीं और दरवाजों पर सोने की कारीगरी थी। इस हवेली के मालिक थे सेठ वीरेंद्र सिंह, जिनकी गिनती पंजाब के सबसे अमीर किसानों में होती थी। उनके पास हजारों एकड़ ज़मीन, ट्रैक्टर, डेयरी फार्म और शहर में आलीशान कोठी थी।
वीरेंद्र सिंह के दो बेटे थे — बड़ा बेटा अमर सिंह और छोटा बेटा करन सिंह। दोनों की परवरिश राजा-महाराजाओं की तरह हुई थी। मगर किस्मत के खेल भी अजीब होते हैं। जहां अमर मेहनती, शांत और ईमानदार था, वहीं करन थोड़ा जिद्दी और शौक़ीन किस्म का लड़का था। पिता को उम्मीद थी कि दोनों बेटे मिलकर उनके साम्राज्य को और ऊंचाइयों तक ले जाएंगे, मगर किसे पता था कि दौलत का जादू भाई-भाई के बीच दीवारें खड़ी कर देगा।
पहला मोड़ : पिता की मौत के बाद
सालों की मेहनत के बाद जब वीरेंद्र सिंह का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा तो उन्होंने अपने वकील को बुलाया और अपनी सारी जायदाद का बंटवारा कर दिया। हवेली, ज़मीन, डेयरी और बैंक बैलेंस का विस्तार से उल्लेख था। सब कुछ अमर और करन के नाम बराबर बांटा गया।
पिता की मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार के समय पूरा गाँव इकट्ठा हुआ। दोनों बेटों ने मिलकर सारे संस्कार पूरे किए। मगर जैसे ही तेरहवीं समाप्त हुई, हवेली में एक अजीब सा सन्नाटा छा गया। अमर ने सोचा था कि पिता की आखिरी इच्छा का सम्मान किया जाएगा लेकिन करन के मन में लालच का ज़हर पल रहा था।
एक रात करन अपनी पत्नी सोनाली के साथ बैठक में बैठा था।
“अमर को समझाओ सोनाली, ज़मीन का सबसे बढ़िया हिस्सा मुझे चाहिए। बाजार के पास की ज़मीन सबसे कीमती है। हवेली भी मैं छोड़ने वाला नहीं,” करन ने शराब का पैग बनाते हुए कहा।
सोनाली ने भी आग में घी डालते हुए कहा, “सही कह रहे हो करन जी, बड़ों का हिस्सा हमेशा छोटों को मिलना चाहिए। अमर तो वैसे भी सीधा-सादा है, दो मीठे बोल बोलकर सब हासिल कर लो।”
दूसरा मोड़ : विवाद की शुरुआत
करन ने अगली सुबह ही अमर के सामने प्रस्ताव रखा, “भाई साहब, मैं सोच रहा था हवेली मैं रख लूं, आप शहर वाली कोठी ले लो। और जो बाजार के पास की ज़मीन है वो भी मुझे दे दीजिए, आप खेती के लिए गांव की ज़मीन रख लीजिए।”
अमर को करन की बातें नागवार गुज़रीं। अमर ने शांति से जवाब दिया, “करन, जो पिताजी ने बराबर बांटा है, वही ठीक है। लालच ठीक नहीं होता। हमारा खून एक है, दिल में दीवारें मत बनाओ।”
मगर करन तो पहले से ही वकीलों से संपर्क कर चुका था। उसने अमर को अदालत में घसीटने की धमकी दे डाली। कुछ ही दिनों में ‘वीर निवास’ की दीवारों में कोर्ट-कचहरी की आवाजें गूँजने लगीं। हवेली के नौकर भी दो हिस्सों में बंट गए।
तीसरा मोड़ : गाँव में चर्चा
शांतपुर गाँव की गलियों में अब केवल वीर निवास की ही बातें हो रही थीं। बुजुर्ग चौधरी हरनाम सिंह अड्डे पर बैठे बोले, “ये दौलत ऐसी बीमारी है, जो हड्डियों में जहर घोल देती है। वीरेंद्र सिंह जी अगर जिंदा होते तो ये सब देखकर मर जाते।”
दूसरे बुजुर्ग बोले, “छोटे बेटे को क्या कमी थी, सब कुछ था, मगर देखो लालच कहाँ ले आया।”
शहर के वकीलों की गाड़ियों का आना-जाना तेज हो गया। करन अपने वकील के साथ अदालत में अमर के खिलाफ मुकदमा दायर कर चुका था कि उसे ज्यादा हिस्सा मिलना चाहिए क्योंकि उसने पिता की सेवा की थी।
अमर ने भी मजबूरी में वकील किया। मगर उसका मन टूट रहा था। वह अपने पिता के आशीर्वाद को अदालत की चौखट पर बिकते हुए देख रहा था।
चौथा मोड़ : माँ का हस्तक्षेप
मां सरला देवी, जो अब तक खामोश थीं, एक दिन अपने बेटों के सामने आकर बोलीं —
“मुझे अपने दोनों बेटों से कुछ नहीं चाहिए। पर मैं देख नहीं सकती कि जिस घर को तुम्हारे पिता ने अपने खून-पसीने से बनाया, वो अदालत के चक्करों में बर्बाद हो जाए।”
अमर की आंखें भर आईं, मगर करन ने कहा, “माँ, पिताजी ने कभी मुझे सबसे कम समझा, अब मैं अपने हक के लिए लड़ूंगा।”
माँ गुस्से से बोलीं, “हक दौलत का नहीं, परिवार का होता है। और याद रखना, जो मां-बाप का सम्मान नहीं करता, वो कभी सुखी नहीं रहता।”
मगर करन की आंखों में अब केवल लालच का धुंधलका था।
पाँचवाँ मोड़ : अदालत का फैसला
महीनों तक अदालत में गवाही चली। दस्तावेजों की पड़ताल हुई। गाँव के लोग गवाह बने। अमर के शांत स्वभाव और करन के लालच के किस्से अदालत के कमरे में गूंजते रहे। आख़िरकार अदालत ने फैसला दिया —
“पिता द्वारा जो संपत्ति का बंटवारा किया गया है, वही न्याय संगत है। करन सिंह का मुकदमा निरस्त किया जाता है।”
करन गुस्से में आग-बबूला हो गया। उसकी आंखों में हवेली छिन जाने की पीड़ा साफ दिख रही थी। अमर ने वहीं अदालत में कहा, “भाई करन, मैं कोर्ट से बाहर सुलह करने को तैयार था। मगर तुमने परिवार को बाजार बना दिया।”
छठा मोड़ : हवेली का सूना कोना
करन ने गुस्से में गाँव छोड़ दिया और शहर में जाकर आलीशान कोठी में बस गया। मगर वहाँ उसका मन नहीं लगा। अमर ने अपनी मां के साथ वीर निवास को संभाल लिया। वह पुराने नौकरों के साथ खेतों में काम करने लगा। जो हिस्सा उसके पास आया, उसे वह संभालता रहा।
साल बीतते गए, अमर के खेत सोना उगलने लगे, उसकी डेयरी पूरे जिले में मशहूर हो गई। वह सादा जीवन जीते हुए हर गरीब की मदद करता रहा।
उधर करन ने शहर में कई व्यापार शुरू किए, लेकिन लालच और गलत फैसलों ने उसे दीवालिया कर दिया। दोस्तों ने पीठ फेर ली, और उसे अकेलापन खाने लगा।
अंतिम मोड़ : पछतावे की आग
एक दिन करन को दिल का दौरा पड़ा। अस्पताल में भर्ती होते ही उसे अहसास हुआ कि बड़े घर और महंगे कपड़े केवल दिखावा हैं। असली सुख तो घर, माँ और परिवार में होता है।
करन अपनी पत्नी सोनाली को बोला, “गलती कर दी मैंने सोनाली, सब कुछ बर्बाद कर दिया। अब वापस चलेंगे अमर भाई के पास।”
सोनाली की आंखें भी भर आईं। कुछ दिनों में वह माँ और भाई से मिलने के लिए वीर निवास लौट आया। माँ ने उसे गले से लगा लिया। अमर ने भी भाई को माफ कर दिया।
करन बोला, “भाई, मेरे पास कुछ नहीं बचा। अगर माफ कर सको तो छोटे भाई को फिर से अपना लो।”
अमर ने करन का हाथ पकड़ा और कहा, “भाई, तेरा हिस्सा कभी गया नहीं था। दौलत तो बंट गई थी लेकिन भाईचारा नहीं। वीर निवास फिर से पूरा होगा।”
अंत में सीख
वीर निवास में फिर से रौनक लौट आई। अमर और करन दोनों ने मिलकर खेतों और व्यापार को संभाला। माँ के आशीर्वाद से परिवार दोबारा एक हो गया। गाँव में मिसाल बन गई यह बात कि —
> “दौलत बंटती है, सपने बंटते हैं, मगर अगर दिल मिल जाएं तो बिखरी दौलत भी इकट्ठा हो जाती है।”
शिक्षा : दौलत की लड़ाई घर को तोड़ देती है। रिश्ते सबसे बड़ी पूंजी हैं। पैसे की चमक थोड़े वक्त के लिए होती है, मगर परिवार का प्यार जीवन भर का साथ होता है।
— समाप्त —
लेखक: विजय शर्मा ऐरी, अजनाला, अमृतसर