"अगर आप सोचते हैं कि लालच सिर्फ एक बुरी आदत है... तो आप कभी तुंबाड नहीं गए... वहाँ लालच एक ज़िंदा दैत्य है – हस्तर – जो अब भी अपनी माँ की कोख में भूखा पड़ा है…"
साल 1918, ब्रिटिश राज का दौर... महाराष्ट्र का सिंधुदुर्ग ज़िला, वहाँ एक कोहरा-घिरी जगह है – तुंबाड।
कहते हैं तुंबाड में वर्षा कभी रुकती नहीं, जैसे आकाश खुद उस ज़मीन पर रोता है… और हर बूँद अपने साथ किसी अदृश्य पाप को धोने की कोशिश करती है।
उस वीराने में एक टूटा हुआ हवेली जैसा किला, जो बाहर से सिर्फ़ खंडहर लगता था... पर अंदर से एक भूखा गर्भ, जो जन्म लेना चाहता था...
पुरानी लोककथा कहती है कि प्राचीन काल में देवी "माता भंडार" ने 16 करोड़ पुत्रों को जन्म दिया – सारे देवताओं के प्रतीक।
पर सबसे बड़ा और शक्तिशाली पुत्र था – हस्तर, जो सोने और अनाज का मालिक था।
परंतु हस्तर ने लालच में आकर अपने ही भाइयों का हिस्सा चुराने की कोशिश की।
देवताओं ने उसे शापित कर दिया:
"हस्तर, तू अब ना कभी पूजा जाएगा, ना कभी जन्मेगा, ना कभी मरेगा... तुझे तेरी माँ के गर्भ में ही क़ैद किया जाएगा… भूखा… प्यासा… और अकेला… जब तक समय है।”
और हस्तर को बंद कर दिया गया, उसी हवेली की गहराई में… जहाँ अब भी वो सोने की सोथियों के ढेर पर बैठा है… बिना साँस लिए… ज़िंदा… जागता हुआ...
विनायक राव, एक गरीब किसान का बेटा था जो तुंबाड की हवेली में पला था।
बचपन में उसने अपनी दादी को देखा – एक जर्जर और विकृत महिला, जो ज़िंदा थी, लेकिन चमड़ी सड़ रही थी, आँखें सफेद, और ज़ुबान पर बस एक ही नाम –
“हस्तर… सोना… गर्भ… भूख…”
जब वह बच्चा था, उसकी माँ ने हवेली छोड़ दी।
पर अब, जवान होकर विनायक वापस लौटा – अपनी मृत दादी का रहस्य और हस्तर का खज़ाना लेने।
पर हवेली अब भी वैसी ही थी –
दीवारों से खून की बूंदें टपकती थीं,
दरवाज़े बिना हवा के अपने आप खुलते,
और तहख़ाने से आती थी बिलखती, फुसफुसाती आवाज़ें…
"सोना... दे मुझे... मैं तुझे छोड़ दूँगा...”
विनायक ने अपनी आँखों से वो देखा… जिसे वो मानना नहीं चाहता था –
अंधेरे में एक आकृति, बिना चेहरा… सिर्फ़ बेतहाशा भूख और पिघलती त्वचा।
वह तहख़ाने में गया, माँ की कोख जैसी गुफा में…
वहाँ हस्तर सोने की लड्डुओं की रक्षा कर रहा था।
नियम था – लालच ना करो, बस एक लड्डू चुराओ और बाहर भागो।
लेकिन विनायक ने सोचा, "अगर एक से काम चलता है, तो दस क्यों नहीं?"
हस्तर जागा… उसकी आँखें जलती थीं… काले अंधेरे से निकली सैकड़ों भुजाएँ उसकी ओर लपकीं…
विनायक बच निकला… पर अब वो इंसान नहीं रहा…
हर रात उसे हस्तर के सपने आते, हर दिन वो सोने के लिए तरसता, और एक दिन, उसकी त्वचा गलने लगी।
उसका बेटा – पांडुरंग – वही गलती करने लगा।
अब हर पीढ़ी हस्तर की ओर जा रही थी…
हवेली अब घर नहीं रही थी – वो हस्तर की कोख थी – एक जीवित गुफा, जो हर बार लालचियों को चबा जाती थी।
विनायक अंत में खुद को जलाने की कोशिश करता है…
पर जैसे ही आग लगती है, उसकी आँखें काली हो जाती हैं, और उसकी आवाज़ बदल जाती है…
"मैं भूख हूँ… मैं हस्तर नहीं… उसका उत्तराधिकारी हूँ…”
अब हवेली टूटी नहीं… वह दोबारा बन रही है…
हर साल, एक नया आगंतुक आता है – लालच में… और हस्तर मुस्कराता है…
"तुंबाड अब खामोश नहीं… वो हर शहर में है… हर इंसान में है…"
"क्योंकि हस्तर बाहर नहीं… अंदर जाग गया है... और भूख अब कभी ख़त्म नहीं होगी।"