Naaglok in Hindi Spiritual Stories by Vedant Kana books and stories PDF | नागलोक

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नागलोक

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"कहते हैं कुछ जगहें ऐसी होती हैं… जहाँ रात की चुप्पी भी चीखती है… और जहाँ साँप सिर उठाकर नहीं, बदला लेने के लिए फुफकारते हैं…"

सन् 1886, उत्तर भारत के दूरस्थ पहाड़ी इलाके में एक गाँव था – नागधाम. चारों तरफ घने जंगल, सुनसान रास्ते, और उस गाँव में जाने वाली इकलौती बैलगाड़ी जो हफ़्ते में सिर्फ़ एक बार आती थी। लोग बताते थे कि इस गाँव के ठीक पीछे, एक गहरी घाटी है... जिसे "Naaglok" कहा जाता है।

नागलोक– एक रहस्यमयी और निषिद्ध घाटी, जहाँ आज तक कोई गया तो लौटा नहीं।

नागधाम मैं एक अध्यापक हुआ करता था – दीवाकर मिश्र. इतिहास और पुरातत्व में रुचि रखने वाला एक शिक्षित युवक, जो दुर्लभ लोककथाओं और पुराने अभिलेखों को खोजा करता था। एक दिन उसे एक चर्मपत्र की किताब मिली, जिस पर एक नागमणि की छवि बनी थी। किताब पर लिखा था:

"Naaglok – जहाँ अमरता की कीमत मौत से ज़्यादा होती है।"

उस किताब ने उसे नागधाम गाँव तक खींच लाया। वह बैलगाड़ी से गाँव पहुँचा, हाथ में बाबा की दी हुई लालटेन और मन में अनेक सवाल...

गाँव वाले उसे देखकर काँप उठे। एक बुज़ुर्ग बोला –

 “तुम अगर जीना चाहते हो, तो नागलोक का नाम भी मत लेना। वो जगह जाग गई है…”

रात में जब पूरा गाँव नींद में डूबा था, दीवाकर ने उस घाटी की ओर कदम बढ़ाए। घने कोहरे और रेंगते साँपों के बीच उसकी लालटेन की लौ कांप रही थी, मानो डर खुद हवा में घुल चुका हो।

घाटी की ओर बढ़ते ही एक अजीब गंध महसूस हुई – जैसे सड़ी हुई चमड़ी और पुराने लोहे की। रास्ते में टूटे हुए साँपों के पत्थर के मूर्तियाँ, बेजान पत्तियाँ, और सांपों की छालों से बना टोटका मिला। एक पेड़ पर लटकी थी एक सूखी लाश, जिसका चेहरा ऐसा था, जैसे उसे डर ने अंदर से खा लिया हो।

दीवाकर एक पुरानी गुफा में पहुँचा। वहाँ एक पत्थर की बड़ी मूर्ति थी – आधा मनुष्य, आधा नाग। तभी उसे किताब के एक पुराने पन्ने की याद आई –

"नागलोक का रक्षक वही है जो शापित है – नाग-तांत्रिक बलिवीर।"

बलिवीर... एक पुराना तांत्रिक जिसने नागमणि को पाने के लिए हजारों नागों की बलि दी थी। पर एक दिन, नागों की रानी नागशिला ने उसे श्राप दिया –

"तेरा शरीर कभी मरेगा नहीं, पर आत्मा हर रात ज़हर में सड़ती रहेगी।”

बलिवीर अब गुफा का रक्षक था... और जैसे ही दीवाकर ने नागमणि छूने की कोशिश की...

चारों तरफ दीवारें बदलने लगीं। मूर्तियाँ आँखें घुमा रही थीं, दीवारें साँप बन रही थीं, आवाज़ें गूंज रही थीं –

“तेरा सच झूठ है… और तेरा झूठ तेरा अंत...”

दीवाकर को लगा कि उसके शरीर में कुछ रेंग रहा है। उसने अपनी त्वचा को खरोंचना शुरू किया – खून बह रहा था, पर उसमें खून नहीं, काले नाग निकल रहे थे।

उसे लगा वो मर चुका है… फिर ज़िंदा हो गया… फिर मर चुका है…

गाँव वालों ने अगले दिन देखा – दीवाकर की बैलगाड़ी लौटी… पर अकेली।

लोगों ने सोचा, वो भी बाकी लोगों की तरह मारा गया। लेकिन 7 दिन बाद, गाँव की हर गली में साँप रेंगने लगे। बच्चे बीमार पड़ने लगे, लोगों की त्वचा नीली पड़ने लगी।

तब किसी ने गाँव के मंदिर में एक लाल पत्र देखा –

“मैं वापस आ चुका हूँ… नागलोक अब बंद नहीं रहेगा… हर गाँव, हर गली अब उसका विस्तार है।”

दीवाकर… या अब जिसे बलिवीर कहते हैं।

 "अगर अगली बार कोई आपको बुलाए नागधाम की ओर… तो समझ जाइए, वो इंसान नहीं रहा…"

"नागलोक अब तुम्हारे सपनों में भी आएगा.."