Zahan ki Giraft - 2 in Hindi Love Stories by Ashutosh Moharana books and stories PDF | ज़हन की गिरफ़्त - भाग 2

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ज़हन की गिरफ़्त - भाग 2

भाग 2: आईने के पीछे की सना
कमरे की दीवारें जैसे हर दिन सिकुड़ती जा रही थीं — या शायद आरव का दिमाग़। कभी जिस कमरे को उसने शांति की जगह समझा था, अब वही चारदीवारी उसे कैद लगती थी। दीवारों पर उग आए फफूंद के धब्बे, पपड़ी-सी उखड़ी पुरानी पेंटिंग, और बल्ब की थकी हुई पीली रोशनी के नीचे फैलते हल्के साये — ये सब अब उसे देखने लगे थे।
हाँ, देखने लगे थे। जैसे हर कोना, हर दाग़ उसकी नज़रों से टकरा कर कुछ कह रहा हो।

आरव की आँखें अब चीज़ों को सिर्फ़ देखती नहीं थीं — वो उन्हें महसूस करने लगी थीं।
हर सुबह जागते ही वो पहले उस आईने को देखता। वही पुराना आईना — धुंधला, धूलभरा, जिसकी किनारियों पर जंग की लकीरें थीं। किसी समय ये सिर्फ़ एक आईना था, अब ये एक दरवाज़ा लगने लगा था… किसी ऐसे हिस्से का दरवाज़ा, जिसे आरव खुद भूल चुका था।

आज थैरेपी से पहले वो उस आईने के सामने कुछ देर नहीं — बहुत देर खड़ा रहा। उसका चेहरा थका हुआ था, आँखों के नीचे काले घेरे, होंठों पर मौन। लेकिन आईना सिर्फ़ इतना नहीं दिखा रहा था। आईना उसे कुछ और लौटा रहा था — जैसे किसी बीते समय की परछाई।

थैरेपी रूम में घुसते ही एक अजीब सी ठंडक ने उसे छू लिया। कमरे का तापमान सामान्य था, फिर भी उसे लगा जैसे हड्डियों तक ठंड घुस रही हो।
डॉ. मेहरा ने अपनी जानी-पहचानी, सौम्य मुस्कान के साथ कहा,
“आज हम कुछ गहराई में उतरेंगे, आरव।
आँखें बंद करें। डरिए मत, मैं हूँ यहीं।”

आरव ने आँखें बंद कीं — और बस उसी पल एक सन्नाटा उसके भीतर समा गया।
कोई आवाज़ नहीं। कोई हलचल नहीं।

फिर अचानक — एक धीमी सरसराहट… जैसे पानी की हल्की लहरें किनारे से टकरा रही हों। फिर हवा में पत्तियों की फड़फड़ाहट। और उसके बाद — एक परछाई।

एक लड़की।

सफेद सूती कपड़े, लंबे खुले बाल, और वो आँखें — जैसे सीधी आत्मा को चीरकर भीतर उतर जाएँ। वो मुस्कुरा रही थी। लेकिन उस मुस्कान में कोई गर्माहट नहीं थी — वो मुस्कान बर्फ जैसी ठंडी थी, जैसे वो जानती हो कि वो अब वापस नहीं जा सकती।

“आरव…” उसकी आवाज़ बहुत धीमी थी, फिर भी साफ़ सुनाई दी,
“क्या तुमने मुझे सच में चाहा था?”

आरव बोलना चाहता था — लेकिन जैसे उसकी ज़ुबान पर किसी ने वज़न रख दिया हो। शब्द उसके गले में ही घुटने लगे।

सपना था ये? या कोई दबी हुई याद? या… कुछ और?

थैरेपी खत्म हुई, तो आरव एक शब्द बोले बिना कमरे से निकला। कोई सवाल नहीं, कोई जवाब नहीं। वो सीधा अपने कमरे लौटा — और उसी आईने के सामने जा खड़ा हुआ। अब उसे कुछ जानना था।

आईने में पहले उसका चेहरा दिखा… फिर वो धुंधलापन… और अचानक — उसकी आँखों की जगह सना की आँखें।

सना।
वही लड़की, वही मुस्कान।

अब आईना उसका नहीं रहा था।

“नहीं… ये मेरा दिमाग़ है… कोई भ्रम है…”
वो बड़बड़ाया और पीछे हटा।

लेकिन तभी —
आईना चटक गया।

तेज़ झनझनाहट के साथ काँच फटा, और आरव पीछे गिर पड़ा। उसकी पीठ ज़मीन से टकराई, पर उसकी नज़रें अब भी आईने पर थीं — जहाँ सना की परछाई जैसे अंदर समा गई थी।

जैसे ही वो संभलने की कोशिश कर रहा था, उसकी दराज से एक पुरानी तस्वीर फिसलकर ज़मीन पर गिर पड़ी।
धूल से ढकी हुई, कोनों से फटी।

आरव ने तस्वीर उठाई।
साफ़ किया… और देखा।

तस्वीर में वही लड़की थी। वही चेहरा… वही आँखें… और वही रहस्यमयी मुस्कान।
नीचे नाम लिखा था:

"डॉ. सना मलिक – क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट"

आरव की साँसें जैसे थम गईं।

“सना… डॉक्टर थी?”
“तो फिर… मरीज़ कौन है?”


अगली कड़ी में पढ़िए:
भाग 3: वो लड़की जो हर सपना चुराती है
(जब सपनों और हकीकत की सीमाएं मिटने लगें…)