Sofi ka Sansaar - 9 in Hindi Philosophy by Anarchy Short Story books and stories PDF | सोफी का संसार - भाग 9

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सोफी का संसार - भाग 9

अफलातून
आत्म-जगत में लौटने की ललक...

सोफी अगले दिन एक झटके के साथ उठी। उसने घड़ी पर नजर डाली। अभी मुश्किल से पाँच से थोड़ा ही अधिक समय होगा किन्तु वह ऐसे पूरी तरह से जग गई थी कि बिस्तर में उठ बैठी थी। वह ड्रेस क्यों पहने हुए थी? फिर उसे सब चीजें याद आईं।

वह उठी और एक स्टूल पर बैठ गई और अलमारी के सबसे ऊपरी खन पर नजर दौड़ाई। हाँ-वहाँ पीछे की ओर, वीडियो कैसेट था। तो आखिर यह एक सपना नहीं था; कम-से-कम, सारा तो सपना नहीं था।

किन्तु वह वास्तव में अफलातून और सुकरात से तो नहीं मिली थी... चलो, छोड़ो। उसमें इसके बारे में और सोचने की शक्ति नहीं रह गई थी। शायद उसकी माँ ठीक थी, शायद वह आजकल अजीब तरह से व्यवहार कर रही है।

खैर जो भी हो, वह दुबारा सोने न जा सकी। शायद उसे नीचे अपनी गुप्त माँद परं जाना चाहिए और देखना चाहिए कि कुत्ता कोई और पत्र तो नहीं डाल गया है। सोफी दबे पाँव नीचे उतरी, उसने जॉगिंग के जूते पहने और बाहर चली गई।

बाग में हर चीज अद्भुत रूप से साफ और शान्त थी। चिड़ियाँ इतने जोर से चहक रही थीं कि सोफी हँसे बिना न रह पाई। सबेरे की ओस घास में ऐसे चमक रही थी जैसे मणि हो। एक बार फिर वह दुनिया के अविश्वसनीय आश्चर्य रूप से अभिभूत हो गई।

पुरानी बाड़ के अन्दर भी बहुत नमी थी। सोफी को दार्शनिक का कोई पत्र नजर नहीं आया, किन्तु फिर भी उसने एक मोटी जड़ साफ कर ली और बैठ गई।

उसे याद आया कि वीडियो-अफलातून ने उत्तर ढूँढ़ने के लिए कुछ प्रश्न उसे दिए थे। पहला कुछ इस तरह का था बताओ एक बेकर एक ही तरह की बीस कुकी कैसे बना सकता है।

सोफी को इस विषय में बड़ी सावधानी से सोचना होगा, क्योंकि यह निश्चित रूप से आसान नहीं था। कभी-कभी जब उसकी माँ कुछ कुकियाँ पकाती थी, तो वे सारी कभी एक जैसी नहीं बनीं। चलिए, माँ तो एक विशेषज्ञ पेस्ट्री बनानेवाली नहीं थी,  कभी-कभी तो चौका ऐसा लगता था मानो वहाँ एक बम फटा है। बेकर से भी जो कुकी वे खरीदकर लाती थीं वे सब भी कभी एक सी नहीं मिलीं। बेकर के हाथ में एक-एक कुकी को अलग-अलग शक्ल दी गई थी।

फिर एक सन्तुष्ट मुस्कान सोफी के चेहरे पर फैल गई। उसे याद आया कि एक बार वह और उसके पिता खरीदारी करने गए थे और घर पर उसकी माँ क्रिसमस की कुकियाँ बना रही थी। जब वे वापस आए तो पाया कि रसोई की मेज पर बहुत सारे अदरक वाले अधपके पुतलों जैसे कुकी पड़े हैं। हालाँकि सारे एकदम पूरे नहीं बने थे, किन्तु एक तरह से वे सारे एक से थे। और ऐसा क्यों था? कारण साफ था, उनकी माँ ने उन सबके लिए एक ही साँचे का प्रयोग किया था।

इस घटना को याद करके सोफी स्वयं से इतनी खुश हुई कि उसने पहले प्रश्न का उत्तर समझ लेने की घोषणा कर डाली। यदि एक बेकर बिलकुल एक जैसी पचास कुकी बनाता है तो वह सबके लिए एक ही पेस्ट्री-साँचा प्रयोग करता होगा। बस इतनी सी ही तो बात है।

फिर वीडियो-अफलातून ने कैमरे में देखा था और पूछा था सारे घोड़े एक से क्यों होते हैं? किन्तु वे एक से तो बिलकुल नहीं थे। इसके विपरीत, सोफी का विचार था कि कोई भी दो घोड़े उसी तरह एक जैसे नहीं हैं; उसी प्रकार जैसे दो आदमी एक जैसे नहीं हैं।

वह इस विचार को यहाँ छोड़ने ही वाली थी कि उसे याद आया कि वह कुकियों के बावत क्या सोचती थी। उनमें से कोई भी एक बिलकुल दूसरी जैसी नहीं थी। कुछ दूसरी से मोटी थी, कुछ टूटी हुई थीं। किन्तु फिर भी, हर कोई देख सकता था कि वे एक तरह से-'बिलकुल एक जैसी थीं।'

वास्तव में जो चीज अफलातून पूछ रहा था, वह यह थी कोई भी घोड़ा हमेशा एक घोड़ा ही क्यों होता है और उदाहरण के लिए, यह घोड़े और सूअर का वर्णसंकर क्यों नहीं होता? क्योंकि सब घोड़ों में कुछ चीजें समान होती हैं, भले ही एक घोड़ा इतना ब्राउन हो जितना एक रीछ या इतना सफेद जितना एक मेमना। सोफी को अभी तक छः या आठ टाँगोंवाला घोड़ा दिखाई नहीं दिया था, उदाहरण के लिए।

किन्तु निश्चय ही अफलातून यह विश्वास तो नहीं कर सकता था कि सारे घोड़े इसलिए एक जैसे दिखते हैं कि वे एक ही साँचे से बनाए गए हैं।

इसके आगे तो अफलातून ने वास्तव में एक कठिन प्रश्न पूछा था। क्या आदमी में अमर आत्मा होती है? यह तो कुछ ऐसी बात थी जिसका उत्तर देने के लिए सोफी योग्य नहीं थी। उसे तो सिर्फ इतना मालूम था कि मृत शरीरों को या तो जला दिया जाता है या उन्हें दफना दिया जाता है; इसलिए उनका तो कोई भविष्य ही नहीं है। यदि आदमी में अमर आत्मा होती तो आदमी के लिए यह विश्वास करना जरूरी था कि आदमी दो हिस्सों का बना है: एक हिस्सा तो शरीर है जो वर्षों तक प्रयोग करने से घिस जाता है-और दूसरा (हिस्सा) आत्मा जिसे इस बात से कुछ मतलब नहीं कि शरीर को क्या होता है, इसका कार्य करने का ढंग स्वतन्त्र है। दादी माँ ने एक बार कहा था कि उसे लगता है कि सिर्फ उसका शरीर बूढ़ा हुआ है। अन्दर से तो यह हमेशा ही पहले जैसी जवान लड़की है।

'जवान लड़की' वाला विचार सोफी को अगले प्रश्न की ओर ले गया! क्या पुरुष और स्त्रियाँ समान रूप से समझदार हैं? वह इस बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कह सकती थी। यह तो इस बात पर निर्भर था कि 'समझदार' होने से अफलातून का मतलब क्या है।

दार्शनिक ने कोई बात सुकरात के विषय में कही थी, वह अब सोफी के दिमाग में आई। सुकरात ने बताया था कि यदि लोग अपनी कॉमनसेंस का प्रयोग करें तो प्रत्येक व्यक्ति दार्शनिक सत्यों को समझ सकता है। उसने यह भी कहा था कि एक गुलाम में भी वही कॉमनसेंस थी जैसी एक कुलीन आदमी में होती है। सोफी को भरोसा था कि उसने यह भी कहा होगा कि स्त्रियों में भी वही कॉमनसेंस होती है जैसी पुरुषों में।

जब वह बैठी हुई सोच रही थी, बाड़ में अचानक एक सरसराहट हुई और किसी चीज के तेज़ी और ज़ोर से साँस लेने की आवाज आई मानो कोई भाप-इंजन ज़ोर लगा रहा हो। अगले ही क्षण, सुनहरी लैब्रेडोर रपटकर माँद में अन्दर पहुँचा। इसके मुँह में

एक बड़ा लिफाफा था।

'हरमीज़' सोफी चिल्लाई। 'नीचे डाल दो, नीचे डाल दो।'

कुत्ते ने लिफाफा सोफी की गोद में डाल दिया और सोफी ने कुत्ते के सिर पर हाथ

फेरने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया।

'तुम एक अच्छे बच्चे हो, हरमीज़,' उसने कहा।

कुत्ता नीचे लेट गया और उसने हाथ फेरने दिया। किन्तु कुछ मिनट बाद यह उठा और उसी रास्ते से, जिससे यह अन्दर आया था, बाहर जाने के लिए जोर लगाने लगा। हाथ में ब्राउन लिफाफा लिये सोफी इसके पीछे-पीछे चली। वह घनी झाड़ी में रेंगकर

निकली और बाग के बाहर आ गई।

हरमीज़ पहले ही जंगल के छोर की तरफ जाने के लिए दौड़ने लगा था और सोफी कुछ गज की दूरी पर उसके पीछे-पीछे आ रही थी। दो बार कुत्ता पीछे की ओर मुड़ा और गुर्तया, किन्तु कोई भी चीज सोफी को रोक नहीं सकती थी।

इस बार उसने फैसला कर लिया था कि वह दार्शनिक को ढूँढ़ निकालेगी-भले ही

उसे इसके लिए दौड़कर एथेंस तक जाना पड़े।

कुत्ता और तेजी से दौड़ा और अचानक एक तंग रास्ते पर पहुँचकर मुड़ गया। सोफी उसके पीछे-पीछे दौड़ती गई किन्तु कुछ मिनट बाद कुत्ते ने मुड़कर उसका सामना किया और ऐसे भौंकने लगा मानो वह निगरानी करनेवाला कुत्ता है। सोफी अभी भी हार मानने को तैयार नहीं थी और वह उन दोनों के बीच की दूरी को कम करने की कोशिश में थी।

कुत्ता फिर मुड़ा और (तंग) रास्ते पर दौड़ गया। सोफी ने महसूस किया कि वह कभी भी उसके पास तक नहीं पहुँच पाएगी। सोफी वहाँ रुक गई और इतनी देर खड़ी रही मानो अनादि काल से वहाँ है, कुत्ता दौड़ता हुआ, दूर और दूर होता गया। अन्त में सारी आवाजें खत्म हो गई।

जंगल में थोड़ी-सी खुली जगह में वह एक पेड़ के ढूँठ पर बैठ गई। ब्राउन लिफाफा अभी भी उसके हाथ में था। उसने इसे खोला, इसमें टाइप कई पन्ने बाहर निकाले, और पढ़ना शुरू किया।

  • अफलातून की एकेडेमी

हम लोगों ने अच्छा खुशनुमा समय एक साथ गुजारा, इसके लिए तुम्हें धन्यवाद है, सोफी। मेरा मतलब है, एवेंस में। कम-से-कम मैंने अपना परिचय तुम्हें दे दिया। और चूँकि मैंने अफलातून से तुम्हारा परिचय करा दिया है, अब हम बिना किसी दिखावे के अपना काम शुरू कर सकते हैं।

जब सुकरात ने विषपान किया था उस समय अफलातून (428-347 ई.पू.) की आयु उनतीस वर्ष की थी। वह कुछ समय से सुकरात का शिष्य रहा था और उसके मुकदमे को बड़े ध्यान से देख-सुन रहा था। एर्वेस अपने महानतम नागरिक को मृत्युदंड दे सकता था, इस तथ्य ने उस पर गहरा प्रभाव छोड़ने से भी कुछ अधिक असर किया। इससे सारे दार्शनिक प्रयासों की दिशा निर्धारित होने जा रही थी।

अफलातून के लिए सुकरात की मृत्यु उस विरोध का जीता-जागता उदाहरण था जो एक समाज में, इसके यवार्य रूप में और इसके सच्चे तथा आदर्श रूप में पाया जाता है। दार्शनिक के रूप में अफलातून का सबसे पहला कार्य सुकरात की ऐपोलॉजी (क्षमा-याचना) का प्रकाशन या, उन दलीलों का लेखा-जोखा जो उसने बड़ी जूरी के सामने रखी थी।

निश्चय ही तुम याद करोगी कि सुकरात ने कोई भी पुस्तक अपने आप नहीं लिखी, हालाँकि सुकरात के कई पूर्ववर्ती दार्शनिकों ने अपने विचार लिखे हैं। समस्या यह है कि उनकी लिखी सामग्री में से शायद ही कोई चीज बची हो और आज उपलब्ध हो। किन्तु जहाँ तक अफलातून का सवाल है, हमारा विश्वास है कि उसकी सारी मुख्य रचनाएँ सुरक्षित हैं। (सुकरात की ऐपोलॉजी के अतिरिक्त, अफलातून ने ऐपीसिल्स (पत्र) का एक संग्रह और लगभग पच्चीस दार्शनिक डायलॉग्स लिखे) ये रचनाएँ आज हमें उपलब्ध हैं, इनके पीछे स्वयं अफलातून के प्रयास कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, उसने एर्वेस के निकट ही एक निकुंज में दर्शनशास्त्र के अपने स्कूल की स्थापना की और इसका नाम जाने-माने यूनानी नायक एकेडेमस के नाम पर रखा। अतः यह स्कूरु एकेडेमी के नाम से जाना जाता था। (तब से अब तक सारी दुनिया में कई हजार 'एकेडे.ियाँ' स्थापित कर दी गई हैं। हम 'एकेडेमिक्स' और 'एकेडेमिक सब्जेक्ट्स' पर चर्चा करेंगे।

अफलातून की एकेडेनी में जो विषय पढ़ाए जाते थे, वे थे दर्शनशास्त्र, गणित और जिम्नास्टिक्स (खेल-कूद)-हालाँकि 'पढाया जाना' शायद ही उपयुक्त शब्द हो। चहकती-महकती, जोशभरी चर्चा अफलातून की एकेडेमी में सबसे महत्त्वपूर्ण समझी जाती थी। अतः इसके पीछे शुद्ध या मात्र आकस्मिकता नहीं है कि अफलातून के लेखों ने डायलॉग्स का रूप लिया हो।

शाश्वत सत्य, शाश्वत सुन्दरता और शाश्वत 'कल्याण' 

इस कोर्स के प्रारम्भ में मैंने बतलाया था कि एक दार्शनिक के प्रोजेक्ट के विषय में पूछना, जानकारी लेना अच्छी बात होगी। इसलिए अब मैं पूछता हूँ: वे कौन सी समस्याएँ थीं जिनसे अफलातून का सरोकार था?

संक्षेप में हम यह स्थापित कर सकते हैं कि अफलातून का सरोकार उस रिश्ते से था, जो चिरन्तन और अपरिवर्तनीय और 'प्रवहमान' के बीच है। (वास्तव में सुकरात-पूर्व के दार्शनिकों की तरह ही) हम देख चुके हैं कि किस प्रकार सोफिस्टों और सुकरात ने प्राकृतिक दर्शनशास्त्र की ओर से ध्यान को हटाकर इसे मनुष्य और समाज से सम्बन्धित समस्याओं पर लगा दिया। किन्तु फिर भी एक अर्थ में, स्वयं सुकरात और सोफिस्ट्स भी चिरन्तन और अपरिवर्तनीय तथा 'प्रवहमान' के बीच सम्बन्धों में ही उलझे रहे। उनकी रुचि समस्या के इस रूप में थी जिसमें यह मनुष्यों की नैतिकता और समाज के आदर्शों अथवा सद्‌गुणों से जुड़ी हुई है। बहुत संक्षेप में कहें तो सोफिस्ट्स के विचार के अनुसार विभिन्न शहर-राज्यों और विभिन्न पीढ़ियों के बीच इस बात को लेकर अन्तर था कि सही क्या है और गलत क्या है। अतः सही और गलत कुछ ऐसी चीज थी जो 'वहती', 'प्रवहमान' रहती थी। यह सुकरात को पूर्णतः अस्वीकार्य था। उसका मानना था कि सही और गलत का निर्धारण करने के लिए शाश्वत और सम्पूर्ण नियम हैं। अपनी कॉमनसेंस अथवा साधारण बुद्धि का प्रयोग करके हम सभी अपरिवर्तनशील मापदंडों तक पहुँच सकते हैं, क्योंकि मानवीय तर्क वास्तव में शाश्वत और अपरिवर्तनशील है।

तुम समझ रही हो न, सोफी? फिर उसके बाद अफलातून आता है। उसका सरोकार दोनों से है : यानी प्रकृति में क्या चिरन्तन और अपरिवर्तनशील है तथा नैतिकता और समाज से सम्बन्धित चिरन्तन और अपरिवर्तनशील क्या है? अफलातून के लिए ये दोनों समस्याएँ दो होकर भी एक हैं और समान हैं। वह उस 'यथार्थ' (सच्चाई) को पकड़ने का प्रयास कर रहा था जो चिरन्तन एवं अपरिवर्तनीय था।

और यदि बेबाक और ईमानदार ढंग से कहें, तो वास्तव में यही वह समझ है जिसके लिए हमें दार्शनिकों की जरूरत है। हमें उनकी जरूरत 'सौन्दर्य की एक रानी' (ब्यूटी क्वीन) चुनने अथवा टमाटरों का मोल-भाव करने के लिए नहीं है। (यही कारण है कि वे प्रायः लोकप्रिय नहीं होते।) जो अत्यधिक सामयिक मुद्दे होते हैं उनकी ओर आँख मूँदकर, दार्शनिक लोगों का ध्यान उन चीजों की ओर आकृष्ट करते हैं जो शाश्वत 'सत्य', शाश्वत 'सुन्दरता' और शाश्वत 'कल्याण' के मामले हैं।

इस प्रकार हमें कम-से-कम अफलातून के दार्शनिक प्रोजेक्ट की रूपरेखा की एक झलक मिल जाती है। किन्तु एक समय में हमें एक ही चीज लेनी चाहिए। हम एक असाधारण मस्तिष्क को समझने का प्रयास कर रहे हैं, एक मस्तिष्क जो बाद के सारे यूरोपीय दर्शनशास्त्र पर गम्भीर प्रभाव डालेगा।

  • विचार-जगत

एम्पीडोक्लीज और डिमॉक्रिटस, दोनों ने ही इस तव्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया या कि भले ही प्राकृतिक दुनिया में हर चीज 'बहती' अथवा 'प्रवहमान' थी, फिर भी कुछ ऐसी 'सत्ता भी' होनी चाहिए जो कभी नहीं बदलती ('चार जड़ें' या 'अणु')। अफलातून इस प्रस्तावना से सहमत था किन्तु एक भिन्न ढंग से।

अफलातून का मानना था कि प्रकृति में हर साकार वस्तु 'प्रवाहमान' है। अतः ऐसे 'सार-तत्व' नहीं हैं जो पुलते. अथवा तिरोहित नहीं होते। निश्चय ही 'भौतिक जगत' से सम्बन्ध रखनेवाली हर चीज ऐसे पदार्थ की बनी है जिसको समय क्षरित कर देता है किन्तु हर एक चीज एक ऐसे समयातीत 'साँचे' अथवा 'रूप-आकार' के अनुसार बनी है जो शाश्वत और अपरिवर्तनीय है।

तुम समझ रही हो? नहीं, तुम नहीं समझी।

घोड़े एक जैसे ही क्यों हैं, सोफी? शायद तुम यह नहीं सोचती कि वे वास्तव में एक से हैं। किन्तु कोई एक चीज ऐसी है जो सब घोड़ों में समान है, जो हमें उन्हें घोड़े के रूप में पहचानने के योग्य बनाती है। एक खास घोड़ा 'प्रवहमान' है, स्वाभाविक रूप से। यह बूढ़ा या लँगड़ा हो सकता है और समय आने पर यह मर जाएगा। किन्तु घोड़े का 'रूप-आकार' शाश्वत एवं अपरिवर्तनशील है।

अतः अफलातून के लिए जो शाश्वत एवं अपरिवर्तनशील था, वह उस प्रकार भौतिक 'मूल सार-तत्व' नहीं था जैसे यह एम्पीडोक्लीज और डिमॉक्रिटस के लिए था। अफलातून की धारणा शाश्वत और अपरिवर्तनशील नमूनों की थी, जो अपने स्वरूप में आत्मिक एवं सूक्ष्म थे, और सारी चीजें उनके अनुसार बनी थीं।

लो, मैं इसे ऐसे रखता हूँ : सुकरात के पूर्वज दार्शनिकों ने बिना यह पूर्व कल्पना किए कि कोई चीज वास्तव में 'बदलती' है, प्राकृतिक परिवर्तन का अच्छा-खासा स्पष्टीकरण दिया था। उनका विचार था कि प्राकृतिक चक्र के बीच में कुछ शाश्वत और अपरिवर्तनशील, ऐसे सूक्ष्म तत्त्व ये जो तिरोहित नहीं होते थे। यहाँ तक तो ठीक है, सोफी! किन्तु उनके पास इसका कोई औचित्यपूर्ण स्पष्टीकरण या व्याख्या नहीं थी कि यह सबसे 'सूक्ष्म तत्त्व', जो एक समय घोड़ा बनाने में निर्माता-ब्लॉक्स थे, किस प्रकार अपने को एक पूर्ण्य गति से चलाते हुए चार या पाँच सौ वर्ष बाद, एक नया घोड़ा बनाने में सक्षम थे या एक हाथी (Elephant) अथवा मगरमच्ठ (Crocodile) बनाने में सक्षम थे, उदाहरण के लिए। अफलातून का मूल विन्दु था कि डिमॉक्रिटस के 'अणुओं' ने स्वयं को कभी भी 'Eledile' (हावी-मगर) अथवा एक 'Crocophant' (मगर-हाथी) के रूप में नहीं बनाया। यह ही वह चीज थी जिसने दार्शनिक चिन्तन को आगे बढ़ने की दिशा दी।

यदि तुमने सगदा लिया कि मेरा आशय क्या है तो तुम अगले पैराग्राफ को छोड़ आगे बढ़ सकती हो। किन्तु यदि तुमने नहीं समझा या जरूरत है तो मैं स्पष्ट किए देता हूँ: तुम्हारे पास लेगो का एक बॉक्स है और तुम एक लेगो घोड़ा बना सकती हो। फिर तुमने इसे अलग-अलग कर दिया और-और ब्लॉक्स को वापस बक्स में रख दिया। तुम बक्से को सिर्फ हिलाकर नया घोड़ा बनाने की आशा नहीं कर सकती। लेगो के ब्लॉक्स अपने आप एक-दूसरे को कैसे ढूँढ़ेगे और फिर एक नया घोड़ा बन जाएँगे? नहीं, तुम्हें घोड़ा दोवारा बनाना है, सोफी! और तुम यह कर सकती हो, इसका कारण यह है कि तुम्हारे दिमाग में एक तसवीर है कि घोड़ा कैसा होता है। लेगो घोड़ा एक मॉडल से बनाया जाता है जो घोड़े से घोड़े पर जाते हुए भी अपरिवर्तित रहता है।

तुमने पचास एक जैसी कुकीज के साथ कैसे किया? कल्पना करो कि तुम बाहरी अन्तरिक्ष से आई हो और तुमने पहले कभी वेकर नहीं देखा। तुम एक लुभावनी बेकरी में जाती हो और वहाँ एक अलमारी के खन में रखे हुए एक जैसे पचास 'जिंजर ब्रैड मैन' (कुकी) देखती हो। में कल्पना करता हूँ कि तुम यह सोचकर आश्चर्य करोगी कि वे सब एक जैसे कैसे हैं? यह भी हो सकता है कि उनमें से एक की एक बाँह ही न हो या एक का सिर का कुछ हिस्सा गायव हो या एक का पेट थोड़ा फूला हुआ हो। किन्तु घ्यानपूर्वक विचार करने के उपरान्त तुम यह निष्कर्ष निकालोगी कि सारे जिंजर ब्रेड मैन में कोई चीज समान है। यद्यपि परफेक्ट उनमें से कोई सा भी नहीं है, तुम यह अनुमान जरूर लगाओगी कि उनका उद्गम स्रोत एक ही है। तुम महसूस करोगी कि सारी कुकियाँ एक ही साँचे से बनाई गई थीं। और सोफी, इससे भी बड़ी बात यह है कि अब तुम्हारे मन में उस साँचे को देखने की उत्कट इच्छा है। क्योंकि साफ है, साँचे में स्वयं अधिक श्रेष्ठता-पूर्णता होनी चाहिए और एक अर्थ में यह अधिक सुन्दर होना चाहिए-यदि हम इसकी तुलना अपेक्षाकृत अशोधित कुकीज से करते हैं।

यदि तुमने इस समस्या का हल स्वयं अपने आप निकाल लिया तो तुम इस दार्शनिक समाधान पर बिलकुल उसी रास्ते से पहुँची हो जिससे अफलातून पहुँचा था।

अधिकांश दार्शनिकों की भाँति वह बाहरी अन्तरिक्ष से टपका था। (वह खरगोश के बारीक बालों के एकदम किनारे पर खड़ा हुआ था) उसे इस सारे प्राकृतिक तथ्य को देखकर आश्चर्य हुआ कि सारी चीजें एक समान समान हैं और उसने यह निष्कर्ष निकाला कि ऐसा तो होना ही चाहिए क्योंकि जिन चीजों को हम देखते हैं उनके 'पीछे' रूपाकारों की सीमित संख्या है। अफलातून इन रूपाकारों को विचार कहता था। हर घोड़े, सूअर या मानव-प्राणी के पीछे 'विचार घोड़ा', 'विचार सूअर' और 'विचार मानव प्राणी' है। (उसी तरह से जिस बेकरी की हमने बात की है उसमें जिंजर ब्रैड आदमी, जिंजर ब्रैड घोड़े और जिंजर ब्रेड सूअर हो सकते हैं। क्योंकि हर आत्मसम्मान रखनेवाली बेकरी के पास एक से अधिक साँचे हैं। किन्तु एक प्रकार की जिंजर ब्रैड कुकी बनाने के लिए एक साँचा काफी है)।

अफलातून इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि 'भौतिक जगत' के पीछे एक सत्य होना चाहिए। उसने इस सत्य को विचारों का जगत कहा इसमें वे शाश्वत और अपरिवर्तनशील 'नमूने' थे जो प्रकृति में दिखनेवाले हर तथ्य सत्ता के पीछे खड़े थे। इस उल्लेखनीय दृष्टिकोण को अफलातून का विचारों का सिद्धान्त कहते हैं।

  • सच्चा ज्ञान

मुझे पूरा भरोसा है तुम मेरी बात समझती चल रही हो, प्रिय सोफी। किन्तु शायद यह पूछ रही होगी : क्या अफलातून वास्तव में इन सबके विषय में गम्भीर था? क्या वह वास्तव में विश्वास करता था कि इस प्रकार के रूपाकार एक विलकुल भिन्न सत्य में वास्तव में विद्यमान थे?

सम्भवतः वह अपने सारे जीवन भर शब्दशः इस प्रकार विश्वास नहीं करता था किन्तु उसके कुछ डायलॉग्स में आग्रह यही है कि उसे इसी रूप में समझा जाए। आइए, उसकी विचारधारा का अनुगमन करते हैं।

जैसे हमने देखा, एक दार्शनिक किसी शाश्वत और अपरिवर्तनीय सत्य को पकड़ने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिए, एक विशेष साबुन के बुलबुले के अस्तित्व पर मीमांसा लिखने से कोई काम नहीं बनेगा। अंशतः तो इस कारण कि इसके फूटने से पहले इसका अध्ययन करने के लिए (पर्याप्त) समय है ही कहाँ, है और अंशतः दूसरे किसी ऐसी वस्तु अथवा अ विषय पर दार्शनिक मीमांसा लिखने पर जिसे किसी ने कभी देखा ही नहीं और जो केवल 5 सेकंड के लिए ही विद्यमान थी, इसे पढ़ने अपवा स्वीकार करनेवाले कहाँ मिलेंगे?

अफलातून का विश्वास था कि हम अपने चारों ओर प्रकृति में जिन ठोस चीजों को देखते हैं उन सभी की तुलना साबुन के बुलबुले से की जा सकती है, क्योंकि ज्ञानेन्द्रिय जगत में विद्यमान कोई भी चीज चिरकालीन नहीं है। हम यह निश्चयपूर्वक जानते हैं कि प्रत्येक मानव और प्रत्येक जानवर किसी न किसी समय जल्दी या देर से मर जाएगा और उसका शरीर विघटित हो जाएगा। यहाँ तक कि स्फटिक का एक ब्लॉक भी परिवर्तित होता रहता है और धीरे-धीरे क्षरित हो जाता है। (सोफी ऐक्रोपॉलिस गिर रहा है और खंडहर बनता जा रहा है। लगता है यह घोटाला है, पर चीजें बनी ही ऐसी हैं, क्या करें, सोफी?) अफलातून का मुख्य बिन्दु यह था कि हमें कभी भी किसी वस्तु का सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं होगा क्योंकि हर वस्तु निरन्तर परिवर्तनशील है। साकार और इन्द्रियजनित दुनिया में रहनेवाली वस्तुओं के बारे में हम केवल राय कायम कर सकते हैं। सच्चा ज्ञान हमें केवल उन अमूर्त सम्प्रत्ययों का ही हो सकता है जिन्हें हम अपने तर्क द्वारा समझते हैं।

अच्छी बात है, सोफी, मैं इसे और भी अच्छी तरह से रखता हूँ इस पकाने की सारी प्रक्रिया में जिंजर ब्रैड मैन इतना टेढ़ा, एक ओर बेहद झुका हुआ हो सकता है कि यह पहचानना ही मुश्किल हो जाए कि क्या बनाया गया था। किन्तु ऐसे दर्जनों जिंजर ब्रैड मैन को देखने पर यह तो मैं निश्चयपूर्वक कह ही सकता हूँ कि इस कुकी का साँचा कैसा रहा होगा। हालाँकि मैंने इसे देखा कभी नहीं है किन्तु मैं इसका अनुमान लगा सकता हूँ। स्वयं अपनी आँखों से वास्तविक साँचे को न देखने का एक लाभ भी हो सकता है, कारण हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों पर हमेशा ही भरोसा नहीं कर सकते। देखने की क्षमता या गुण भी अलग-अलग लोगों के अलग-अलग हो सकते हैं। दूसरी ओर हम अपने तर्क के ज्ञान पर निर्भर कर सकते हैं क्योंकि यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक जैसा है।

यदि आप एक क्लास में तीस अन्य विद्यार्थियों के साथ बैठे हैं और अध्यापक कक्षा से यह पूछता है कि इन्द्रधनुष में सबसे सुन्दर रंग कौन सा है, तो उसे सम्भवतः अनेक प्रकार के उत्तर प्राप्त होंगे। किन्तु यदि अध्यापक यह पूछता है कि 3 गुणा 8 कितने होते हैं, तो मुझे आशा है कि सारी कक्षा का एक ही उत्तर होगा। क्योंकि इस समय तर्क बोल रहा है और तर्क, एक तरीके से, ऐसे सोचने अथवा महसूस करने के सीधा-सीधा विपरीत होता है। शायद हम कह सकते हैं कि तर्क एकदम इसी कारण से शाश्वत एवं सर्वव्यापी होता है कि यह शाश्वत एवं सर्वव्यापी अवस्या को ही व्यक्त करता है।

गणित में अफलातून का मन बहुत लगता था क्योंकि गणित की सूक्तियाँ (स्टैप्स) कभी नहीं बदलतीं। तथा यह स्वतः सिद्ध होती हैं जिनका सच्चा ज्ञान हम प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु यहाँ हमें एक उदाहरण की जरूरत है।

कल्पना करो, जंगल में तुम्हें एक गोल नुकीला पत्ता मिलता है। शायद तुम यह कहो कि तुम्हारे विचार में यह पूरी तरह गोल दिखता है, जबकि जोआना इस बात पर जोर देती है कि यह एक तरफ से चपटा हो गया है (फिर आप लोग इस विषय में तर्क-वितर्क करने लगते हैं)। किन्तु आप उन चीजों का सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते जिन्हें आप अपनी आँखों से देख-समन रहे हैं। दूसरी ओर आप यह पूर्ण निश्चय के साथ कह सकते हैं कि एक वृत्त में चतुर्भुज के सारे कोणों का जोड़ 360 डिग्री होता है। इस सूरत में आप एक आदर्श वृत्त के विषय में चर्चा कर रहे होते हैं, आदर्श वृत्त जो भौतिक जगत में विद्यमान नहीं है किन्तु आप इसे अपने मन में देख सकते हैं। (तब आपका व्यवहार एक गुप्त जिंजर ब्रैड मैन साँचे से हो रहा है, एक विशिष्ट कुकी से नहीं जो आपकी रसोई में मेज पर रखा है)।

संक्षेप में हम यही कह सकते हैं कि जिन चीजों का ज्ञान हम अपनी इन्द्रियों से करते हैं, वह उन चीजों के बारे में अस्पष्ट धारणाएँ होती हैं। किन्तु जिन चीजों को हम तर्क द्वारा समझते हैं, उनके बारे में हमें सच्चा ज्ञान प्राप्त हो सकता है। एक त्रिकोण में सारे कोणों का जोड़ सदैव ही 180 डिग्री रहेगा। और इसी तरह 'विचार' घोड़ा चार टाँगों पर चलेगा, भले ही इन्द्रियजन्य जगत में सारे घोड़ों की एक-एक टाँग टूटी हुई हो।

  • एक अमर आत्मा

जैसा मैंने पहले स्पष्ट किया है अफलातून का विश्वास था कि यथार्थ दो क्षेत्रों में विभाजित होता है।

एक क्षेत्र तो इन्द्रिय-जगत का है, जिसके विषय में हम अपनी पाँच (अपूर्ण अथवा पूर्णता के आसपास) इन्द्रियों का प्रयोग करके केवल अपूर्ण या पूर्णता के आसपास का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इस इन्द्रिय-जगत में 'हर चीज प्रवहमान' है और कुछ भी स्थायी नहीं है। इन्द्रिय-जगत में कुछ भी नहीं है, केवल वही है जो बनता है और फिर मिट जाता है।

दूसरा क्षेत्र विचार-जगत का है, जिसके विषय में हम अपने तर्क का प्रयोग करके सच्चा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इस विचार-जगत को इन्द्रियों द्वारा अनुभव नहीं किया जा सकता, किन्तु विचार (या रूपाकार) शाश्वत और अपरिवर्तनशील है।.

अफलातून के अनुसार, मनुष्य दुहरा प्राणी है। हमारा एक शरीर है जो 'प्रवहयान' है और जो इन्द्रिय-जगत के साथ अच्युत रूप से जुड़ा है और इसकी नियति भी दुनिया की अन्य सभी वस्तुओं-उदाहरण के लिए, साबुन का बुलबुला- जैसी ही है। हमारी सभी इन्द्रियाँ शरीराधारित हैं और परिणामस्वरूप भरोसेमन्द नहीं हैं। किन्तु हमारे पास एक अमर आत्मा भी है-और यह आत्मा तर्क का क्षेत्र है।

किन्तु यही सब कुछ नहीं है सोफी, यह सब कुछ नहीं है।

अफलातून यह विश्वास भी रखता था कि शरीर में निवास करने से पहले आत्मा विद्यमान थी। (कुकी के सारे साँचों के साथ यह बन्द अलमारी के खन में पड़ी हुई थी) किन्तु जैसे ही एक मनुष्य के शरीर में आत्मा जाग उठती है, यह सारे पूर्ण (श्रेष्ठ) विचारों को भूल चुकी होती है। फिर कोई चीज घटित होना शुरू हो जाती है। वास्तव में, एक अद्भुत प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। जैसे ही एक मानव प्राकृतिक जगत में विभिन्न रूपाकारों को खोज लेता है, एक अस्पष्ट स्मृति उसकी आत्मा को उद्वेलित करने लगती है। वह एक घोड़ा देखता है-किन्तु एक अश्रेष्ठ घोड़ा। (एक जिंजर ब्रेड घोड़ा)। आत्मा में पूर्ण अथवा श्रेष्ठ घोड़े की धुँधली स्मृति जगाने के लिए घोड़े का नजारा काफी है, इस धुँधली स्मृति को आत्मा ने एक बार विचार-जगत में देखा या, और अब यह आत्मा को अपने सच्चे क्षेत्र में वापस जाने के लिए उद्वेलित करती है। अफलातून इस ललक को इरॉस; म्तवेद्ध-जिसका अर्थ होता है प्रेम-कहता है। आत्मा तब अपने सच्चे मूल की ओर लौट जाने की उत्कंठा अनुभव करती है। अब इसके आगे, शरीर और सारे इन्द्रिय-जगत का अनुभव अपूर्ण और महत्त्वहीन होता है। आत्मा प्रेम के पंखों पर सवार होकर अपने घर यानी विचार-जगत में जाने के लिए लालायित होती है। यह शरीर के बन्धन से मुक्त होने को लालायित रहती है।

मुझे जल्दी से इस बात पर महत्त्व देने दीजिए कि अफलातून जीवन की एक आदर्श यात्रा का वर्णन कर रहा है, क्योंकि सारे मानव आत्मा को वापस विचार-जगत की यात्रा प्रारम्भ करने के लिए मुक्त नहीं करते। अधिकांश लोग विचारों की इन्द्र जगतीय 'प्रतिछायाओं' से चिपके रहते हैं। वे एक घोड़ा देखते हैं-फिर दूसरा घोड़ा देखते हैं। किन्तु वे उसे नहीं देखते जिसकी हलकी नकल प्रत्येक घोड़ा है। (वे रसोई की ओर तेजी से बढ़ जाते हैं और एक मिनट के लिए भी इस ओर ध्यान दिए बिना कि कुकीज आई कहाँ से हैं, जिंजर ब्रेड कुकीज से अपना पेट भर लेते हैं) अफलातून जिन शाश्वत प्रत्ययों के सत्य का वर्णन करता है यह दार्शनिकों का ढंग है। उसके दर्शनशास्त्र को दार्शनिक व्यवहार के वर्णन के रूप में पढ़ा जा सकता है।

जब तुम एक छाया देखती हो, सोफी, तुम मानती होगी कि कोई न कोई ऐसी चीज है जो छाया डाल रही है। तुम एक जानवर की छाया देखती हो। तुम सोचती हो कि यह एक घोड़ा हो सकता है, किन्तु तुम पूरी तरह निश्चित नहीं हो। अतः तुम मुड़ती हो और फिर स्वयं घोड़े को देख लेती हो-जो धूमिल 'घोड़े की छाया' की तुलना में अपनी रूपरेखा में निश्चय ही (अनन्त रूप से) अधिक सुन्दर और सुस्पष्ट नाक-नक्श लिये हुए है। अफलातून भी इसी प्रकार विश्वास करता था कि प्राकृतिक सत्ता विचारों के शाश्वत रूपाकारों की छाया मात्र है। किन्तु अधिकतर लोग छायाओं के बीच ही जीवन बिताने में सन्तुष्ट बने रहते हैं। वे इस ओर अपना ध्यान विलकुल नहीं लगाते कि छायाओं को डाल कौन रहा है। वे बस यही सोचते रहते हैं कि छायाएँ ही सब कुछ हैं और वे एक क्षण के लिए भी, यह कभी अनुभव नहीं करते कि वे स्वयं वास्तव में छायाएँ ही हैं। और इस प्रकार वे अपनी ही आत्मा के अमरत्व पर भी कोई ध्यान नहीं देते।

  • गुफा के अँधेरे से बाहर

इसे सोदाहारण बतलाने के लिए अफलातून एक पौराणिक कथा सुनाता है। हम इसे गुफा का मिवक या गुफा की पौराणिक कथा कहते हैं। हैं। मैं इसे अपने शब्दों में तुम्हें पुनः सुनाता हूँ।

कल्पना करो, कुछ लोग जमीन के नीचे गुफा में रहते हैं। वे सब ऐसे बैठे हैं कि उनकी पीठ गुफा के द्वार की ओर है; और उनके हाथ और पाँव ऐसे बँधे हुए हैं कि वे केवल गुफा की दीवारों की ओर ही देख सकते हैं। उनके पीछे एक ऊँची दीवार है और उस दीवार के पीछे मनुष्य जैसे प्राणी चलते हैं और वे दीवार के ऊपरवाले भाग पर विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ लिये घूम रहे हैं। चूँकि इन आकृतियों के पीछे की ओर एक आग जल रही है, इसलिए वे गुफा की पीछेवाली दीवार पर टिमटिमाती और बनती-बिगड़ती परछाइयाँ डाल रही हैं। अतः गुफा में रहनेवाले लोग केवल परछाइयों के इस खेल को देख पाते हैं। जब से वे पैदा हुए हैं तभी से वे इस स्थिति में बैठे हुए हैं, इसलिए वे सोचते हैं कि बस केवल परछाइयाँ ही वास्तविक सत्य हैं।

अब कल्पना यह कीजिए कि गुफा में रहनेवाले इन आदमियों में से एक किसी तरह अपने आपको इस बन्धन से मुक्त कर लेता है। वह अपने आपसे सबसे पहले यह पूछता है कि यह परछाइयाँ आ कहाँ से रही हैं। और जब वह मुड़कर दीवार पर कुछ आकृतियों को वैधे हुए देखता है तो तुम्हारे विचार से उस समय क्या होगा? सबसे पहले तो वह सूरज की तेज रोशनी को देखकर चौंधिया जाएगा। वह आकृतियों की स्पष्टता से भी चमत्कृत होगा क्योंकि उसने अभी तक केवल उनकी परछाइयों ही देखी थीं। और यदि वह दीवार पर ऊपर चढ़ जाता है, और आग के उस पार जाकर बाहर की दुनिया देखता है तो वह और भी अधिक चमत्कृत होगा। किन्तु अपनी आँखें मलने के बाद वह हर चीज की सुन्दरता देखकर मुग्ध हो जाएगा। जीवन में वह पहली बार रंग और साफ शरीर तथा शक्लें देख रहा है। यह वास्तव में वे जानवर और फूल देखेगा जिनकी अभी तक वह महज़ हलकी छायाएँ ही देख रहा था। किन्तु अभी भी वह अपने आपसे पूछेगा ये जानकर और फूल आए कहाँ से? फिर वह आसमान में सूरज देखेगा और महसूस करेगा अच्छा, तो यह सूरज है जो इन फूलों और जानवरों को जीवन प्रदान कर रहा है, उसी तरह जैसे आग की वजह से छायाएँ दिख रही थीं।

खुशी से भरा यह कन्दरा में रहनेवाला नाचता-फुदकता हुआ सारे में (प्रकृति में) घूमता फिरेगा और अभी हाल ही में पाई आजादी में आनन्द लेगा। किन्तु इसके बजाय वह उन सब लोगों की सोचता है जो अभी भी नीचे गुफा में बन्द हैं। वह वापस जाता है। एक बार अन्दर पहुँचा कि वह सारे गुफा में रहनेवालों को समझाता है कि जो परछाइयाँ वे देख रहे थे वे तो 'यथार्थ' चीजों की टिमटिमाती छायाएँ मात्र थीं। किन्तु वे लोग उसका विश्वास नहीं करते। वे गुफा की दीवार की ओर इशारा करते हैं और कहते हैं कि जो कुछ भी है, वह बस यह ही है। आखिर में वे उसे मार डालते हैं।

गुफा की पौराणिक कथा द्वारा अफलातून जिस चीज का उदाहरण प्रस्तुत कर रहा था, वह थी दार्शनिक की दिशा-दृष्टि जो परछाईवाली छवियों से होकर सारी प्राकृतिक सत्ता के पीछे सच्चे विचारों तक जाती है। वह सम्भवतः सुकरात की बात भी सोच रहा था, जिसे 'कन्दरा निवासियों' ने मार डाला क्योंकि उसने उनके परिपाटी वाले विचारों को उलट-पुलट दिया और उसने उनके मार्ग को सच्ची अन्तर्दृष्टि के प्रकाश से ज्योतित करने का प्रयास किया था। गुफा की पौराणिक कया सुकरात की हिम्मत दिखलाती है और साथ ही उसका वक्तृत्व कला सम्बन्धी उत्तरदायित्व भाव भी ।

अफलातून का मुख्य विन्दु यह दर्शाना था कि गुफा के अँधेरे और परछाइयों का गुफा के उस पार की दुनिया के साथ एक रिश्ता है जो प्राकृतिक दुनिया के रूपाकारों और विचार-जगत के रिश्ते के समकक्ष है। वह यह तो नहीं कहना चाहता था कि प्राकृतिक जगत अँधेरा और नीरस है, अपितु यह कि विचारों की स्पष्टता की तुलना में यह अँधेरे और नीरसता से भरा हुआ है। एक भू-दृश्य का सुन्दर चित्र भी अँधेरा भरा या नीरस नहीं होता। किन्तु यह केवल एक चित्र है।

  • दार्शनिक राज्य

गुफा की पौराणिक कथा अफलातून के रिपब्लिक नामक डायलॉग में है। इसी डायलॉग में अफलातून 'आदर्श राज्य' का चित्र भी प्रस्तुत करता है। यह राज्य काल्पनिक, आदर्श राज्य था या इसे हम अदार्श लोक अव्यवहार्य राज्य भी कह सकते हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि अफलातून ऐसे राज्य में विश्वास करता था जिसका शासन दार्शनिक करें। वह इसका स्पष्टकीरण मानव शरीर की संरचना पर आधारित करता है।

अफलातून के अनुसार, मानव शरीर तीन भागों से बना है: सिर, सीना और पेट। शरीर के इन तीनों भागों के लिए इनके समकक्ष आत्मा की क्षमता योग्यता है। तर्क का राम्बन्ध सिर से है, इच्छा का सम्बन्ध सीने (वक्ष) से है, और भूख पेट से जुड़ी है। आत्मा की इन तीनों योग्यताओं-क्षमताओं का एक-एक 'आदर्श' या 'सद्गुण' भी है। तर्क की कामना बुद्धिमत्ता प्राप्त करने की है, इच्छा हिम्मत होना चाहती है, और भूख पर अंकुश लगना चाहिए ताकि आत्म-नियन्त्रण बरता जा सके। जब शरीर के तीनों भाग मिलकर काम करते हैं तभी हमें समन्वयपूर्ण अववा 'सद्गुणी' व्यक्ति मिलता है। स्कूल में बच्चे को पहले अपनी भूख कम करना सीखना चाहिए, फिर इसे हिम्मत का विकास करना चाहिए और तब अन्त में तर्क बुद्धिमत्ता तक ले जाता है।

अफलातून अब ऐसे राज्य की कल्पना करता है जो मानव शरीर के इन त्रिपक्षीय गुणों से बिलकुल मिलता-जुलता है। जहाँ शरीर में सिर, सीना और पेट होता है वहीं राज्य में शासक, सहायक और श्रमिक (उदाहरणार्थ, कृषक) होते हैं। यहाँ अफलातून साफतौर पर यूनानी चिकित्सा विज्ञान का प्रयोग मॉडल के रूप में करता है। जैसे एक स्वस्थ और समन्वयपूर्ण व्यवित सन्तुलन और आत्म-नियन्त्रण दिखलाता है, उसी प्रकार 'सद्गुणी' राज्य में हर व्यक्ति राज्य के समग्र चित्र में अपने स्थान को जानता है।

अफलातून के दर्शन के प्रत्येक पहलू की भाँति ही उसका राजनीतिक दर्शन तर्कवाद का लक्षण लिये हुए है। एक अच्छे राज्य का निर्माण इसके तर्क द्वारा शासित होने पर निर्भर करता है। जिस प्रकार सिर सारे शरीर पर शासन करता है, उसी प्रकार दार्शनिकों को समाज पर राज्य करना चाहिए।

आइए, मनुष्य के तीन अंगों और राज्य के अंगों के बीच रिश्ते का एक सरल सा उदाहरण बनाते हैं :

शरीर                 आत्मा                 सद्गुण                   राज्य
            
सिर                   तर्क                  बुद्धिमत्ता               शासक

सीना (वक्ष)       इच्छा                  हिम्मत                 सहायक

पेट                   भूख              आत्म-नियन्त्रण          श्रमिक
                          
                                 
अफलातून का आदर्श राज्य हिन्दू जाति प्रणाली जैसा नहीं है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की एक सुनिश्चित भूमिका थी, सबकी भलाई के लिए काम करने की। यहाँ तक कि अफलातून के समय से पहले हिन्दू वर्ण व्यवस्था (प्रणाली) में श्रम अथवा कार्य-विभाजन त्रिकोणीय था, अर्थात् सहायक जाति (या पुजारी जाति), योद्धा जाति और श्रमिक जाति के बीच। आजकल हम सम्भवतः अफलातून के राज्य को अधिनायकीय (डिक्टेटरशिप) कहेंगे। किन्तु यह बात उल्लेखनीय है कि उसका विश्वास था कि स्त्रियाँ भी पुरुषों के समान ही प्रभावी रूप से मात्र इस कारण शासन कर सकती थीं कि शासक लोग अपने तर्क के गुण के आधार पर शासन करते हैं। उसने जोर देकर कहा था कि स्त्रियों में बिलकुल पुरुषों जैसी ही तर्क शक्ति होती है; शर्त केवल यह है कि उन्हें भी पुरुषों जैसा ही प्रशिक्षण मिलना चाहिए और उन्हें बच्चों के पालन-पोषण तथा घर के रख-रखाव से मुक्त किया जाना चाहिए। अफलातून के आदर्श राज्य में शासकों और योद्धाओं को पारिवारिक जीवन की अनुमति नहीं है और न ही वे निजी सम्पत्ति रख सकते हैं। बच्चों का पालन-पोषण इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसे व्यक्ति पर नहीं छोड़ा जा सकता है और यह कार्य करना राज्य का उत्तरदायित्व होना चाहिए। (अफलातून पहला दार्शनिक था जिसने राज्य द्वारा प्रायोजित नर्सरी स्कूलों और पूर्णकालिक शिक्षा की वकालत की)।

कई बड़ी-बड़ी राजनीतिक पराजयों के बाद, अफलातून ने लॉज (कानून) लिखे, जिनमें उसने 'सवैधानिक राज्य' का सर्वश्रेष्ठ राज्य के लगभग आसपास श्रेष्ठ राज्य होने का वर्णन किया। अब उसने पुनः निजी सम्पत्ति और पारिवारिक सम्बन्धों को स्थान दिया। इस प्रकार स्त्रियों की स्वतन्त्रता अपेक्षाकृत अधिक सीमित हो गई। किन्तु उसने साथ ही साथ यह बात भी कही कि जो राज्य स्त्रियों को शिक्षित एवं प्रशिक्षित नहीं करता वह उस आदमी जैसा है जो केवल अपनी दाई बाँह की ही कसरत करता है।

कुल मिलाकर और यह ध्यान में रखते हुए कि अफलातून जिन परिस्थितियों और समय में रह रहा था, यह कहा जा सकता है कि उसके स्त्री सम्बन्धी विचार सकारात्मक हैं। अपने डायलॉग सिम्पोजियम में डायोतिमा नामक प्रख्यात पुजारिन यानी एक स्त्री का वह यह कहकर सम्मान करता है कि उसने सुकरात को दार्शनिक अन्तर्दृष्टि प्रदान की थी।

अच्छा, यह था अफलातून, सोफी! उसकी आश्चर्यजनक धारणाओं को दो हजार वर्षों से अधिक समय से चर्चा एवं आलोचना का विषय बनाया जाता रहा है। प्रथम आलोचकों में उसकी अपनी एकेडेमी से उसका अपना एक शिष्य था। उसका नाम अरस्तू था, और वह एथेंस का तीसरा महान दार्शनिक है।

(और ज्यादा मैं कुछ नहीं कहूँगा)

जब सोफी अफलातून के विषय में पढ़ रही थी, तब जंगल में पूरब में सूरज काफी ऊपर चढ़ आया था। सूरज क्षितिज पर वैसे ही झाँक रहा था, उसके पढ़ने के समय जिस प्रकार गुफा में से दीवार पर चढ़कर बाहर निकलता व्यक्ति बाहर की चमचमाती रोशनी में अपनी पलक झपका रहा था।

ये लगभग ऐसा था मानो वह स्वयं जमीन के नीचे किसी गुफा से निकलकर आई हो। सोफी ने महसूस किया कि अफलातून को पढ़ने के बाद वह प्रकृति को बिलकुल दूसरे ही तरीके से देख रही थी। उसे लगा जैसे वह रंगों को पहचान नहीं पा रही है। उसने कुछ परछाइयाँ ही देखी थीं, किन्तु उसने स्पष्ट विचार नहीं देखे थे।

सोफी यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकती थी कि शाश्वत विचारों अथवा रूप-संरचनाओं/आकारों के विषय में अफलातून ने जो कहा है, वह उन सब चीजों के विषय में सही था, किन्तु उसे यह विचार सुन्दर लगा कि सारी सजीव वस्तुएँ विचार-जगत में शाश्वत रूपाकारों की अपूर्ण प्रतियाँ थीं। क्योंकि क्या यह सच नहीं था कि सारे फूल, पेड़, मानव और जानवर अपूर्ण या 'इम्परफैक्ट' थे।

उसके चारों तरफ हर चीज इतनी सुन्दर और इतनी सजीव थी कि उन पर विश्वास करने के लिए सोफी को अपनी आँखें मलनी पड़ीं। किन्तु जिन्हें वह देख रही थी उनमें से कोई भी चीज स्थायी या हमेशा बनी रहनेवाली नहीं थी। किन्तु फिर भी अब से सौ साल बाद भी उसी तरह के फूल और उसी तरह के जानवर फिर यहाँ होंगे। और भले ही एक-एक फूल मुरझा जाए और प्रत्येक जानवर मर जाए और भुला दिया जाए, फिर भी कोई चीज बनी रहेगी जो यह 'याद रखेगी' कि ये कैसे दिखते थे।

सोफी ने बाहर की दुनिया को टकटकी लगाकर देखा। अचानक एक गिलहरी दौड़ती आई और चीड़ के पेड़ के तने से होती हुई ऊपर चढ़ गई। उसने तने के दो-तीन चक्कर लगाए और फिर शाखाओं में खो गई।

'मैंने तुम्हें पहले देखा है,' सोफी ने सोचा। उसने महसूस किया, हो सकता है यह वह गिलहरी नहीं थी जिसे उसने पहले देखा था, किन्तु उसने बिलकुल ऐसा ही 'रूपाकार' देखा था। हो सकता है, अफलातून सही था। हो सकता है उसने वास्तव में शाश्वत 'गिलहरी' को पहले देखा था-विचारों की दुनिया में, उस समय से पहले जब उसकी आत्मा ने शरीर में अपना निवास बनाया था।

क्या यह सच हो सकता है कि वह पहले कभी रही हो? क्या उसकी आत्मा एक शरीर पा जाने और इसमें विचरण करने से पहले विद्यमान थी? और क्या यह भी वास्तव में सही था कि वह अपने अन्दर एक छोटी-सी, सुनहरी मणि लिये घूम रही थी-एक हीरा जिसे समय किसी भी प्रकार कुतर नहीं सकता, एक आत्मा जो उस समय भी रहेगी जब हम बूढ़े हो जाएँगे और मर जाएँगे?