Sofi ka Sansaar - 7 in Hindi Philosophy by Anarchy Short Story books and stories PDF | सोफी का संसार - भाग 7

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सोफी का संसार - भाग 7

सुकरात
सबसे बुद्धिमान वह (स्त्री) है जो यह जानती है कि उसे कुछ नहीं मालूम...

सोफी ने गर्मियों की पोशाक पहन ली और जल्दी से रसोई में जा पहुँची। उसकी माँ रसोई की मेज के बराबर खड़ी थी। सोफी ने निश्चय किया कि वह रेशमी स्कॉर्फ के बारे में कोई बात नहीं करेगी।

'आप अखबार लाई?' उसने पूछा।

उसकी माँ उसकी ओर मुड़ीं।

'जरा तुम ले आओ, मेरे लिए?'

पलक झपकते ही सोफी दरवाजे से बाहर निकल गई और बजरी बिछे रास्ते से होती हुई मेल-बॉक्स के पास जा पहुँची।

केवल अखबार। वह इतनी जल्दी उत्तर की आशा नहीं कर सकती, उसने अनुमान लगाया। अखबार के पहले पृष्ठ पर उसने लेबनान में नॉर्वे की यू.एन. बटालियन के विषय में कुछ पढ़ा।

यू.एन. बटालियन... क्या हिल्डे के पिता द्वारा भेजे कार्ड पर यह डाक का निशान नहीं था? किन्तु डाक टिकट नॉर्वे के ही थे। हो सकता है कि नॉर्वे के यू.एन. सिपाहियों के पास अपना पोस्ट ऑफिस हो।

'आजकल अखबार में तुम्हारी रुचि बहुत बढ़ती जा रही है,' उसकी माँ ने सोफी के रसोईघर में लौटने पर बड़े रूखे स्वर में कहा।

गनीमत यह रही कि उस दिन न तो नाश्ते की मेज पर और न ही दिन में बाद मैं उसने मेल-वॉक्सों या उनमें रखी चीजों के बारे में कोई जिक्र किया। जब वह खरीदारी के लिए निकल गई, तो सोफी नियतिवाले अपने पत्र को अपने साथ माँद में ले गई।

उसे बिस्किट के डिब्बे के बराबर में दार्शनिक के अन्य पत्रों के साथ ही एक छोटा सफेद लिफाफा देखकर आश्चर्य हुआ। सोफी अच्छी तरह जानती थी कि उसने यह वहाँ नहीं रखा था।

यह लिफाफा भी किनारों पर गीला था। और इसमें कई गहरे गड्ढे थे, वैसे ही जैसे कल प्राप्त हुए पत्र में थे।

क्या दार्शनिक यहाँ तक पहुँच गया है? क्या उसे उसके छिपने की माँद का भी पता है? लिफाफा गीला क्यों था?

इन सब सवालों से उसका सिर चकराने लगा। उसने पत्र खोला और लिखा हुआ

नोट पढ़ा :

प्रिय सोफी! मैंने तुम्हारा पत्र बड़े मन से पढ़ा और कुछ अफसोस के साथ भी। मैं तुम्हें निमन्त्रण के विषय में दुर्भाग्यवशात् निराश करूँगा। हम एक दिन मिलेंगे, किन्तु इसमें अभी कुछ समय लगेगा और उसके बाद ही मैं स्वयं कैप्टेन बैन्ड्ड आ सकूँगा।

साथ ही एक बात और बतला दूँ कि तुम तक पत्र पहुँचाने के लिए अब मैं स्वयं नहीं आ पाऊँगा। दूरन्देशी के लिहाज से इसमें खतरा ज्यादा है। भविष्य में मेरा छोटा सन्देशवाहक पत्र तुम तक पहुँचाएगा। अब वे सीधे बाग में तुम्हारी माँद के अड्डे पर पहुँचा दिए जाएँगे।

जब भी तुम जरूरत समझो, मुझसे सम्पर्क कर सकती हो। जब भी तुम ऐसा करना चाहो, तब एक गुलाबी लिफाफे के साथ कुकी या चीनी की एक डली रख देना। जब भी सन्देशवाहक कुछ ऐसा पाएगा तो वह इसे लेकर सीधा मेरे पास आएगा।

पुनश्च : एक युवा महिला के कॉफी के निमन्त्रण को ठुकराना अच्छा तो नहीं लगता, किन्तु कभी-कभी यह आवश्यक हो जाता है।

पुनः पुनश्च: यदि तुम्हें कहीं कोई लाल रेशमी स्कॉर्फ मिले तो उसका ध्यान रखना। कभी-कभी व्यक्तिगत चीजें इधर-उधर गड्ड-मड्ड हो जाती हैं। खासतौर पर स्कूल या ऐसी ही जगहों पर और यह दर्शनशास्त्र का स्कूल है।

                                                                                     तुम्हारा

                                                                           ऐल्बर्टो नॉक्स

सोफी अब लगभग पन्द्रह वर्षों की हो गई है और अपनी इस छोटी आयु में उसने बहुत सारे पत्र प्राप्त किए हैं। कम-से-कम क्रिसमस के और जन्मदिन के। किन्तु अब तक मिले पत्रों में यह पत्र सबसे अजीब था।

इस पर कोई डाक मुहर नहीं थी। इसे मेल-बॉक्स तक में नहीं डाला गया था। यह तो सीधे-सीधे पुरानी बाड़ से सोफी के प्रिय अड्डे पर पहुँचा दिया गया था। और वसन्त के सूखे मौसम में भी इसके किनारों का गीला होना इसे सबसे अजीबो-गरीब बना रहा था।

और सबसे विचित्र चीज तो रेशमी स्कॉर्फ था, निश्चय ही दार्शनिक का कोई और भी शिष्य होगा। यह ही बात है। और इस अन्य शिष्य का लाल रेशमी स्कॉर्फ खो गया होगा। किन्तु वह इसे सोफी के बिस्तर के नीचे कैसे खो सकती है?

और ऐल्बर्टो नॉक्स... ये कैसा नाम है?

हाँ, एक बात तो पक्की, पुष्ट हो गई थी-हिल्डे मोलर नैग और दार्शनिक के बीच सम्बन्ध। किन्तु यह कि हिल्डे का पिता स्वयं पतों के बारे में विभ्रमित में था-यह बिलकुल समझ में नहीं आ रहा था।

सोफी बैठ गई और देर तक सोचती रही कि उन दोनों के बीच यानी उसके और हिल्डे के बीच क्या सम्बन्ध सम्भव है। आखिर में उसने यह सब सोचना छोड़ दिया, उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। दार्शनिक ने लिखा था कि एक दिन वह दार्शनिक से मिलेगी। शायद वह हिल्डे से भी मिले।

उसने पत्र को उलटकर दूसरी ओर देखा। उसने अब देखा कि पीछे की ओर भी कुछ वाक्य लिखे हुए हैं :

क्या स्वाभाविक शालीनता जैसी कोई चीज है?
सबसे बुद्धिमान वह (स्त्री) है जो यह जानती है कि उसे कुछ नहीं मालूम...
सच्ची अन्तर्दृष्टि अन्दर से ही आती है।
जिसे सही चीज मालूम है वह सही काम ही करेगा।

सोफी अब तक जान गई थी कि सफेद लिफाफे में आनेवाले ये छोटे वाक्य अगले बड़े लिफाफे की तैयारी के लिए हैं, जो इसके बाद शीघ्र ही आनेवाला था। अचानक एक विचार उसके दिमाग में आया। यदि 'सन्देशवाहक' उसके अड्डे पर ब्राउन लिफाफा देने आता है तो सोफी वहाँ बैठकर उसकी प्रतीक्षा कर सकती है। या क्या यह एक लड़की थी? जो भी हो लड़की या लड़का, वह निश्चित रूप से उसकी ताक में रहेगी और उससे दार्शनिक के विषय में और जानकारी लेकर ही मानेगी। पत्र कहता था कि 'सन्देशवाहक' छोटा-सा है। क्या यह बच्चा हो सकता है?

'क्या स्वाभाविक शालीनता जैसी कोई चीज है?'

सोफी जानती थी कि 'शालीनता' एक पुराने फैशन का शब्द है लज्जा के लिए-उदाहरण के लिए, नंगे होने के विषय में। किन्तु क्या इस बारे में सकते में आ जाना वास्तव में स्वाभाविक था? यदि कोई चीज स्वाभाविक है, तो उसका मानना था कि वह सभी के लिए एक जैसी ही होगी। दुनिया के कई भागों में नंगा रहना या होना पूरी तरह स्वाभाविक माना जाता है। इसका मतलब यह हुआ कि समाज निर्धारित करता है कि आप क्या कर सकते हैं और क्या नहीं कर सकते। जब दादी माँ जवान थी तब आप शरीर के ऊपरी भाग से कपड़े उतारकर (यानी टॉपलेस होकर) धूप सेवन नहीं कर सकते थे। किन्तु आज इसे अधिकांश लोग 'स्वाभाविक' मानते हैं, हालाँकि बहुत सारे देशों में इस पर अभी भी सख्त पाबन्दियाँ हैं। क्या यही दर्शनशास्त्र था? सोफी अनुमान लगा रही थी।

अगला वाक्य था : 'सवसे बुद्धिमान वह (स्त्री) है जो यह जानती है कि उसे कुछ नहीं मालूम।'

किससे अधिक बुद्धिमान ? यदि दार्शनिक का मतलब ऐसी स्त्री थी जो यह महसूस करती थी कि दुनिया में उसे कुछ नहीं मालूम तो वह उससे अधिक बुद्धिमान थी जो कुछ थोड़ा-बहुत जानती थी, किन्तु फिर भी यह सोचती थी कि उसे तो बहुत कुछ आता है-ठीक है, इससे सहमत होने में तो कोई कठिनाई नहीं थी। सोफी ने इस बात पर पहले कभी विचार नहीं किया था। किन्तु उसने जितना ही अधिक सोचा, उतना हीं यह बात उसे साफ दिखने लगी कि अपने अज्ञान का ज्ञान भी ज्ञान है। सबसे अधिक मूर्खतापूर्ण तो उसे यह लगा कि ऐसे लोग हैं जो अपने आपको कुछ चीजों के बारे में सर्वज्ञ होने का झूठा विश्वास लेकर काम करते हैं जबकि वे उनके बारे में कुछ नहीं जानते।

अगला वाक्य सच्ची अन्तर्दृष्टि के विषय में था, जो अन्दर से आती है। किन्तु क्या लोगों के मस्तिष्क में सारा ज्ञान बाहर से नहीं आता? दूसरी ओर, सोफी को वे स्थितियाँ याद आ रही थीं जब उसकी माँ या स्कूल में अध्यापक उसे कुछ ऐसा पढ़ाने की कोशिश कर रहे थे जिसे उसका दिमाग ग्रहण करने को तैयार नहीं था। और जब भी उसने कुछ सीखा, ऐसा तभी हुआ जब उसने सीखने के लिए कुछ योगदान स्वयं किया था।

यदा-कदा, ऐसा भी हुआ है कि कोई विषय जिसके बारे में वह बिलकुल कोरी थी, अचानक समझ में आ गया। शायद यह ही वह योग्यता या कुशलता थी जिसे लोग 'अन्तर्दृष्टि' कहते थे।

चलो, यहाँ तक तो ठीक है। सोफी सोच रही थी कि पहले तीन प्रश्नों पर तो उसने ठीक ही कहा या किया है। किन्तु अगला कथन इतना अजीब था कि वह मुस्कुराए बिना न रह सकी: 'जिसे सही चीज मालूम है वह सही काम ही करेगा।'

क्या इसका मतलब यह था कि जब एक बैंक का लुटेरा बैंक को लूटता है तो ऐसा इसलिए होता है कि वह इससे बेहतर और कुछ नहीं जानता। सोफी ऐसा नहीं सोचती थी।

इसके विपरीत, वह यह भी सोचती थी कि बच्चे और वयस्क, दोनों ही मूर्खतापूर्ण कार्य करते थे और बाद में शायद उन्हें अफसोस भी होता हो, निश्चिततः इसलिए कि उन्होंने अपने स‌द्विचारों की अनसुनी करके ऐसा किया है।

जब वह बैठी हुई सोच रही थी, उसने बाड़ की दूसरी ओर, जंगल के बहुत नजदीक, बाड़ के नीचे उगी घास के सूखे पत्तों में कुछ सरसराहट की आवाज सुनी। क्या यह सन्देशवाहक था? उसका दिल तेजी से धड़कने लगा। ऐसा लगा, कोई जानवर तेज़ी ते साँस लेता हुआ चला आ रहा हो।

अगले क्षण ही एक बड़ा लैब्रेडोर कुत्ता उसकी माँद में घुसता चला आया।

इसके मुँह में एक बड़ा ब्राउन लिफाफा था जो इसने सोफी के पैरों के सामने डाल दिया। यह सब इतनी जल्दी में हुआ कि सोफी को प्रतिक्रिया के लिए भी कोई समय नहीं मिला। अगले ही क्षण वह अपने हाथ में बड़ा लिफाफा लिये बैठी थी और सुनहरी लैब्रेडोर दौड़ता हुआ फिर जंगल की ओर चला गया था।

एक बार जब यह सब हो गया तो उसने प्रतिक्रिया में र।ना शुरू कर दिया। कुछ क्षणों के लिए वह ऐसे ही बैठी रही, उसे समय का कतई भान न था।

फिर उसने अचानक ऊपर की ओर देखा।

तो यह उसका प्रसिद्ध सन्देशवाहक था। सोफी ने राहत की साँस ली। अवश्य ही यही कारण था कि ब्राउन लिफाफे किनारों पर भीगे हुए थे और उनमें छेद तथा गड्ढे थे। उसने यह बात पहले क्यों नहीं सोची? अब इस बात का अर्थ समझ में आया कि दार्शनिक को कुछ लिखकर भेजने के लिए लिफाफे में कुकी या चीनी का ढेला रखना जरूरी क्यों था।

वह हमेशा तो इतनी चुस्त-चालाक नहीं हो सकती थी जितना वह होना चाहती थी, किन्तु क्या इसका अनुमान कोई लगा सकता था कि सन्देशवाहक एक प्रशिक्षित कुत्ता होगा। प्रायः ऐसा होता नहीं है, इसे कितने ही सरल शब्दों में रखें। अब उसे यह तो बिलकुल भूल जाना ही होगा कि ऐल्बर्टो नॉक्स के विषय में साधारण बातें जानने के लिए वह सन्देशवाहक से जोर-जबरदस्ती कर सकती थी।

सोफी ने बड़ा लिफाफा खोला और पढ़ना शुरू कर दिया :

  • एथेंस का दर्शनशास्त्र

प्रिय सोफी !
           जब तुम इसे पढ़ोगी, तो इसके पहले ही हरमीज़ से मिल चुकी होगी। यदि तुम नहीं मिली हो तो मैं तुम्हें बतला दूँ वह एक कुत्ता है। किन्तु परेशान होने की जरूरत नहीं है। उसका स्वभाव बहुत अच्छा है और इससे भी बड़ी बात यह है कि वह बहुत से लोगों से कहीं अधिक बुद्धिमान है। खैर, वह किसी भी हालत में, जितना बुद्धिमान है उससे अधिक दिखने की कोशिश नहीं करता।

तुम यह भी नोट कर लो, उसे यह नाम यूँ ही नहीं दिया गया है।

यूनानी पौराणिक कथाओं में, हरमीज़ देवताओं का सन्देशवाहक था। इसके अलावा वह समुद्री यात्राएँ करनेवालों का देवता भी था; किन्तु हमें अभी उसकी चिन्ता नहीं, कम-से-कम इस समय । अधिक महत्त्व इस बात का है कि हरमीज़ ने अपना नाम 'हरमेटिक' (Hermetic) शब्द को दिया, जिसका अर्थ होता है-गुप्त अथवा दुर्गम और यह अनुचित भी नहीं है क्योंकि देखो हरमीज़ किस तरह हम दोनों को एक-दूसरे से गुप्त रख रहा है।

अब सन्देश ाहक का तो मैंने तुमसे परिचय करा दिया। यदि उसका नाम पुकारो, तो स्वाभाविक है कि वह उत्तर देगा और कुल मिलाकर उसका व्यवहार अच्छा, बढ़िया है।

चलिए फिर दर्शनशास्त्र की ओर चलते हैं। कोर्स का पहला भाग तो हमने पहले ही पूरा कर लिया है। मैं प्राकृतिक दार्शनिकों और उनके उस निर्णायक मोड़ की ओर इशारा कर रहा हूँ जब उन्होंने पौराणिक कथाओं की विश्वव्यापी तसवीर से नाता तोड़ लिया। अब हम तीन महान शास्त्रीय (क्लासिकल) दार्शनिकों-सुकरात, अफलातून (प्लेटो) और अरस्तू (अरिस्टोटल) से मिलने जा रहे हैं। इन तीनों दार्शनिकों ने, हर एक ने, अपने-अपने ढंग से पूरी यूरोपीय सभ्यता को प्रभावित किया है।

प्राकृतिक दार्शनिकों को सुकरात-पूर्व दार्शनिक भी कहा जाता है, क्योंकि वे सुकरात से पहले हुए थे। यद्यपि डिमॉक्रिटस की मृत्यु सुकरात के कुछ वर्षों बाद हुई, किन्तु उसके विचार सुकरात-पूर्व प्राकृतिक दर्शनशास्त्र के हैं। सुकरात एक नए युग का प्रतिनिधि है, सभी तरह से, भौगोलिक एवं सामयिक रूप से भी। वह उन महान दार्शनिकों में से एक था जिनका जन्म एथेंस में हुआ था, वह और उसके दो उत्तरवर्ती दार्शनिक वहाँ पैदा हुए थे, रहे थे और वहाँ काम करते थे। करते थे। तुम्हें याद होगा कि ऐनेक्सागोरस भी एथेंस में कुछ समय रहा था, किन्तु उसके द्वारा सूरज को लाल- गरम-पत्थर कह देने के कारण लोग उसके पीछे पड़ गए और उसे वहाँ से निकालकर ही दम लिया। (सुकरात का हाल तो इस से भी बुरा हुआ)

सुकरात के समय में एथेंस यूनानी सभ्यता का केन्द्र था। दार्शनिक जिज्ञासा (प्रोजेक्ट) के स्वरूप में भी प्राकृतिक दार्शनिकों से सुकरात की ओर बढ़ते हुए जो परिवर्तन हुए वे ध्यान देने योग्य हैं। किन्तु सुकरात से मुलाकात करने से पहले आइए थोड़ा सा तथाकथित सोफिस्टों को सुनते हैं। ये लोग सुकरात के समय में एवेंस के परिदृश्य पर छाए हुए थे।

परदा उठता है, सोफी! विचारों का इतिहास भी कई अंकों के नाटक जैसा ही है।

  • केन्द्रविन्दु : आदमी

लगभग 450 वर्ष ई.पू. के बाद के समय में एथेंस यूनानी दुनिया का सांस्कृतिक केन्द्र था। इस समय से दर्शनशास्त्र ने एक नई दिशा पकड़ी।

प्राकृतिक दार्शनिक मुख्यतः भौतिक जगत के स्वरूप से सरोकार रखते थे। इससे उनका विज्ञान के विकास के इतिहास में केन्द्रीय स्थान बन जाता है। एथेंस में अब व्यक्ति, और समाज में व्यक्ति के स्थान पर ध्यान दिया जा रहा था। धीरे-धीरे प्रजातन्त्र का विकास हुआ, इसके साय लोकप्रिय विधानसभाएँ और कानून की अदालतें भी आई।

प्रजातन्त्र काम कर सके, इसके लिए एवेन्स के नागरिकों को शिक्षित किया जाना वा ताकि वे प्रजातन्त्रीय प्रक्रिया में भाग ले सकें। हमने स्वयं अपने समय में देखा है कि किसी युवा प्रजातन्त्र को किस प्रकार व्यापक प्रबोधन की आवश्यकता है। एथेंसवासियों के लिए प्रथम एवं सर्वाधिक आवश्यक वक्तृत्व कला. थी, जिसका अर्थ हुआ अपनी बात विश्वसनीय यानी युक्तियुक्त तरीके से कहना।

यूनानी उपनिवेशों से घुमन्तू अध्यापकों और दार्शनिकों का एक समूह एथेंस पहुँचा। वे अपने आपको सोफिस्ट्स कहते थे। 'सोफिस्ट' (Sophist) का अर्थ एक बुद्धिमान और जानकार व्यक्ति होता है। एर्वेस में लोगों से शिक्षा के बदले पैसा लेकर सोफिस्ट्स अपनी आजीविका चलाते थे।

सोफिस्ट्स का एक घारित्रिक लक्षण प्राकृतिक दार्शनिकों के समान था : वे परम्परागत पौराणिक गावाओं के बड़े आलोचक थे। किन्तु इसके साथ ही सोफिस्ट बेकार दार्शनिक चिन्तन को भी अस्वीकार करते थे। उनकी राय थी कि दार्शनिक प्रश्नों के उत्तर यद्यपि हो सकते हैं, फिर भी मनुष्य के लिए प्रकृति और ब्रह्मांड की पहेलियों के विषय में सत्य जान पाना सम्भव नहीं है। दर्शनशास्त्र में इस प्रकार के मत को संशयवाद कहा जाता है।

भले ही हम प्रकृति की सारी पहेलियों के उत्तर न जानते हों, फिर भी हमें मालूम है कि लोगों को एक साथ रहना सीखना है। सोफिस्ट्स ने फैसला किया कि वे समाज में मनुष्य की स्थिति तया स्थान पर निरन्तर निगाह बनाए रखेंगे।

सोफिस्ट प्रोटागोरस (485-410 ई.पू.) ने कहा, 'सभी चीजों का मानदंड अथवा पैमाना मनुष्य है।' इस वक्तव्य से उसका अभिप्राय था: कोई चीज सही है या गलत, अच्छी है या बुरी यह प्रश्न हमेशा ही आदमी की जरूरतों के सन्दर्भ में विचारा जाना चाहिए। जब उससे यह पूछा गया कि क्या वह यूनानी देवताओं में विश्वास रखता है, उसने कहा, 'प्रश्न जटिल है और जीवन छोटा है।' ऐसे आदमी को, जो दो-टूक यह नहीं बतला सकता कि ईश्वर या देवताओं का अस्तित्व है कि नहीं, एग्नॉस्टिक या अज्ञेयतावादी कहा जाता हैं।

सोफिस्ट्स वे लोग थे जिन्होंने सामान्यतः व्यापक यात्राएँ की थीं और विभिन्न प्रकार की सरकारें देखी थीं। नगर-राज्यों में परम्पराएँ और स्थानीय कानून दोनों ही बहुत भिन्न हो सकते थे। इस आधार पर सोफिस्ट विचारकों ने यह प्रश्न उठाया कि प्राकृतिक क्या है और समाजजनित क्या है? ऐसा करके उन्होंने एथेंस के नगर-राज्य में सामाजिक आलोचना का रास्ता तैयार कर दिया।

उदाहरण के लिए, वे यह बता सकते थे कि 'स्वाभाविक शालीनता' जैसी अभिव्यक्ति सदैव रक्षणीय नहीं होती, क्योंकि यदि शालीन होना 'स्वाभाविक' है तो इसका अर्थ हुआ कि आप इसे लेकर जन्मे हैं, या यह कोई सहज गुण है। किन्तु सोफी! क्या यह वास्तव में अन्तःजात है-या यह समाजजनित है? इसका उत्तर, किसी ऐसे आदमी के लिए जो दुनिया भर में घूमा है, बड़ा सरल होना चाहिए : आप जब स्वयं को नंगा दिखाते हुए डरते हैं तो यह 'स्वाभाविक'- या अन्तःजात नहीं होता। शालीनता-या इसका अभाव-प्रथम और मुख्यतः सामाजिक परिपाटी का मामला है।

जैसे तुम स्वयं कल्पना कर सकती हो, घुमक्कड़ सोफिस्टों ने एथेंस में यह बतलाकर एक कड़वाहटपूर्ण बहस पैदा कर दी कि सही क्या है या गलत क्या है। इसके बिना शर्त के या पूरी तरह के कोई अबाध प्रतिमान नहीं है।

सोफिस्ट्स के विपरीत सुकरात ने यह दिखलाने की चेष्टा की कि इस तरह के कुछ प्रतिमान वास्तव में हैं, सम्पूर्ण है और वे विश्वव्यापी स्तर पर वैध हैं।

  • सुकरात कौन था?

दर्शनशास्त्र के सम्पूर्ण इतिहास में सम्भवतः सुकरात (470-399 ई.पू.) का व्यक्तित्व सबसे बड़ी पहेली है। उसने कभी एक पंक्ति भी नहीं लिखी। फिर भी वह उन दार्शनिकों में से एक है जिन्होंने यूरोपीय विचार परम्परा पर सबसे गहरा प्रभाव छोड़ा है; इसमें उसकी मृत्यु के नाटकीय ढंग का भी कम योगदान नहीं है।

हमें मालूम है कि उसका जन्म एथेंस में हुआ था और यह भी कि उसने अपना अधिकांश जीवन शहर में चौराहों पर और बाजारों में मिलनेवाले लोगों से बात करने में बिताया। उसके कयनानुसार, "गाँवों के पेड़ उसे कुछ नहीं सिखा सकते थे।" वह लम्बे समय तक निरन्तर अपने विचारों में खोया हुआ खड़ा रह सकता था।

एक बात हम विलकुल निश्चयपूर्वक जानते हैं कि वह अत्यधिक बदशक्ल था। उसका पेट निकला रहता था, उसकी आँखें भी बाहर को आती लगती थीं और उसकी नाक चपटी थी। किन्तु कहा जाता है कि अन्दर से वह 'पूरी तरह आनन्दमय' था। उसके विषय में कहा जाता था कि 'आप उसे वर्तमान में ढूँढ़ सकते हैं, आप उसे अतीत में ढूँढ़ सकते हैं, किन्तु आप उस जैसा (दूसरा) नहीं पा सकते।' फिर भी उसके दार्शनिक क्रिया-कलापों यानी विमर्श-वार्ताओं के लिए उसे मृत्युदंड दिया गया।

सुकरात के जीवन की जानकारी हमें अफलातून के लेखों से मिलती है, जो उसके शिष्यों में से एक था और जो स्वयं चिरन्तन महान दार्शनिकों में से एक बन गया। अफलातून ने कई डायलॉग (संवाद) अथवा दर्शनशास्त्र पर नाटकीय चर्चाएँ लिखीं, जिनमें वह सुकरात को अपने मुख्य पात्र और प्रवक्ता की तरह प्रस्तुत करता है।

चूँकि अफलातून अपना दर्शन सुकरात के मुँह से कहलाता है, इसलिए निश्चयपूर्वक हम नहीं कह सकते कि इन संवादों (डायलॉग्स) में प्रयोग किए शब्द कभी वास्तव में उसने (सुकरात ने) बोले थे। इसलिए यह काम आसान नहीं है कि सुकरात की शिक्षाओं और अफलातून के दर्शन को अलग-अलग करके देखा या पहचाना जा सके। बिलकुल यही समस्या कई उन ऐतिहासिक व्यक्तियों के साथ भी आती है जिन्होंने अपना लिखा हुआ वर्णन हमारे लिए नहीं छोड़ा। एक सुन्दर उदाहरण निश्चय ही यीशु का है। हम यह वात निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते हैं कि मैथ्यू या ल्यूक ने जो शब्द यीशु के मुख में रखे हैं, वे वास्तव में 'ऐतिहासिक' यीशु ने बोले थे। इसी प्रकार 'ऐतिहासिक' सुकरात ने जो भी कहा हो वह हमेशा ही रहस्य के पीछे छिपा रहेगा।

किन्तु सुकरात 'वास्तव' में कौन था, यह अपेक्षाकृत महत्त्वहीन है। अफलातून द्वारा सुकरात की जो तसवीर पेश की गई है उसने पाश्चात्य जगत के विचारकों को पिछले 2500 वर्षों से प्रेरणा दी है।

  • विमर्श एवं बहस की कला

सुकरात की कला का सार इसमें है कि वह लोगों को शिक्षा देता नहीं दिखता। इसके विपरीत वह यह प्रभाव छोड़ता है कि जिन लोगों से वह बात करता था, वह उनसे कुछ सीखने की इच्छा रखता है। एक पारम्परिक स्कूल मास्टर की तरह भाषण देने के बजाय, वह चर्चा करता था, विचारों का आदान-प्रदान करता था।

यह बात भी स्पष्ट है कि यदि वह स्वयं को दूसरों की बात सुनने तक सीमित रखता, तो वह इतना ख्यात दार्शनिक नहीं हो सकता था। और न ही उसे मृत्युदंड दिया जाता। किन्तु वह केवल प्रश्न पूछता था, खासतौर से बातचीत शुरू करने के लिए, ऐसे मानो वह कुछ नहीं जानता। चर्चा के दौरान वह सामान्यतः अपने विरोधियों को उनके तकों की कमजोरी पहचानने में सहायता करता और जब वे सुकरात के तर्कों में फँस जाते तो वे यह ढूँढ़ने के लिए अन्ततः वाध्य होते थे कि सही क्या है और गलत क्या है।

सुकरात, जिसकी माँ एक दाई (मिडवाइफ) थी, कहा करता था कि उसकी कला मिडवाइफ की कला जैसी है। वह स्वयं किसी बच्चे को जन्म नहीं देती, किन्तु वह उपस्थित रहकर प्रसव में सहायता करती है। उसी प्रकार, सुकरात ने समझ लिया कि उसका काम लोगों को सही अन्तर्दृष्टि के 'जन्म देने' में सहायता करना है, क्योंकि सही समझ अन्दर से ही आनी चाहिए। बाहर से कोई इसे रोपित या आरोपित नहीं कर सकता। और अन्दर से आनेवाली समझ के द्वारा ही सच्ची अन्तर्दृष्टि तक पहुँचा जा सकता है।

आइए, मैं इसे और स्पष्ट और सही रूप में रख दूँ जन्म देने की क्षमता एक प्राकृतिक लक्षण है। उसी प्रकार यदि लोग अपने अन्तःजात तर्क को प्रयोग करना शुरू कर दें, तो हर आदमी में क्षमता है कि वह दार्शनिक सत्यों को पकड़ सकता है। अपने अन्तःजात तर्क को प्रयोग करने का मतलब है अपने अन्दर गहरे जाना, और यहाँ जो है उसका प्रयोग करना।

अज्ञानी होने का अभिनय करके सुकरात लोगों पर अपने कॉमनर्सेस (सामान्य बुद्धि) प्रयोग करने के लिए जोर डालता था। सुकरात अज्ञानी होने का बहाना या वास्तविकता से अधिक मूक होने का बहाना कर सकता था। हम इसे सुकराती विडम्बना कहते हैं। इसी की सहायता से वह निरन्तर लोगों की सोच की दुर्वलताओं को उजागर कर देता था। यदि आप सुकरात से मिले तो समझ लीजिए आपने अपने आपको सार्वजनिक रूप से मूर्ख बना लिया।

अतः इसमें आश्चर्य नहीं कि जैसे-जैसे समय बढ़ता गया, लोगों ने पाया कि यह तो बहुत ही परेशान करने लगता है, खासतौर से उन लोगों ने जिनका समाज में कुछ ऊँचा स्तर या प्रतिष्ठा थी। 'एवेंस एक धीमा चलनेवाला घोड़ा है,' उसने यह कहने की जुर्रत की, 'और मैं वह लाल ततैया हूँ जो डंक मारकर उसे दौड़ा देता है।'

(हम लाल ततैयों से क्या करते हैं, सोफी?)

  • एक दिव्य स्वर

सुकरात अपने समय के लोगों को इसलिए डंक नहीं मारता था कि वह उन्हें यन्त्रणा देना चाहता है। उसके अन्दर कुछ ऐसी परेशानी थी जिसने उसके लिए कोई अन्य विकल्प छोड़ा ही नहीं था। वह हमेशा कहा करता था कि उसके अन्दर एक 'दिव्य स्वर' है। उदाहरण के लिए, सुकरात इस बात पर घोर विरोध प्रकट करता था कि लोगों को मृत्युदंड देने में उसकी कोई भूमिका है। इसके अतिरिक्त उसने अपने राजनीतिक शत्रुओं के विषय में भी कोई सूचना देने से इनकार कर दिया था। और अन्त में अपना जीवन देकर उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ी।

वर्ष 399 ई.पू. में उस पर 'नए देवता सामने रखने और युवाओं को भ्रष्ट करने' का आरोप लगाया गया। साथ ही यह आरोप भी था कि स्वीकृत देवताओं में उसका अविश्वास है। पाँच सौ व्यक्तियों की जूरी के हलके से बहुमत ने उसे दोषी पाया।

यदि वह चाहता तो नरमाई के लिए अपील कर सकता था। कम-से-कम यह तो हो ही सकता था कि एर्थेस छोड़ने के लिए राजी होकर वह अपना जीवन बचा लेता। किन्तु यदि उसने ऐसा किया होता तो वह सुकरात न होता। उसके लिए अपनी आत्मा और सत्य का मूल्य अपने जीवन से ऊँचा था। उसने जूरी को भरोसा दिलाया कि उसने अपने कार्यों द्वारा राज्य के श्रेष्ठ हितों की रक्षा की है। इसके बावजूद उसे विषपान का दंड दिया गया। उसके कुछ ही समय बाद, उसने अपने मित्रों की उपस्थिति में विषपान किया और मर गया।

क्यों, सोफी? सुकरात को क्यों मरना पड़ा? लोग यह प्रश्न पिछले 2400 वर्षों से पूछते आए हैं। किन्तु, इतिहास में वही एकमात्र ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसने चीजों के आरपार कड़वाहट भरे अन्त तक देखा है और अपने विश्वासों की रक्षा के लिए मृत्यु का वरण कर उसे गले लगा लिया। मैंने यीशु का जिक्र पहले किया है, वास्तव में इन दोनों के बीच कई महत्त्वपूर्ण समानान्तर बातें हैं।

यीशु और सुकरात, दोनों ही पहेली भरे व्यक्तित्व थे, अपने समसामयिकों के लिए भी। दोनों में से किसी ने भी अपने उपदेश स्वयं नहीं लिखे, और इसलिए हम उस तसवीर को स्वीकार करने के लिए बाध्य हैं जो उनके शिष्यों ने बनाई है। किन्तु एक चीज हम जरूर जानते हैं कि दोनों वक्तृत्व कला के उस्ताद थे। दोनों ही एक ऐसे परम आत्मविश्वास से बोलते थे कि वह लोगों को आकृष्ट भी करता था और परेशान भी। और भी बड़ी बात यह कि दोनों इस विश्वास से बोलते थे कि जैसे वे अपने से बड़ी किसी सत्ता की ओर से बोल रहे हैं। उन्होंने हर प्रकार के अन्याय और भ्रष्टाचार की आलोचना करके समाज की सत्ता को चुनौती दी। और अन्त में-उन्हें अपने जौखिम भरे साहसिक कार्यों की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।

यीशु और सुकरात की जाँच के मुकदमों में भी स्पष्ट समानान्तरताएँ दिखती हैं।

दोनों ही क्षमा-याचना करके स्वयं को बचा सकते थे, किन्तु वे दोनों ही यह महसूस करते थे कि वे किसी (महान) उद्देश्य के लिए दुनिया में आए हैं; और यदि वे अपने कड़वाहट भरे अन्त तक अपनी आस्था पर टिके नहीं रहते तो यह उस पवित्र उद्देश्य के प्रति धोखा होगा।

अपनी मृत्यु का इस वीरता से वरण करके उन्होंने बहुत बड़ी संख्या में अपने अनुयायी बना लिये, अनुयायी उनके मरने के बाद और भी बढ़ते गए।

मेरा अभिप्राय यह सुझाव देना बिलकुल नहीं है कि यीशु और सुकरात एक जैसे थे। मैं केवल इस सच्चाई की ओर ध्यान आकर्षित कर रहा हूँ कि दोनों के पास कोई सन्देश था जो उनके निजी साहस के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा था।

  • एथेंस में एक विदूषक

सुकरात, सोफी ! अभी उसकी बातें समाप्त नहीं हुई हैं। हमने उसके तरीके की बात की है। किन्तु उसकी दार्शनिक जिज्ञासा (प्रोजेक्ट) क्या थी?

सुकरात का जीवनकाल और सोफिस्ट्स का समय एक ही है। उन्हीं की तरह, उसकी चिन्ता का विषय प्रकृति की शक्तियाँ न होकर, समाज में मनुष्य का स्थान या भूमिका थे। जैसा कि एक रोमन दार्शनिक, सिसरो ने कई सौ वर्षों बाद कहा, सुकरात 'दर्शनशास्त्र को आकाश से उतारकर नीचे ले आया, उसे कस्बो में स्थापित कर दिया, उसका प्रवेश घरों में करा दिया और दार्शनिकों को बाध्य कर दिया कि दर्शन जीवन, नैतिकता, अच्छाई और बुराई की छानबीन करे।'

एक महत्त्वपूर्ण अर्थ में सुकरात सोफिस्ट्स से नितान्त भिन्न था। वह अपने आपको एक 'सोफिस्ट' यानी एक विद्वान या बुद्धिमान व्यक्ति-नहीं मानता था। वह सोफिस्टों से इस रूप में भी भिन्न था कि वह पैसे के लिए नहीं पढ़ाता था और सुकरात स्वयं को दार्शनिक नहीं कहता था, सच्चे अर्थों में 'दार्शनिक' शब्द का मतलब है 'ऐसा व्यक्ति जो प्रज्ञा/बुद्धिमत्ता से प्रेम करता है।'

सोफी, तुम आराम से तो बैठी हो न? क्योंकि शेष चर्चा के लिए यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि तुम एक फिलॉस्फर (दार्शनिक) और सोफिस्ट के बीच का अन्तर समझ लो। सोफिस्ट्स अपने लगभग बाल की खाल निकालनेवाले आख्यानों के लिए पैसा लेते थे और इस प्रकार के सोफिस्ट्स अत्यन्त पुरातन काल से आते-जाते रहे हैं। मैं इशारा कर रहा हूँ उन सभी स्कूल मास्टरों की ओर, और नेजी राय रखनेवाले 'हम सब कुछ जानते हैं' ऐसे लोगों की ओर, जो अपने थोड़े से ज्ञान से सन्तुष्ट रहते हैं या उन विषयों पर बहुत कुछ जानने की शेखी बघारते हैं जिनके विषय में उनको तनिक भी नहीं मालूम। तुम भी अपने युवा जीवन में सम्भवतः इस प्रकार के कुछ सोफिस्ट्स से मिली होगी। एक सच्चा दार्शनिक, सोफी, एक बिलकुल भिन्न प्रकार की मछली होता है-वास्तव में विल्कुल विपरीत। एक दार्शनिक जानता है कि वास्तव में वह बहुत कम जानता है। यही कारण यही कारण है कि वह निरन्तर सच्ची अन्तर्दृष्टि पाने के लिए प्रयास करता रहता है। सुकरात इसी प्रकार के अनुपम लोगों में से एक था। उसे यह स्पष्ट था कि वह जीवन और दुनिया के विषय में कुछ भी नहीं जानता। और अब आता है वह महत्त्वपूर्ण भाग : वह यह सोचकर दुखी था कि वह कितना कम जानता है।

एक दार्शनिक, अतः कोई ऐसा व्यक्ति होता है जो यह स्वीकार करता है कि वह बहुत सी बातों को नहीं समझता, और यह न समझ पाना उसे कष्ट देता रहता है। इस अर्थ में यह अभी भी उन सब लोगों से अधिक बुद्धिमान है जो उन चीजों के बारे में अपने ज्ञान की डींग हाँकते हैं, जिनके विषय में उन्हें कुछ नहीं आता। 'सबसे बुद्धिमान वह (स्त्री) है जो यह जानती है कि उसे कुछ नहीं आता।' यह ही बात मैंने पहले भी कही थी। सुकरात ने स्वयं कहा था, 'मैं सिर्फ एक चीज जानता हूँ, और वह यह है कि मैं कुछ नहीं जानता।'

इस कथन को याद रखना, क्योंकि यह स्वीकारोक्ति असामान्य है, यहाँ तक कि दार्शनिकों में भी। इसके अलावा सार्वजनिक रूप से यह कहना (स्वीकारना) इतना खतरनाक है कि तुम्हारी जान जा सकती है। सबसे अधिक विनाशकारी वे लोग हैं जो प्रश्न पूछते हैं। उत्तर देने में इतनी धमकी या खतरा नहीं है। कोई एक प्रश्न ही इतना विस्फोटक हो सकता है जितने एक हजार उत्तर शायद कभी न हों।

तुम्हें सम्राट के नए कपड़ोंवाली कहानी मालूम है? सम्राट पूरी तरह नंगा था किन्तु उसकी प्रजा में से कोई भी यह कहने की हिम्मत नहीं कर सकता था। अचानक एक बच्चा खिलखिला उठा, 'किन्तु यह तो कुछ भी पहने हुए नहीं हैं।' वह एक हिम्मतवाला बच्चा था, सोफी। सुकरात की तरह, जिसने लोगों से यह कहने की हिम्मत दिखाई कि हम मानव कितना कम जानते हैं। बच्चों और दार्शनिकों के बीच जो समानता है उसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं।

एकदम संक्षेप में कहें तो मानवता के सामने ऐसे कई कठिन प्रश्न हैं जिनके विषय में हमारे पास कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं है। तो अब दो सम्भावनाएँ हमारे सामने हैं: हम यह बहाना बनाकर स्वयं को और बाकी सारी दुनिया को मूर्ख बना दें कि हम जानने लायक सब चीजों को जानते हैं, या हम मूल मुद्दों के प्रति अपनी आँखें मूंद लें और सारी प्रगति का त्याग कर दें। इस अर्थ में मानवता विभाजित है। यदि लोगों की हम सामान्य रूप से बात करें तो वे या तो पूरी तरह आश्वस्त हैं या पूरी तरह उदासीन। दोनों ही प्रकार के लोग खरगोश की फर के बहुत नीचे इधर-उधर रेंग रहे हैं।

यह ताश के पत्तों को दो ढेरों में बाँटने जैसा है, सोफी। आप एक ढेर में काले पत्ते रखते हैं और दूसरे ढेर में लाल पत्ते। किन्तु समय-समय पर उभरकर एक जोकर सामने आ जाता है जो न तो पान है न चिड़ी, न ईंट और न हुकुम। सुकरात एर्वेस में ऐसा ही एक जोकर था। वह न तो आश्वस्त था और न ही उदासीन। वह तो बस इतना जानता था कि उसे कुछ नहीं मालूम और यह उसे कष्ट देता था। इसलिए वह एक दार्शनिक था। वह एक ऐसा व्यक्ति था जो हार नहीं मानता बल्कि सत्य की अपनी खोज में अथक लगा रहता है।

एक एर्वेसवासी ने डेल्फी की देववाणी से पूछा था कि एथेंस में सबसे बुद्धिमान व्यक्ति कौन है। देववाणी ने उसे बतलाया कि सभी नाशवान प्राणियों में सुकरात सबसे अधिक बुद्धिमान है। जब सुकरात् ने यह बात सुनी तो वह आश्चर्यचकित रह गया, यदि इस बात को हलके रूप में प्रस्तुत किया जाए तो भी। (वह जरूर हैसा होगा, सोफी) वह सीधे उस आदमी के पास गया जिसे शहर शहर में वह और बाकी सब लोग अत्यधिक बुद्धिमान समझते थे। किन्तु जब यह निकला कि यह आदमी सुकरात के कुछ प्रश्नों का सन्तोषजनक उत्तर न दे सका, तो सुकरात ने महसूस किया कि देववाणी सत्य ही कहती थी।

सुकरात महसूस करता था कि हमारे ज्ञान की एक ठोस नींव होनी चाहिए। उसका विश्वास या कि ऐसी नींव मनुष्य के तर्क में समाहित है। मानव तर्क में इस अकम्पनीय आस्या को रखने के कारण ही निश्चय ही वह एक तर्कवादी था।

सही अन्तर्दृष्टि व्यक्तियों को सही कार्य की ओर ले जाती है

जैसा मैंने पहले वर्णन किया है, सुकरात यह दावा करता था कि वह एक आन्तरिक दिव्य आवाज से निर्दिष्ट होता है, और यह कि यह 'आत्मा' उसे बतलाती रहती है कि सही क्या है। 'जो व्यक्ति यह जानता है कि अच्छा क्या है वह अच्छा करेगा,' उसने कहा था।

इससे उसका मतलब था कि सही अन्तर्दृष्टि व्यक्ति को सही कार्य की ओर ले जाती है। और जो आदमी सही काम करता है वही 'गुणवान व्यक्ति' हो सकता है। जब हम गलत काम करते हैं तो ऐसा विवेक की कमी के कारण होता है। इसीलिए यह महत्त्वपूर्ण है कि व्यक्ति सीखता चला चले। सुकरात सही और गलत की स्पष्ट, साफ और सर्वत्र वैघ परिभाषाओं की खोज के लिए निरन्तर चिन्तन करता रहता था। सोफिस्टों के विपरीत उसका मानना था कि सही और गलत के बीच भेद करने की योग्यता लोगों के तर्क में है, समाज में नहीं।

तुम शायद यह सोचो कि यह भाग थोड़ा ज्यादा दुरूह है, सोफी। अच्छा में इसे इस प्रकार सामने रखता हूँ : सुकरात का विचार था कि यदि लोग अपनी शुद्ध बुद्धि के विपरीत आचरण करते हैं, तो वे सम्भवतः कभी सुखी नहीं होंगे। और जो सुख पाने का तरीका जानता है, वह ठीक काम करेगा। इसलिए, जिसे सही ज्ञान है, वह सही काम करेगा। क्योंकि दुखी होना कोई क्यों चाहेगा?

तुम्हारा क्या विचार है, सोफी? क्या तुम ऐसी चीजें करके, जिनके विषय में तुम्हारे अन्दर गहरे कोई तुम्हें बतलाता है कि यह गलत है, सुखी जीवन जी सकती हो? बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो झूठ बोलते हैं, घोखा देते हैं और दूसरों की बुराई करते हैं। क्या वे यह नहीं जानते हैं कि ये चीजें सही नहीं हैं-या यह उचित नहीं है, उनकी राय में। क्या तुम सोचती हो यह लोग सुखी हैं, सोफी ?

सुकरात ऐसे लोगों को सुखी नहीं मानता था।

जब सोफी ने पत्र पढ़ लिया, उसने जल्दी से इसे कुकी टिन में रख दिया और माँद से रेंगती हुई बाहर बाग में आ गई। वह अपनी माँ के खरीदारी करके वापस लौटने से पहले मकान में अन्दर जाना चाहती थी ताकि उससे यह सवाल न पूछा जाए कि वह कहाँ रही थी। और उसने प्लेटें वगैरह साफ करने का वायदा भी तो किया था।

उसने बस सिंक को पानी से भरा ही था कि उसकी माँ खरीदारी के दो बड़े थैलों को घसीटती हुई लड़खड़ाती-सी घर लौटी। शायद इसी कारण उसकी माँ ने कहा, 'इन दिनों तुम किस चीज में खोई रहती हो, सोफी?'

सोफी नहीं समझ पाई कि माँ ऐसे क्यों कह रही है; बस यूँ ही उसके मुँह से निकला;

'सुकरात भी ऐसे ही खोया रहता था।'

'सुकरात ?'

उसकी माँ ने उसकी तरफ आँखें फाड़कर देखा।

'कितने दुख की बात है कि परिणामस्वरूप उसे मरना पड़ा,' विचारमग्न सोफी सोचती हुई बोलती चली गई।

'हे भगवान, सोफी! मेरी तो समझ में ही नहीं आ रहा क्या करूँ?'

'सुकरात की समझ में भी नहीं आता था। उसे तो बस इतना मालूम था कि उसे कुछ नहीं आता। और फिर भी वह एथेंस में सबसे बुद्धिमान आदमी था।'

उसकी माँ अब अवाक् थी।

अन्त में उसने कहा, 'क्या यह सब तुमने स्कूल में सीखा है?'

सोफी ने जोर से सिर हिलाकर मना कर दिया।

'हम वहाँ कुछ भी नहीं सीखते। स्कूल अध्यापक और दार्शनिकों के बीच अन्तर यह है कि स्कूल अध्यापक सोचते हैं कि उनके पास बहुत सारा ज्ञान है और उसी को हमारे गले में दूँसते रहते हैं। दार्शनिक अपने शिष्यों के साथ मिलकर सत्य को ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं।'

'अच्छा, अब हम फिर सफेद खरगोशों पर वापस पहुँच गए ! तुम कुछ जानती हो? मैं यह जानना चाहती हूँ कि तुम्हारा लड़का-मित्र वास्तव में कौन है? नहीं तो मैं यह सोचने लगूँगी कि वह थोड़ा सा परेशान है।'

सोफी ने प्लेटों की तरफ अपनी कमर घुमाई और डिश साफ करने के स्पंज से माँ की तरफ इशारा किया।

'वह परेशान नहीं है। किन्तु वह दूसरों को परेशान करना पसन्द करता है-ताकि उन्हें ढर्रे से बाहर निकाल सके।'

'ठीक है, बहुत हो गया। मेरा खयाल है कि वह कुछ ज्यादा ही गुस्ताख लगता है।'

सोफी फिर प्लेटों की ओर मुड़ गई।

'वह न तो गुस्ताख है और न ही पिछलग्गू।' सोफी ने कहा। 'किन्तु वह सच्ची बुद्धिमत्ता तक पहुँचना चाहता है। और यही अन्तर ताश की गड्डी के दूसरे पत्तों और वास्तविक जोकर के बीच है।'

'क्या तुमने जोकर कहा?'

सोफी ने स्वीकृति में सिर हिलाया। 'क्या तुमने कभी इस तथ्य के बारे में सोचा है कि ताश की गड्डी में बहुत सारे पान और ईंटें होती हैं, और बहुत सारे हुकुम और चिड़ी होते हैं; किन्तु जोकर केवल एक होता है?'

'हाय प्रभू! तुम कैसा उलटा जवाब दे रही हो, सोफी।'

'और तुम पूछती कैसे हो?'

उसकी माँ ने परचून का सब सामान अलग लगा दिया था। अब उसने अखबार उठाया और बैठने के कमरे में चली गई। सोफी को लगा कि आज माँ ने दरवाजा कुछ ज्यादा ही जोर से वन्द किया है।

सोफी ने प्लेटें साफ कर दीं और ऊपर अपने कमरे में चली गई। उसने लाल रेशमी स्कॉर्फ, लेगो ब्लॉक्स के साथ अलमारी के ऊपर रख दिया था। उसने इसे नीचे उतारा और ध्यान से देखा।

हिल्डे...