लेखक की टिप्पणी (Author's Note):
यह कोई कहानी नहीं है। ना ही यह किसी कल्पना, फैंटेसी, रोमांस, सस्पेंस या थ्रिलर से भरी रचना है। यह जीवन का गहरा, निर्विवाद और कटु सत्य है, जिसे हम सब जीते हैं, पर अक्सर समझने से कतराते हैं।यह लेख उन शाश्वत दुखों की ओर हमारा ध्यान खींचता है, जो हर मानव को भोगने ही पड़ते हैं, जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा और व्याधि।
यह कोई मनोरंजन नहीं, बल्कि आत्मचिंतन का विषय है इसे केवल मन से नहीं, आत्मा की गहराई से पढ़ें।
क्या पता —
इन शब्दों में कोई ऐसा वाक्य, कोई ऐसा विचार, या हरिनाम का स्मरण आपके जीवन की दिशा ही बदल दे। ध्यान से पढ़ें, शायद दो शब्द काम के मिल जाएं।
____________________________________________
ये विषय अत्यंत गंभीर है। मानव अपने जीवन में अनेक प्रकार के दुखों को सहन करता है, जो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का हिस्सा हैं। इन दुखों से बचने और जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त करने के लिए संत निरंतर प्रयासरत रहते हैं।
श्रीमद्भागवतम् में इन दुखों का वर्णन किया गया है, और यह ग्रंथ हमें इन दुखों से मुक्ति का मार्ग भी दिखाता है।
आइए, मानव जीवन के चार प्रमुख दुखों जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, और व्याधि के बारे में विस्तार से चर्चा करें, हरिनाम जप ही इन दुखों से मुक्ति का एकमात्र उपाय है।
1. जन्म का दुख-
मानव जीवन का प्रथम दुख है जन्म। जब जीव माता के गर्भ में नौ माह तक रहता है, तो वह अनेक कष्टों को सहन करता है। गर्भ एक संकुचित, अंधेरे और बंद डिब्बे के समान होता है, जिसमें जीव को सांस लेने, हिलने-डुलने में तकलीफ होती है।
श्रीमद्भागवतम् में जन्म के दुख का वर्णन इस प्रकार है:
श्लोक (श्रीमद्भागवतम्, 3.31.9):
यथार्मणि स्रोतो-जानां संनिपातति पञ्चधा।
तथात्र चतुर्विंशत्या संनिपत्य शरीरकम्॥
अर्थ: जैसे पांच तत्व (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश) मिलकर शरीर का निर्माण करते हैं, वैसे ही जीव गर्भ में इन तत्वों के संयोग से शरीर प्राप्त करता है। गर्भ में जीव को अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं, जैसे संकुचित स्थान, मल-मूत्र का दबाव, और माता के भोजन से उत्पन्न होने वाली गर्मी। यह जन्म का प्रथम दुख है, जो प्रत्येक जीव को सहना पड़ता है।
2. मृत्यु का दुख-
दूसरा दुख है मृत्यु। मृत्यु एक ऐसा भयंकर और दर्दनाक अनुभव है, जिसे प्रत्येक जीव को सहना पड़ता है। विशेष रूप से पापी व्यक्तियों के लिए मृत्यु अत्यंत कष्टदायक होती है। मृत्यु के समय व्यक्ति का दम घुटता है, आंखें फटने लगती हैं, और शरीर मल-मूत्र का त्याग कर देता है। यह दुख प्रत्येक जन्म में सहना पड़ता है।
श्रीमद्भागवतम् में मृत्यु के दुख का वर्णन इस प्रकार है:
श्लोक (श्रीमद्भागवतम्, 3.30.18):
शयानः परिशोचति यमदूतैः समागतैः।
कण्ठे गृहीतः क्रूरैः स याति यमसादनम्॥
अर्थ: मृत्यु के समय यमदूत क्रूरता से जीव के प्राणों को खींचते हैं। व्यक्ति अपने कंठ में भयंकर पीड़ा का अनुभव करता है और यमलोक की ओर ले जाया जाता है। यह मृत्यु का भयानक दुख है, जो पापी जीवों को विशेष रूप से सहना पड़ता है।
3. बुढ़ापे का दुख-
तीसरा दुख है बुढ़ापा। बुढ़ापा वह अवस्था है, जिसमें मानव का शरीर कमजोर हो जाता है। दांत टूट जाते हैं, आंखों की रोशनी कम हो जाती है, चलना-फिरना मुश्किल हो जाता है, और भोजन का पाचन भी ठीक नहीं होता।
श्रीमद्भागवतम् में बुढ़ापे के दुख का वर्णन इस प्रकार है:
श्लोक (श्रीमद्भागवतम्, 4.28.18):
जरया चापि संनादति सर्वं क्षीयति यौवनम्।
न च्छन्दति सुखं किंचिद् विषयेषु नरः खलु॥
अर्थ: बुढ़ापे के कारण शरीर की शक्ति क्षीण हो जाती है, यौवन नष्ट हो जाता है, और व्यक्ति को विषयों में सुख की अनुभूति नहीं होती। बुढ़ापा एक ऐसा दुख है, जो शरीर और मन दोनों को कमजोर कर देता है।
4. व्याधि (रोग) का दुख-
चौथा दुख है व्याधि, अर्थात् रोग या बीमारी। प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में कभी न कभी बीमारी का सामना करना पड़ता है।
श्रीमद्भागवतम् में रोग के दुख का वर्णन इस प्रकार है:
श्लोक (श्रीमद्भागवतम्, 5.5.4):
नूनं प्रभुर्व्याधि-भयेन संनादति जीवति च।
यया हि संसार-सुखं न तत्त्वतः सुखं भवति॥
अर्थ: रोग और मृत्यु का भय जीव को सताता है। संसार के सुख क्षणिक होते हैं, और रोग के कारण व्यक्ति सच्चे सुख से वंचित रहता है। व्याधि एक ऐसा दुख है, जो मानव जीवन को बार-बार कष्ट देता है।
दुखों से मुक्ति का मार्ग: हरिनाम जप
इन चारों दुखों जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, और व्याधि से मुक्ति का एकमात्र मार्ग है हरिनाम जप।
भगवान का नाम जपने से जीव के सारे दुख दूर हो जाते हैं, और वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर परम शांति प्राप्त करता है।
श्री रामकृष्ण परमहंस इसका जीवंत उदाहरण हैं। उन्हें कैंसर जैसी भयंकर बीमारी थी, फिर भी उन्होंने अपनी भक्ति और हरिनाम जप को कभी नहीं छोड़ा। उनकी भक्ति ने उन्हें दुखों से ऊपर उठाया और परम आनंद की प्राप्ति कराई।
ऐसे ही अनेक संतों के उदाहरण हैं, जैसे संत तुकाराम, मीराबाई, और कबीरदास, जिन्होंने हरिनाम जप के बल पर संसार के दुखों को पराजित किया।
श्रीमद्भागवतम् में भी कहा गया है:
श्लोक (श्रीमद्भागवतम्, 6.2.46):
अर्थ: भक्तों के साथ हरिनाम संकीर्तन से बढ़कर कोई साधन नहीं है। यह मुक्ति का सर्वोत्तम मार्ग है।
श्रीमद्भागवतम् हमें हरिनाम जप के माध्यम से मुक्ति का मार्ग दिखाता है। संतों के जीवन से हमें प्रेरणा मिलती है कि भक्ति और हरिनाम के बल पर हम इन दुखों से मुक्त हो सकते हैं।
अतः हमें अपने जीवन का उद्देश्य समझना चाहिए और हरिनाम जप को अपने जीवन का आधार बनाना चाहिए। यह न केवल हमें दुखों से मुक्ति देगा, बल्कि परम शांति और भगवद्भक्ति की प्राप्ति भी कराएगा।
____________________________________________
लेखक की अपील (Author's Request):
आपने मेरा संपूर्ण लेख पढ़ा, इसके लिए दिल से धन्यवाद।
मेरी आपसे विनम्र प्रार्थना है यदि मेरी बातें आपको थोड़ी भी अच्छी और सोचने योग्य लगी हों तो कृपया इस लेख को रेटिंग अवश्य दें।
आपकी एक छोटी-सी प्रतिक्रिया मुझे आगे और लिखते रहने के लिए मोटिवेशन देगी। अगर संभव हो तो फॉलो भी कर लें, और एक सच्चाई भरी दोस्ती का नाता हमसे जोड़ लें। आपका साथ ही मेरा हौसला है।
धन्यवाद