सर्द हवाएं दिल्ली की सड़कों पर गश्त लगा रही थीं। दिसंबर की उस अलसुबह शहर नींद में डूबा था, पर रेलवे कॉलोनी के एक छोटे से क्वार्टर में हलचल शुरू हो चुकी थी। सीमा, एक 28 वर्षीय महिला, अपने ढाई साल के बेटे आरव को दूध पिलाकर तैयार कर रही थी। उसकी आँखों में नींद नहीं, चिंता थी।
पिछले महीने उसके पति रोहित की फैक्ट्री में एक दुर्घटना हो गई थी। झुलसने के कारण वह अस्पताल में भर्ती था और अब तक कोमा में था। पूरे घर का भार सीमा के कंधों पर आ चुका था। मेडिकल बिल, बेटे की जरूरतें, और राशन की चिंता उसे अंदर तक झकझोर रही थी।
सीमा ने पहले कभी नौकरी नहीं की थी। कॉलेज के बाद शादी हो गई थी और फिर आरव का जन्म। पर अब हालात कुछ और कह रहे थे। उसे कुछ करना ही था — और जल्दी करना था।
"मम्मी, दूध!" — आरव की आवाज ने सीमा को सोच से बाहर निकाला।
दूध का गिलास पकड़ाते हुए सीमा ने टीवी ऑन किया, ताकि आरव थोड़ी देर तक व्यस्त रहे। उसी वक्त एक ऐड चला — “दिल्ली मैराथन — महिलाओं के लिए विशेष कैटेगरी, प्रथम पुरस्कार ₹5 लाख।”
सीमा चौंकी। कॉलेज के दिनों में वह स्टेट लेवल रनर रह चुकी थी। शादी और बच्चे के बाद उसने दौड़ना छोड़ दिया था, पर शरीर की मांसपेशियां अब भी उसे याद दिलाती थीं कि कभी वो क्या हुआ करती थी।
उसने टीवी बंद किया और चुपचाप बालकनी में जाकर खड़ी हो गई। उसकी आंखों के सामने अस्पताल का बिल घूम गया — ₹2.7 लाख, और हर दिन ICU का ₹8000 का खर्च।
"क्या मैं दौड़ सकती हूँ?" उसने खुद से पूछा।
"नहीं, तू सीमा है... तू दौड़ सकती है!" — यह आत्मविश्वास शायद परिस्थितियों ने उसे दिया था।
अगले दिन सुबह चार बजे जब कॉलोनी सो रही थी, सीमा पुराने जॉगर्स और फटी हुई टीशर्ट में मैदान में उतरी। पहली ही चक्कर में उसका दम फूल गया, घुटनों में दर्द हुआ। पर वो रुकी नहीं।
रोज़ की दौड़ उसके लिए अब तपस्या बन गई थी। वो जानती थी — अब दौड़ सिर्फ दौड़ नहीं थी, यह उसके परिवार की ज़िंदगी और उसके आत्मसम्मान की परीक्षा थी।
सामने की दुकान से उधारी पर शकरकंद और दूध लाती, ताकि एनर्जी बनी रहे। बेटे को सुलाकर रात में अपने पुराने कॉलेज की नोट्स पढ़ती — रनिंग टेक्निक, स्ट्रेचिंग, डाइट… उसने खुद को फिर से प्रशिक्षित करना शुरू कर दिया।
पड़ोस की कुछ महिलाओं ने ताना मारा — "क्या कर रही है सीमा? अब दौड़ से कुछ नहीं होने वाला। पति ICU में है और ये मैदान में!"
लेकिन सीमा मुस्कुरा देती। जब जिंदगी दांव पर लगी होती है, तो कलेजा अपने आप मजबूत हो जाता है।
15 जनवरी। दिल्ली की हवा में सिहरन थी। दिल्ली मैराथन के लिए इंडिया गेट के पास हज़ारों लोग इकट्ठा हो चुके थे। सीमा ने अपनी पुरानी जूतियां पहनी, जो अब अंदर से घिस चुकी थीं। आंखों में दृढ़ता थी, हाथों में भगवान की छोटी सी तस्वीर और दिल में बेटे की मुस्कान।
“महिला ओपन कैटेगरी — 10 किलोमीटर की दौड़ शुरू होगी 5 मिनट में,” स्पीकर पर घोषणा हुई।
सीमा ने लंबी साँस ली। “बस एक दौड़, सीमा… और फिर रोहित ठीक हो जाएगा।”
गन की आवाज हुई और दौड़ शुरू हो गई।
शुरुआत में सीमा ने धीमी गति रखी। उसे अपनी एनर्जी बचाकर रखनी थी। पहले 5 किलोमीटर तक वह 15वीं पोजीशन पर थी। कुछ लोग उसके कपड़ों और जूतियों को देख हंस भी रहे थे, पर उसे कोई फर्क नहीं पड़ा।
6वें किलोमीटर पर उसकी बाईं टांग में तेज़ खिंचाव हुआ। वह लड़खड़ा गई।
“तुम छोड़ दो, बहनजी… इतना आसान नहीं है ये सब।” — किसी ने कहा।
पर उसी वक्त उसकी आंखों के सामने ICU में लेटा हुआ रोहित, आरव का खिलखिलाता चेहरा और खाली बटुए की तस्वीर उभर आई।
“सीमा… अब नहीं रुकेगी।”
उसने दांत भींचे, और दौड़ पड़ी।
8वें किलोमीटर तक वह चौथे स्थान पर आ चुकी थी। बाकी धाविकाएं थक रही थीं, पर सीमा के शरीर में जैसे आग लग चुकी थी।
9वें किलोमीटर के अंत में वह दूसरे स्थान पर थी। सामने सिर्फ एक ही महिला थी — प्रोफेशनल एथलीट।
अंतिम किलोमीटर में सीमा ने अपने अंदर की पूरी ताकत झोंक दी। दिल बेतहाशा धड़क रहा था, पर उसने शरीर की आवाज़ नहीं सुनी।
अंत में... सीमा ने रिबन काट दिया — पहली पोजीशन पर!
भीड़ में सन्नाटा था, फिर तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठी। मीडिया ने कैमरे घुमा दिए, रिपोर्टर सीमा की ओर भागे। कोई यकीन नहीं कर पा रहा था कि टूटी हुई जूतियों में दौड़ती यह महिला इतनी मजबूती से जीत कैसे गई?
सीमा का जवाब सीधा था —
“जब जिंदगी दांव पर लगी होती है, तो कलेजा अपने आप मजबूत हो जाता है।”
उसे न केवल ₹5 लाख का पुरस्कार मिला, बल्कि एक स्पोर्ट्स कंपनी ने उसे ब्रांड एम्बेसडर बना लिया। उसी शाम उसने रोहित के अस्पताल का बिल चुकाया और बेटे को गोद में लेकर बोली,
“अब मम्मी सिर्फ दौड़ेगी नहीं… उड़ान भरेगी।”
सीमा अब महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने की ट्रेनिंग देती है। उसके शब्दों में प्रेरणा की शक्ति है, और उसकी आँखों में एक ऐसी लौ, जो हालातों के अंधेरे को चीर देती है।
उसकी कहानी एक सबक बन गई —
हौसले हों तो कोई भी मंज़िल दूर नहीं, और जब दांव ज़िंदगी का हो — तब डर की कोई जगह नहीं।