हर साल की तरह इस बार भी "खोजीसंघ" ने जंगल में एक रोमांचक यात्रा का आयोजन किया। संघ के नेता, प्रोफेसर परमानंद पांडे, में एक अद्भुत प्रतिभा थी - वे हर चीज़ में रहस्य खोज निकालते थे।चाय में चीनी कम हो गई हो या जंगल में पक्षियों की चहचहाहट का रहस्य, वे हमेशा कुछ अनोखा ढूंढ लेते थे।
संघ के बाकी सदस्य भी कम दिलचस्प नहींथे। मिस्टर भोंपू लाल, जिनकी आवाज़ किसी पुराने बस के हॉर्न जैसी थी, संघ केआधिकारिक उद्घोषक थे। टिल्लू त्रिवेदी, जो हमेशा हर सफर में खो जाते थे, और ललितामिश्रा, जिन्हें हर चीज़ पर शायरी करने का शौक था, इस यात्रा के अन्य मुख्य सदस्यथे।
टीम "भूतही बावली का जंगल" में पहुँची। गाँव वालों का कहना था कि वहाँ जाने वाले लोग कभी वापस नहीं लौटते। लेकिन प्रोफेसर परमानंद को इन बातों पर विश्वास नहीं था। उन्होंने तो बस एक अजीबोगरीब अनुभव के लिए अपने जूतों की तली चेक की!
जंगल में घुसते ही कुछ अजीब चीजें होनेलगीं। मिस्टर भोंपू लाल चिल्लाए - "सावधान! हम एक रहस्यमयी जंगल में घुस चुके हैं!" तभी एक उल्लू उनके सिर पर आ बैठा। उनकी चीखें जंगल में गूंज उठीं -"बचाओ! ये कोई उल्लू नहीं, भूत है!"
टिल्लू त्रिवेदी हमेशा की तरह रास्ता भूल गए और एक विशाल झाड़ी में जा घुसे। वहाँ उन्हें पेड़ से लटकती एक काली परछाईं दिखी। "मुझे मेरी मम्मी के पास ले चलो!" चिल्लाते हुए वे रॉकेट की तरहनिकल भागे।
ललिता मिश्रा ने फौरन शायरी छेड़ दी:
"इस जंगल की खामोशी कुछ कह रही है,
पर हमारी हिम्मत इसे सह रही है!"
अचानक, सबकी नज़र एक पेड़ के पास पड़े कंकाल पर पड़ी। और फिर वह कंकाल हिल गया! सबके होश उड़ गए। भोंपू लाल की चीख सेउल्लू भी उड़ गया। टिल्लू के पैरों ने अपने आप दौड़ना शुरू कर दिया, और पहली बारललिता को कोई शायरी नहीं सूझी।
तभी झाड़ी के पीछे से एक लंबी आकृति निकली - बिखरे बाल, चमकती आँखें, और टूटे रेडियो जैसी आवाज़। "कौन है? क्यों आए हो?"
प्रोफेसर परमानंद ने अपना चश्मा पोंछकर देखा और मुस्कुराए, "अरे! यह तो चंदर अंकल हैं! गाँव के मशहूर गुमशुदाव्यक्ति!"
चंदर अंकल, जो बीस साल पहले इस जंगल में खो गए थे, उन्होंने बताया कि वे एक शेर से बचकर यहाँ आए थे और फिर यहीं रह गए। कंकाल? वह उनके डरावने मज़ाक का हिस्सा था। "जंगल में अकेले रहना बोरिंग था,"उन्होंने हँसते हुए कहा।
लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। चंदरअंकल के झोपड़े से प्रोफेसर परमानंद को एक पुरानी डायरी मिली, जिसमें उनके जंगलीजीवन के मज़ेदार किस्से थे:
"दिन 45: आज एक बंदर मेरी दोनों चप्पलें लेकर भाग गया। अब मैं नंगे पाँव जंगली बाबा बन गया हूँ।"
"दिन 180: शीर्षासन करते वक्त एक तोता मेरी नाक पर बैठ गया। अब वह मुझे योग का व्याख्यान दे रहा है।"
"दिन 365: मेरे भालू दोस्त ने मुझे शहद का छत्ता गिफ्ट किया। मधुमक्खियों ने स्वागत किया।"
टिल्लू बोले, "वाह! चंदर अंकल तो जंगल के डेविड अटनबरो निकले!" भोंपू लाल ने घोषणा की कि वे इस डायरी को 'जंगलबुक: द रियल स्टोरी' के नाम से छापेंगे।
तभी जंगल से एक बाघ की दहाड़ सुनाई दी।चंदर अंकल मुस्कुराए, "अरे घबराओ मत, यह मेरा दोस्त शेर-ए-पंजाब है। बस गुडनाइट विश करने आया होगा!"
इस तरह, भूतही बावली का जंगल"मज़ाकिया बावली का जंगल" बन गया। खोजी संघ ने तय किया कि अगली बार वे चंदर अंकल के जंगली दोस्तों से मिलने ज़रूर आएंगे, बशर्ते कि भोंपू लाल अपनी आवाज़ को थोड़ा कम करें, वरना बाघ उन्हें अपना प्रतिद्वंद्वी समझ लेगा!
ललिता मिश्रा ने अंतिम शायरी सुनाई:
"जंगल का रहस्य जब खुल गया,
हर डर का पर्दा धुल गया!"