प्रथम भाग: एक शांत शाम का अंत
सर्दियों की वह रात कुछ अलग थी। शहर के पुराने मोहल्ले में स्थित श्रीधर बाबू का मकान, जो कभी हँसी-खुशी से गूंजता था, आज सन्नाटे में डूबा हुआ था। घड़ी की सुइयाँ धीरे-धीरे ग्यारह की ओर बढ़ रही थीं, और बाहर का कोहरा खिड़कियों के शीशों पर धुंध की परतें जमा रहा था।
श्रीधर बाबू, जिनकी उम्र अब सत्तर के पार थी, अपनी पुरानी लकड़ी की कुर्सी पर बैठे थे। कमरे में टिमटिमाती लालटेन की रोशनी में वे अपनी प्रिय किताब "जीवन के अनसुलझे रहस्य" पढ़ रहे थे। उनकी आँखों पर चश्मा था, जिसकी मोटी लेंस उनकी उम्र का प्रमाण थीं। समय के साथ उनके बाल सफेद हो गए थे, चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं, और घुटनों में दर्द रहने लगा था।
द्वितीय भाग: अनजानी दस्तक
रात का सन्नाटा अचानक टूटा। दरवाजे पर एक हल्की सी दस्तक हुई - इतनी धीमी कि पहले तो श्रीधर बाबू को लगा कि शायद उनका वहम है। उन्होंने किताब से नज़र उठाई और कान लगाकर सुना। कमरे में लालटेन की लौ थरथरा रही थी, और बाहर से सिर्फ रात के कीड़ों की आवाजें आ रही थीं।
वे अपनी किताब में फिर से डूबने ही वाले थे कि दस्तक फिर हुई - इस बार पहले से कहीं ज़्यादा स्पष्ट और मजबूत। उनका दिल धक से रह गया। इस वक्त कौन हो सकता है? उनका बेटा विनय तो अमेरिका में था, और पिछले पाँच सालों से घर नहीं आया था। पड़ोसी भी इस वक्त नहीं आएँगे - खासकर इस कड़ाके की ठंड में।
तृतीय भाग: रहस्यमयी संदेश
धीरे-धीरे कुर्सी से उठते हुए श्रीधर बाबू ने पूछा, "कौन है?" उनकी आवाज में डर था, जो वे छिपाने की कोशिश कर रहे थे। जवाब में सिर्फ हवा की सरसराहट सुनाई दी।
जब वे दरवाजे की ओर बढ़े, तो उनकी नज़र दरवाजे के नीचे से सरकते एक कागज पर पड़ी। पीले रंग का वह कागज़ साधारण से दिखता था, लेकिन उस पर लिखा संदेश असाधारण था। काले स्याही में लिखे शब्द पढ़कर उनके हाथ कांपने लगे:
"खबर आई है... तुम्हारा समय पूरा हो चुका है!"
चतुर्थ भाग: अतीत की परछाईयां
संदेश पढ़ने के बाद श्रीधर बाबू की आँखों के सामने उनका पूरा जीवन घूम गया। तीस साल पहले उनकी पत्नी माधवी की अचानक मृत्यु, जिसने उनके जीवन को बदल दिया था। फिर बेटे विनय का विदेश जाना, और धीरे-धीरे उनसे दूर होता जाना।
उन्होंने याद किया कि कैसे माधवी हमेशा कहती थीं कि घर में अकेले नहीं रहना चाहिए, लेकिन श्रीधर बाबू ने कभी दूसरी शादी नहीं की। अब वे सोच रहे थे कि क्या यह उनकी गलती थी?
पंचम भाग: आखिरी क्षण
घड़ी ने ग्यारह बजाए, और फिर से एक कागज दरवाजे के नीचे से आया:
"रात के ठीक बारह बजे सब कुछ बदल जाएगा। तैयार रहो!"
श्रीधर बाबू ने महसूस किया कि उनका दिल तेजी से धड़क रहा है। उन्होंने अपनी दवाई की डिब्बी की ओर देखा, जो अलमारी में रखी थी, लेकिन उठकर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए।
बारह बजने में अब दस मिनट बाकी थे। उन्होंने अपनी जिंदगी के बारे में सोचा - क्या वे सही तरीके से जिए? क्या उन्होंने अपने बेटे को पर्याप्त प्यार दिया? क्या माधवी उनसे खुश थी?
षष्ठ भाग: अंतिम सत्य
ठीक बारह बजे दरवाजा खुला। तेज हवा का झोंका आया, और लालटेन बुझ गई। अंधेरे में श्रीधर बाबू की आँखें फटी रह गईं, और उनका दिल अचानक रुक गया।
अगली सुबह, जब पड़ोसियों ने दरवाजा तोड़ा, तो श्रीधर बाबू अपनी कुर्सी पर शांत बैठे मिले। उनके हाथ में वह आखिरी कागज था, जिस पर लिखा था:
"खबर सिर्फ चेतावनी थी, लेकिन डर ही इंसान को मार देता है!"
उपसंहार
यह कहानी सिर्फ एक व्यक्ति की मृत्यु की नहीं, बल्कि एक ऐसे समाज की भी है जहाँ बुजुर्गों को अकेलेपन का सामना करना पड़ता है। श्रीधर बाबू की मौत शायद डर से हुई, लेकिन वह डर सिर्फ एक रहस्यमयी पत्र का नहीं था - वह उस अकेलेपन का डर था, जो उन्होंने वर्षों से झेला था।
माधवी की मृत्यु के बाद से, श्रीधर बाबू ने अपने आप को जीवन से काट लिया था। उनका बेटा विदेश में था, और वे खुद को समाज से दूर कर चुके थे। शायद वह रहस्यमयी पत्र उनके अंतर्मन की आवाज थी, जो उन्हें बता रही थी कि जीवन में कुछ बदलाव की जरूरत है।
लेकिन अफसोस, यह एहसास बहुत देर से हुआ। श्रीधर बाबू की कहानी हमें याद दिलाती है कि जीवन में अकेलापन कितना घातक हो सकता है, और कैसे हमारे अपने डर हमें खा जाते हैं।