श्री दुर्गा सप्तशती- आचार्य सदानंद – समीक्षा & छन्द 5
श्री दुर्गायन" दर असल श्री दुर्गा सप्तशती का छन्द अनुवाद है जो आचार्य सदानंद द्वारा किया गया है । इसके प्रकाशक शाक्त साधना पीठ कल्याण मंदिर प्रकाशन अलोपी बाग मार्ग इलाहाबाद 6, थे। यह जुलाई 1987 में प्रकाशित की गई थी ।तब इसका मूल्य ₹10 रखा गया था। अब यह पुस्तक अप्राप्त है ।
पुस्तक के अनुक्रम में कुल 21 बिंदु रखे गए हैं। सबसे पहले श्रीपाद मुक्तानंद जी का आशीर्वाद है। सप्त श्लोकी दुर्गा' अर्गला स्तोत्र, कीलक स्तोत्र, श्रीदेवी कवच, रात्रि सूक्त के बाद पहले से 13 वे तक अध्याय लिखे गए हैं। अंत में देवी सूक्त और क्षमा प्रार्थना शामिल की गई है। भूमिका में श्रीपाद मुक्तानंद जी लिखते हैं कि सदानंद जी ने एम ए हिंदी साहित्य से किया है। साहित्य रत्न किया है और कवि रत्न भी किया है । इसलिए उनकी भाषा और व्याकरण में गहरी रुचि और गति है। दुर्गा सप्तशती के अनुवाद के पदों की भाषा संस्कृत निष्ठ होने के बाद भी लालित्य पूर्ण है। कहीं भी जटिलता और कठिनाई महसूस नहीं होती है। संस्कृत निष्ठ भाषा होते हुए भी यह भाषा आम आदमी की समझ में आ जाएगी। सबसे बड़ी बात यह है कि कठिन श्लोक का सरलतम अनुवाद श्री सदानंद जी ने किया है। हिंदी साहित्य सदानंद जी का बड़ा आभारी रहेगा। यह पुस्तक जब से पढ़ी है। अनेकों बार समीक्षक ने इसका अध्ययन किया है और कहीं भी कोई त्रुटि महसूस नहीं होती है। इस पुस्तक के समीक्षा के प्रमाण में कुछ अध्याय और पद प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
दसवाँ अध्याय
(शुम्भ-बध)
ध्यान
ॐ तप्त स्वर्ण सी देह-कान्ति, त्रय नेत्र सूर्य शशि वह्नि तेज-धन ।
धारण करतीं जो सुन्दर, भुज, अंकुश, पाश, त्रिशूल, शरासन ।
मस्तक पर अर्धेन्दु विराजित, दिव्य प्रभा शोभित अनुपम तन ।
रूप शक्ति शिव कामेश्वरि, देवी का मैं करता उर चिन्तन ।।
ॐ ऋषि कथन ।॥ १ ॥
राजन् ! सेना ध्वस्त निरख कर, और देख निष्प्राण सहोदर ।
परम क्रोध से देवी के प्रति, बोला वचन शुम्भ दनुजेश्वर ।।२
दुर्गे ! दुष्ट ! शक्ति-मद गर्वित, तू मिथ्याभिमानिनी वंचक ।
अन्य देवियों के आश्रय-बल-से तू युद्ध-क्रिया-रत धिक् धिक् ॥३ (११६)
श्री देवी कथन ।। ४ ।।
दुष्ट असुर ! मैं एक जगत में, कौन अन्य है मुझे छोड़कर ।
देख, सकल मेरी विभूतियाँ, लीन हो रहीं मुझ में सत्वर ।।५
देवी के कथनोपरान्त तत्क्षण, ब्रह्माणी आदि शक्ति - वर ।
लीन हो गईं ज्योतित तन में, रहीं शेष अम्बिका वहाँ पर ॥६
श्री देवी कथन ॥७।।
"मैं मेरी ऐश्वर्य - शक्ति से, थी अनेक रूपों में प्रस्थित ।
उन्हें समेट अकेली रण में, मैं हूँ स्थित, तू हो सुस्थिर चित ।।८
श्री ऋषि कथन ।। ६ ।।
नर-पति ! तब दनुजेश शुम्भ का, युद्ध छिड़ा अम्बा से भीषण ।
भू पर असुर निहार रहे थे, देख रहे थे नभ से सुर - गण ॥१०
कर शर-वर्षण प्रखर शस्त्र औ, अस्त्रों का प्रहार कर क्षण-क्षण ।
दोनों युद्ध-निरत, थे दर्शक, सुरासुरों के भीति-ग्रस्त मन ।।११
देवि अम्बिका ने शत-शत, दिव्यास्त्र किये रिपु पर संधानित ।
कर प्रहार वारक शस्त्रों का, काटे दनुजेश्वर ने समुचित ॥१२
इसी तरह दैत्येश शुम्भ द्वारा, जो अस्त्र हुए परिचालित ।
देवी के हुंकार आदि से, लीला-वत् गिरते भू ध्वंसित ।।१३
दनुजेश्वर ने कर शर-वर्षण, किया अम्बिका को आच्छादित ।
कुपित देवि ने बाण मार कर, किया धनुष दानव का खण्डित ।।१४
छिन्न शरासन फेंक शुम्भ ने, शक्ति कराल हाथ ली दुर्जय ।
किन्तु देवि ने उसे छिन्न की, कर प्रहार निज चक्र तेज-मय ।।१५
तब झपटा संक्रुद्ध दैत्य-पति-शुम्भ देवि पर किया आक्रमण ।
शत चन्द्रों सी ज्योति-पूर्ण असि, ढाल हाथ ले अतिशय दारुण ।।१६
आगे बढ़ते ही दानव के, चण्डी ने शर तीक्ष्ण चलाकर ।
खड्ग ढाल रवि किरणोज्ज्वल को, काट गिरा दी भू पर सत्वर ।।१७
अगले क्षण सारथि, रथ के हय, मारे गये विमर्दित वाहन ।
छिन्न धनुष हो गया दैत्य तब, मुद्गर लेकर बढ़ा क्रुद्ध मन ।।१८
मुद्गर घोर देवि सायक से, गिरा भूमि पर होकर रज-कण ।
शस्त्र-हीन हो दौड़ा दानव, बाँध मुष्टिका क्रोध अन्ध मन ॥१६
किया चण्डिका के हृदय-स्थल, पर प्रहार अति घोर, निशाचर ।
देवी ने कर-तल प्रहार उसके, उर पर कर दिया प्रखर तर।
तड़ित्-पात सम कराघात से, शुम्भ गिरा भू पर हो मूर्छित ।
सहसा कुछ निमिषोपरान्त वह, हो सचेत रण हुआ समुत्थित ॥२१
उछला शुम्भ देवि को लेकर, हुआ शून्य में निराधार स्थित ।
करने युद्ध लगीं अम्बा तब, नभ में हो आधार - विवर्जित ॥२२
अति भीषण संग्राम गगन में, करने लगे देवि औं' निशिचर ।
सिद्ध और मुनियों के हित भी, यह रण-कौशल था विस्मय-कर ।।२३
दीर्घ-काल युद्धोपरान्त तब हुई, अम्बिका अति क्रोधातुर ।
दानव को कर उत्तोलित, घूमित प्रवेग से फेंका भू पर ॥२४
उठा भू-पतित पुनः वेग से, दौड़ा दुष्ट निशाचर दुर्जय ।
देवि चण्डिका की दिशि को, करने आहत देवी-तन चिन्मय ॥ २५
देखा निशि-चर-नाथ शुम्भ को, आते निकट देवि ने सत्वर ।
मार त्रिशूल विद्ध वक्ष-स्थल-किया, गिराया उसे धरा पर ॥ २६
तीक्ष्ण विशूलाघात प्रहारित, प्राण-शून्य काया क्षत - विक्षत ।
गिरी भूमि पर, द्वीप जलधि, गिरि संयुत भू को किया प्रकम्पित ॥२७
संहारित होने पर दानव, अखिल जगत हो गया प्रमोदित ।
पूर्ण स्वस्थ हो गया विश्व, नभ स्वच्छ प्रभा से हो आलोकित ।॥२८
शान्त हुए उत्पात मेघ के, उल्का-पात आदि भय दारुण ।
सरिताएँ क्रम-बद्ध प्रवाहित, हुईं वधोपरान्त दानव रण ॥२९
हर्ष-प्रपूरित हृदय देव-गण, करते थे जय-घोष उचारित ।
हुए सभी गन्धर्व-गणों के, मधुर कण्ठ से गीत निनादित ॥३०
कई निरत गन्धर्व वाद्य-वादन में, अप्सरि थी रत नर्तन ।
पवन प्रवाहित था पवित्र, रवि-प्रभा विशुद्ध हुई ज्योतिर्धन ॥३१
मख-शालाओं का प्रशान्त पावक, सहसा हो उठा प्रज्वलित ।
दिक्-मण्डल के शब्द भीति-प्रद, हुए शान्त, सुषमा दिशि ज्योतित ॥३२
।। इति दसवाँ।।
।।अथ ग्यारहवाँ अध्याय
(देवताओं द्वारा देवी-स्तुति तथा देवी-द्वारा वरदान)
ध्यान
ॐ जिनके श्री अङ्गों की शोभा, बालारुण की प्रभा ललाम ।
चन्द्र किरीट, पयोधर उत्थित,
नयन तीन, शुचि शोभा-धाम ।
सस्मित-मुख छवि, वरद, अभय,
पाशांकुश मुद्रा कर अभिराम ।
ध्यान - निरत मैं भुवनेश्वरि, देवी के धर श्रीपद हृद्-धाम ।
। श्री ऋषि कथन ।। १ ।।
प्रबल दनुज-पति शुम्भ देख गत प्राण रण-स्थल ।
इन्द्र आदि सुर ले आये सम्मुख दिव्यानल ।
करने लगा स्तवन कात्यायनि का यों सुर-दल ।
इष्ट-प्राप्ति से थे ज्योतित मुख दिशा समुज्ज्वल ।।२
"हों प्रसन्न, पीड़ा - विच्छेदिनि शरणागत जन ।
हों अनुकूल समस्त विश्व की जननि, स्नेह-घन ।
रक्षित हो जग, विश्व-स्वामिनी के करुणा कन ।
महा-देवि ! हो तुम्हीं अधीश्वरि जग जड़-चेतन ॥३
एक-मात्र आधार जगत की तुम्हीं अवस्थित ।
क्योंकि धरित्री - रूप तुम्हारा ही है विस्तृत ।
है अलंघ्य विक्रम जंग-जननि ! तुम्हारा सुविदित ।
वारि-रूप में तुम्हीं कर रहीं जग परिवृत्तित ।।४
तुम्हीं वैष्णवी शक्ति देवि ! बल वीर्य अमापित ।
तुम्हीं जगत्कारण पर-माया विश्व-बीज नित ।
बना रखा है अखिल जगत तुमने सम्मोहित ।
मुक्ति सुलभ भू पर यदि तुम हो तुष्ट प्रमोदित ।।५
देवि ! तुम्हारे भेद मात्र हैं विद्या संकुल ।
तुम्हीं प्रकट बन रूप, अखिल जग में रमणी-दल ।
एक मात्र हो तुम्हीं अम्ब ! परि-व्याप्त जग-स्थल ।
परे स्तवन के परा-वाणि तुम, स्तुति अशक्य बल ।।६
सर्व-स्वरूपा देवि ! प्रदायक, स्वर्ग मुक्ति के गौरव - धाम ।
है इतना पर्याप्त स्तवन, इससे न श्रेष्ठ अन्योक्ति ललाम ।।७
अखिल-जनों में बुद्धि-रूप से, राजित जो रहती हृद्-धाम ।
भुक्ति-मुक्ति-दायिनि जगदम्बा, माँ, नारायणि ! तुम्हें प्रणाम ॥८
काष्ठा कला आदि रूपों से, जो देती क्रमशः परिणाम ।
शक्ति विश्व-संहार-विधायक, माँ नारायणि ! तुम्हें प्रणाम ।। ६
मङ्गल-मयी सर्व-सुख-कारक, शिवे ! अर्थ साधक अभिराम ।
आश्रित-वत्सल, गौरि ! त्रिनेत्रे !, माँ नारायणि ! तुम्हें प्रणाम ।।१०
शक्ति-भूत सर्जन पालन--संहार सनातन ज्योति ललाम ।
गुणाधार सम्पूर्ण गुण - मयी, नारायणि माँ ! तुम्हें प्रणाम ।।११
शरणागत दीनार्त-जनों की -रक्षा में पटु, नित निष्काम ।
सर्वापत्ति-निवारक जय हे !, नारायणि माँ ! तुम्हें प्रणाम ॥१२
ले ब्रह्माणी-रूप विराजित, हंस विमान दिव्य श्रीधाम ।
परम पवित्र कुशोदक - वर्षक, माँ नारायणि ! तुम्हें प्रणाम ।।१३
महा-वृषभ वाहन शोभित, शशि-नाग त्रिशूल-कान्ति उद्दाम ।
माहेश्वरी-स्वरूपिणि जय हे ! माँ नारायणि ! तुम्हें प्रणाम ।।१४
ताम्र-चूड़-शिखि - गण संवृत, कर महा-शक्ति, निष्पाप अकाम ।
श्रीकौमारी रूप धारिणी, मां नारायणि ! तुम्हें प्रणाम ।।१५
शङ्ख, चक्र, धनु-श्रेष्ठ, गदा, कर लिए परम आयुध प्रति-याम ।
हों प्रसन्न वैष्णवी-स्वरूपिणि, माँ नारायणि ! तुम्हें प्रणाम ।।१६
महा-चक्र ले हस्त विभीषण, दिये धरा दृढ़ दन्त विराम ।
वाराही - स्वरूप कल्याणी, मां नारायणि ! तुम्हें प्रणाम ।।१७
उग्र नृसिंह-स्वरूप - धारिणी, निरतोद्यम दानव वध काम ।
त्रिभुवन-संरक्षक उपकारिणि, माँ नारार्याण ! तुम्हें प्रणाम ।।१८
शीश किरीट, कुलिश आयुध कर, नैन सहस्र ज्योति अभिराम । वृत्रासुर - संहारक ऐन्द्री, माँ नारायणि ! तुम्हें प्रणाम ।।१९
शिव-दूती स्वरूप-धारिणि, दानव दल प्रबल विनाशक नाम । घोराकृति भीषण रव-कारिणि, माँ नारायणि ! तुम्हें प्रणाम ॥२०
भीषण डाढ़ कराल वदन, आभूषण मुण्ड माल उर-धाम ।
चामुण्डा रिपु मुण्ड मर्दिनी, मां नारायणि ! तुम्हें प्रणाम ।।२१
श्री, लज्जा, श्रद्धा, विद्या औ, स्वधा ध्रुवा, सम्पुष्टि सुनाम ।
महा-अविद्या, महा-रात्रि जय, हे नारायणि ! तुम्हें प्रणाम ॥२२
मेधा, वरा, विभूति, सरस्वति,
देवि वाभ्रवी, तमा ललाम ।
नियता, ईशा, सानुकूल हों, मां नारायणि ! तुम्हें प्रणाम ॥२३
सर्व-स्वरूपिणि, सर्व-स्वामिनी, सर्व शक्ति सम्पन्न, सकाम ।
सर्व भयों से त्राण करो, हे दुर्गा जननी ! तुम्हें प्रणाम ।।२४
आनन शोभा सौम्य, दिव्य, लोचन - त्रय राजित ज्योतिर्धाम ।
रक्षक सभी भीतियों से हों, माँ कात्यायनि ! तुम्हें प्रणाम ॥ २५
तीक्ष्ण, अमोघ, असुर-संहारक, भीषण ज्वाला-मय गति वाम ।
वह त्रिशूल भय - मुक्त करे, हे भद्र-कालि माँ ! तुम्हें प्रणाम ॥२६
नाद त्रिलोक व्याप्त, जो दानव-तेज विनाशक घण्टा घोर ।
देवि ! बचावे हमें पाप से, पुत्र मान, रक्षक बन ओर ॥२७
दानव मज्जा रक्त सुचर्चित खड्ग समुज्ज्वल हस्त कठोर ।
करें चण्डिका मङ्गल, हम हैं, विनयावनत चरण, कर जोर ॥२८
देवि तुम्हारी तुष्टि विनाशक आधि-व्याधि दल,
और रोष विध्वंसक सब आशा अभीष्ट फल ।
होता नर अविपन्न तुम्हारा पा आश्रय बल,
शरणागत जन औरों का बनता शरण-स्थल ॥२६
भला किसे सामर्थ्य, तुम्हारे जैसा विक्रम,
वंचक दानव घोर नाश में हो जो सक्षम ?
धारण करतीं दिव्य अनेकानेक रूप क्रम,
महा-देवि अम्बिके ! तुम्हारा लीला- विभृम ।।३०
विद्याओं में सभी शास्त्र में हो तुम णित,
सिवा तुम्हारे कौन आदि वाक्यों में गुम्फित ।
भला कौन है अन्य, करे जो विश्व-विमोहित,
ज्ञान-शून्य तम-पूर्ण ममत्व-गर्त परिभ्रामित ।।३१
घेरें विष-धर नाग भले ही चाहे निशि-चर,
चाहे घेरे शत्रु और चाहे दल तस्कर ।
हो दावानल अथवा हो अथाह जल सागर,
तुम हो साथ सदैव विश्व-रक्षक करुणाकर ॥३२
विश्वेश्वरि ! तुम अखिल विश्व का करतीं पालन,
विश्वात्मा हो तुम्हीं जगत को करतीं धारण ।
हो वन्दित विश्वेश, विनत जो भक्ति-नम्र जन,
अखिल विश्व आश्रय-दाता वे जाते हैं बन ॥३३
हो प्रसन्न जगदम्व ! किया यह असुर
विमर्दन,
शत्रु-नाश कर इसी तरह दो हमें प्ररक्षण ।
करो नष्ट जग पाप और उत्पात प्रवंचन।।
महा-रोग आपत्ति मिटा दो जग , के तत्क्षण ।।३४
देवि विश्व सङ्कट-हारिणि ! हम-चरण प्रणत, कर करुणा कोर ।
दो वर-दान, त्रिलोकी जन की -पूज्य ईश्वरी ! कृपा अछोर ।।३५
श्री देवि कथन ।।३६।।
सुर-गण ! मैं तत्पर वर के हित, मन-वाञ्छित पदार्थ जो इष्ट ।
मैं दूँगी, लोकोपकार हित, माँगो वर जो तुम्हें अभीष्ट ॥३७
देव-गण कथन ।।३८।।
सर्वेश्वरि ! तुम अखिल विश्व की, बाधाओं को इसी प्रकार ।
करती रहो प्रशान्त, हमारे-शत्रु-गणों का कर संहार ।। ३६
श्री देवी कथन ।॥४०॥
देवों अट्ठाइसवें युग में, बैवस्वत मन्वन्तर काल ।
शुम्भ निशुम्भ महा-दानव दो, होंगे प्रकट महा- विकराल ॥४१
मैं धारण कर जन्म, यशोदा-गर्भ गोप श्रीनन्द सुगेह ।
विंध्याचल -निवासिनी होकर, ध्वंस करूँगी दानव - देह ।।४२
फिर अति रौद्र-स्वरूप धारिणी, होकर धरिणी पर अवतीर्ण । वैप्रचित्त असुरों का निधन -करूँगी करके रण विस्तीर्ण ॥४३
भीषण वैप्रचित्त असुरों का, मुख में भक्षण करते काल ।
मेरे उम्र दशन दाड़िम-प्रसून से होंगे रक्तिम लाल ।।४४
उस क्षण से सुर स्वर्ग - लोक के, मानव मर्त्य-लोक के दास ।
'रक्त-दन्तिका' कहकर मेरा,
स्तवन करेंगे युत उल्लास ।।४५
और अवर्षण - काल वर्ष-शत-का आयेगा जल से हीन ।
ऋषि-गण-संस्तुत हो अयोनिजा, मैं प्रकटूंगी, रूप नवीन ।।४६
मैं शत-लोचन से देखूंगी, स्तवन-निरत मुनि-गण नत भाल ।
अतः करेंगे जन सङ्कीतन, मेरा नाम 'शताक्षी' डाल ।।४७
उस अवृष्टि के काल, भरण-पोषण हित अखिल विश्व के प्राण ।
देवों ! मेरे तनोत्पन्न शाकों से, होगा जग का त्राण ।।४८
तब धरणी पर ख्यात बनूंगी, 'शाकम्भरी' धार शुभ नाम ।
उसी काल में निधन करूँगी, दुर्गम महा- दैत्य बल - धाम ।।४९
दनुज - नाशिनी 'दुर्गा-देवी', नामजगत में होगा ख्यात ।
मैं प्रगटित होऊँगी भीषण-रूप ग्रहण कर युग पश्चात ।।५०
हिम नग-वासी असुरों का, भक्षण कर डालूंगी तत्काल ।
हेतु त्राण मुनि-गण, स-भक्ति वे-प्रणत, करेंगे स्तवन विशाल ।।५१
तब विख्यात नाम होगा जग, 'भीमा देवि' स्वरूप कठोर ।
और अरुण दानव जब होगा, लोकोपद्रव - कारण घोर ।।५२
तब त्रिलोक - उपकार हेतु मैं, षट्-पद भ्रमर - रूप बहु धार ।
महा-दैत्य का, कर विचित्र रण-
कौशल कर दूँगी संहार ।।५३
नाम 'भ्रामरी' मेरा लेकर, स्तवन करेंगे जीव त्रि- लोक ।
इस प्रकार दानव-विनाश कर, में कर दूँगी विश्व अशोक ।।५४
जब भी कभी भविष्य - काल में, होगी दानव - बाधा घोर ।
तब-तब में अवतार ग्रहण कर, असुर - विनाश करूँगी और ।।५५
।। इति ग्यारहवाँ अध्याय ।।