श्री दुर्गा सप्तशती- आचार्य सदानंद – समीक्षा & छन्द 3
श्री दुर्गायन" दर असल श्री दुर्गा सप्तशती का छन्द अनुवाद है जो आचार्य सदानंद द्वारा किया गया है । इसके प्रकाशक शाक्त साधना पीठ कल्याण मंदिर प्रकाशन अलोपी बाग मार्ग इलाहाबाद 6, थे। यह जुलाई 1987 में प्रकाशित की गई थी ।तब इसका मूल्य ₹10 रखा गया था। अब यह पुस्तक अप्राप्त है ।
पुस्तक के अनुक्रम में कुल 21 बिंदु रखे गए हैं। सबसे पहले श्रीपाद मुक्तानंद जी का आशीर्वाद है। सप्त श्लोकी दुर्गा' अर्गला स्तोत्र, कीलक स्तोत्र, श्रीदेवी कवच, रात्रि सूक्त के बाद पहले से 13 वे तक अध्याय लिखे गए हैं। अंत में देवी सूक्त और क्षमा प्रार्थना शामिल की गई है। भूमिका में श्रीपाद मुक्तानंद जी लिखते हैं कि सदानंद जी ने एम ए हिंदी साहित्य से किया है। साहित्य रत्न किया है और कवि रत्न भी किया है । इसलिए उनकी भाषा और व्याकरण में गहरी रुचि और गति है। दुर्गा सप्तशती के अनुवाद के पदों की भाषा संस्कृत निष्ठ होने के बाद भी लालित्य पूर्ण है। कहीं भी जटिलता और कठिनाई महसूस नहीं होती है। संस्कृत निष्ठ भाषा होते हुए भी यह भाषा आम आदमी की समझ में आ जाएगी। सबसे बड़ी बात यह है कि कठिन श्लोक का सरलतम अनुवाद श्री सदानंद जी ने किया है। हिंदी साहित्य सदानंद जी का बड़ा आभारी रहेगा। यह पुस्तक जब से पढ़ी है। अनेकों बार समीक्षक ने इसका अध्ययन किया है और कहीं भी कोई त्रुटि महसूस नहीं होती है। इस पुस्तक के समीक्षा के प्रमाण में कुछ अध्याय और पद प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
चौथा अध्याय
( देवताओं द्वारा स्तुति )
ध्यान
ॐ श्याम मेघ-कान्ति प्रति अङ्ग है कटाक्ष तीक्ष्ण,
शत्रु-कुल-भयदा हिमांशु-रेख भाल पर ।
चार भुज धारण किये हैं कर शंख चक्र,
भीषण त्रिशूल औ कृपाण त्रय नैन वर ।।
मृग-पति-स्कन्ध-अधिरूढ़ तेज-पुंज दिव्य-शोभा
त्रय-लोक-परिपूरित है ज्योति खर ।
सिद्ध-जन-सेवित अमर-गण-वन्दित जो,
दुर्गा-देवि 'जया'-नाम-धारी मन ध्यान धर ।।
ॐ श्री ऋषि कथन ।।१।।
अतुल बल-विक्रम से परिपूर्ण, दुरात्मा महिषासुर का अन्त ।
दलित मर्दित दानव-दल देख, इन्द्र सुर - गण के साथ तुरन्त ।।
झुकाये हुए शीश औ' स्कन्ध, प्रणत थे भक्ति-विनम्र प्रसन्न ।
स्तवन करते थे गद्-गद वाणि, हर्ष रोमांचित भावापन्न ।।२
देव बोले-"जो शक्ति समूह, देव गण के बल का समुदाय ।
अखिल जग में होकर परि-व्याप्त, शक्ति जिसकी है शक्ति-निकाय ।
सभी देवों ऋषियों की पूज्य, भगवती अम्बा ज्योतित काय ।
भक्ति से प्रणत विनत हम दीन, देवि कल्याणी करें सहाय ॥३
अतुल बल औ, प्रभाव का सकें, न कर वर्णन भगवान अनन्त ।
न ब्रह्मा में ऐसा सामर्थ्य, न शिव में इसकी शक्ति दुरन्त ।।
चण्डिका महा - देवि वे करें, अखिल - जग - पालन हेतु विचार ।
विश्व के अशुभ और भय-तत्व, विचूर्णित हो जावें प्रति बार ।।४
सुकृतियों के भवनों में स्वयं, करे जो लक्ष्मी- रूप निवास ।
पापियों के गृह हो दारिद्र्य, बुद्धि बन शुद्ध हृदय में वास ॥
सज्जनों में हो श्रद्धा - भाव, कुलीनों में लज्जा का रूप ।
प्रणत हम देवि ! तुम्हारे दास, करो जग का पालन प्रति रूप ।।५
अम्ब ! हम कैसे वर्णन करें, तुम्हारा रूप अचिन्त्य अपार ।
पराक्रम अकथनीय अत्युग्र, किया निशि-चर-दल का संहार ।
तुम्हारे अद्भुत दिव्य चरित्र, निरख समराङ्गण में प्रत्यक्ष ।
देव-दानव-दल था निस्तब्ध, देवि ! हम वर्णन - क्रिया - अदक्ष ।।६
तुम्हीं हो विश्व-सृजन की हेतु, सत्व-रज तम का आश्रय-स्थान ।
त्रिगुण-मयि दोष-विहीन अपार, विष्णु, शिव आदि सदैव अजान ।
सभी की तुम आश्रय हो देवि, अखिल जग है अति लघु-तम अंश।
तुम्हीं हो सबकी आदि स्वरूप, अव्याकृत परा- प्रकृति आद्यंश ।।७
अम्ब ! तुम ही हो 'स्वाहा'-नाद, सभी यज्ञों में हो उच्चार ।
तृप्ति पा जाते हैं सब देव, तुम्हारे द्वारा ही साभार ॥
तुम्हीं से पितृ-गणों को तृप्ति, सदा मिलती रहती अनिवार ।
तुम्हीं हो 'स्वधा' कहातीं देवि, परम मङ्गल दायक उच्चार ।।८
भगवती विद्या परमा तुम्हीं, कि जो है मुक्ति हेतु सदुपाय ।
और जो है चिन्तन से परे, महा - व्रत - रूप साधनोपाय ।।
करें जिसका मुनि-जन अभ्यास, हुए जो सब दोषों से हीन ।
जितेन्द्रिय हैं जो इच्छुक मोक्ष-तत्व को सार जान तल्लीन ॥६
तुम्हीं शब्दात्मक हो, हे देवि ! तुम्हीं हो ऋक् - यजु - वेदाधार ।
तुम्हीं हो सु - ललित पद उद्गीथ-युक्त शुभ साम पवित्राकार ।।
तुम्हीं हो त्रयी भगवती रूप, पूर्ण षड् - ऐश्वर्यों से अम्ब !
तुम्हीं वार्ता जग-उद्भव हेतु, विश्व-पीड़ा - नाशक अविलम्ब ।।१०
तुम्हीं हो निर्मल मेधा-शक्ति, करे जो अखिल शास्त्र परिज्ञात ।
तुम्हीं दुर्गा बन नौका, पार -लगातीं भव सागर अज्ञात ॥
तुम्हीं श्रीहरि-उर-देश अनन्य, देवि लक्ष्मी हो रहीं विराज ।
तुम्हीं हो गौरी पा सम्मान, चन्द्र - शेखर से स्थित नग-राज ॥११
देवि ! श्रीमुख-संयुक्त मुस्कान, मन्द मृदु शोभा दिव्य अनूप ।
कान्ति स्वर्णोपम सी कमनीय, चन्द्र राका निशि का प्रति-रूप ।।
हमें विस्मय है कैसे देवि ! देख श्रीमुख - शोभा प्रत्यक्ष ।
महिष कर पाया दुर्दम क्रोध, तथा कैसे प्रहार का लक्ष्य ।।१२
वही श्रीमुख जब आता कोप, तनी भ्रू - चाप रोष विकराल ।
कि जैसे उदय-काल में चन्द्र, दिखाई देता रक्तिम लाल ।।
निरख उस मुख को दानव-प्राण, क्यों नहीं निकल पड़े तत्काल ।
देवि ! आश्चर्य !! बचेगा कौन, देखकर सम्मुख क्रोधित काल ।।१३
देवि हों तुष्ट, तुम्हारा मोद, विश्व की प्रगति शान्ति का मूल ।
तुम्हारा रोष शीघ्र बन काल, कई वंशों को करता धूल ।।
देखकर महिष-सन सु-विशाल क्षणों में अभी विनष्ट विचूर्ण ।
तुम्हारे कोप - मोद का भेद, जान पाये ले अनुभव पूर्ण ॥ १४
देवि ! जग में वे ही सम्मान्य, तथा वे ही जन धन सम्पन्न ।
उन्हीं को सुलभ सुयश की प्राप्ति, और वे ही स्थिर धर्मापन्न ।।
और वे ही जन दारा पुत्र, भृत्य के साथ कहाते धन्य ।
कि जिन पर सदा अभ्युदय-दानि ! अम्ब ! तुम हो जातीं सुप्रसन्न ।।१५
तुम्हारी कृपा-प्राप्त जो श्रेष्ठ, मनुज पुण्यात्मा श्रद्धावान
किया करता सब कर्म सदैव, धर्म अनुकूल कृत्य, शुभ मान ।।
तुम्हारी अनुकम्पा से अम्ब, अन्त में मुक्त स्वर्ग के द्वार ।
अभीप्सित फल-दायक वर-दानि, त्रिलोकी में हो तुम्हीं उदार ।।१६
प्राणियों के भय करतीं नष्ट, स्मरण करते ही दुर्गा-नाम ।
स्वस्थ जन को चिन्तन के साथ, श्रेष्ठ शुभ मति देतीं उद्दाम ।।
अम्ब ! अतिरिक्त तुम्हारे कौन, करे दारिद्रय - दुःख - भय भङ्गः ।
सभी का करने को उपकार, चित्त में बहती करुणा-गङ्गः ॥१७
देवि ! इन असुरों का विध्वंस, किया जग-सुख का हेतु विचार ।
किये चिर नरक-वास के योग्य, जिन्होंने पातक कई प्रकार ॥
किन्तु ये भी पा जावें स्वर्ग, मृत्यु पाकर इस शुभ संग्राम ।
हमें निश्चय है ऐसा सोच, असुर-बध का करती हो काम ।।१८
असुर-दल को निज ज्वाला-दृष्टि, डालकर भस्म न करतीं अम्ब !
किन्तु करती हो शस्त्र प्रहार, ॥शत्रु - दल - ध्वंस हेतु जगदम्ब ।।
तुम्हारा इसमें हेतु उदार, असुर-दल का भी हो उद्धार ।
पूत होकर शस्त्रों से उन्हें, मिले शुभ लोकों का अधिकार ।।१९
दीप्त ज्वाला-मय ज्योति विराट्, खड्ग की प्रभा देख विकराल ।
असुर जो खो न सके निज नैन, देख शूलाग्र कांति सु - विशाल ॥
एक ही कारण था कल्याणि ! कर रहा था दर्शन रिपु - जाल ।
तुम्हारे हिमकर-तुल्य अपूर्व, रश्मि-मय श्रीमुख का उस काल ।।२०
तुम्हारा शील देवि ! तत्काल, मिटा दे कुटिलों के दुर्भाव ।
तुम्हारा दिव्य अचिन्तित रूप, अतुल अनुपम श्री ज्योति-स्राव ।।
तुम्हारी विक्रम शक्ति अनन्त, देव - जित असुरों की बन अन्त ।
अम्ब ! इस भाँति शत्रु-कल्याण, हेतु प्रकटित की दया अनन्त ।।२१
न तुलना हो सकती है अम्ब ! तुम्हारे बल - विक्रम के साथ ।
कहाँ है ऐसा मन - हर रूप, शत्रु - भय - दायक शुभ श्रीनाथ ।।
तुम्हीं हो ऐसी देवि ! समर्थ, न त्रिभुवन में है कोई अन्य ।
कि जो रख उर में करुणा-भाव, समर -
निष्ठुर भी हो मूर्धन्य ॥२
जननि ! कर शत्रु-नाश दुर्दम्य, तुम्हीं ने रक्षित किये त्रिलोक ।
समर में कर दानव - संहार, उन्हें भी भेजा स्वर्ग अशोक ।।
हमें उन्मद असुरों की भीति, प्रबल से मुक्त किया सोल्लास ।
तुम्हारे श्रीचरणों में देवि ! भक्ति-युत प्रणत सदा हम दास ।।२३
रेणु करुणा छिड़को कर त्राण, शूल से तथा खड्ग से अम्ब !
करो रक्षण कर भैरव-नाद, प्रत्यंचा घण्टा से अविलम्ब ।।२४
चण्डिके ! प्राची पश्चिम और, करो दक्षिण दिशि से परित्राण ।
प्रधुरमित कर उत्तर दिशि शूल, करो संरक्षित आश्रित प्राण ।।२५
कर रहे विचरण रूप अनन्त, दिव्य श्री संयुत अखिल त्रिलोक ।
तुम्हारे सुन्दर घोर स्वरूप, बचाओ हमें सहित भू - लोक ॥२६
अम्बिके ! गदा त्रिशूल कराल, खड्ग आदिक आयुध ले पीन ।
करें कर-पल्लव रक्षण-कार्य, सर्वतः चरणाश्रित हम दीन ॥२७
श्री ऋषि कथन ॥२८॥
स्तवन कर देवों ने इस भाँति, चयन कर नन्दन - वन से फूल ।
दिव्य ले चन्दन गन्ध पदार्थ, अर्चना की मां की दुख भूल ॥२६
भक्ति से दिव्य धूप नैवेद्य, निवेदन कर श्रीचरण प्रणाम ।
किया सब देवों ने तब मुदित, अम्बिका बोलीं विहँस ललाम ॥३०
श्री देवि कथन ॥३१॥
देव-गण ! जो वांछित हो तुम्हें, मांग लो जी चाहा वर - दान ।।३२
देव-गण कथन ॥३३॥
जननि ! की तुमने पूर्ण समस्त, न अब कोई वांछा ध्यान ।।३४
सभी कुछ पाया हमने देवि ! देख रिपु महिषासुर का अन्त ।
महेश्वरि ! फिर भी वांछा एक, करें स्वीकृत हो करुणावन्त ।।३५
तुम्हें जब कभी स्मरण हम करें, उसी क्षण दें दर्शन अभिराम ।
मिटाती संकट रहें महान, हमारी कर रक्षा निशि - याम ॥३६
अम्बिके ! इन स्तुतियों से स्तवन, करे मानव, तो हो अनुकूल ।
उसे धन-वैभव - दारा सौख्य, सदा देवें मुद मङ्गल मूल ॥३७
श्री ऋषि कथन ॥३८॥
नृपति ! यों स्तवन सुरों ने किया, स्वयं का, जग का कर कल्याण ।
अम्बिका ने तथाऽस्तु कह दिया, हुई वे तत्क्षण अन्तर्धान ।। ३६
भूप ! इस भाँति पुरातन काल, अमर-गण के तन से अभिव्यक्त ।
विश्व-हित-कारिणि के अवतार, कथा का वर्णन किया समस्त ।।४०
कहूँगा मैं अब दिव्य चरित, भगवती गौरी देह प्रसूत
दुष्ट दानव-दल शुम्भ निशुम्भ, विमर्दित करने को उद्भूत ।।४१
लोक-रक्षण का ले उद्देश्य, देव गण पर करने उपकार ।
हुआ अवतार दिव्य भूपाल, सुनो सब चरित सहित विस्तार ।।४२
।। इति चौथा अध्याय ।।
पांचवां अध्याय
(देवी-स्तुति एवं प्राकट्य)
विनियोग : इस उत्तम चरित के ऋषि रुद्र, छन्द अनुष्टुप्, देवता महा-सरस्वती, शक्ति भीमा, बीज भ्रामरी, तत्व सूर्य, स्वरूप सामवेद और उत्तम चरित के पाठ का विनियोग श्री महा-सरस्वती की प्रसन्नता के लिये है।
ध्यान
ॐ जिनके कमल करों में शोभित, घण्टा, शङ्खः, शूल, हल, मूसल ।
चक्र, धनुष, सायक, मुख शोभा, दिव्य शरद शशि-कान्ति समुज्ज्वल ।।
गौरी देह प्रसूत, त्रिलोकाधार, विमर्दक शुम्भ - दैत्य - दल ।
उन श्री महा - सरस्वति देवी,
को भजता मैं प्रणत चरण-तल ।।
ॐ श्री ऋषि कथन ।।१।।
पूर्व-काल में प्रबल असुर थे,
शुम्भ निशुम्भ नाम के दुर्जय ।
हुए पराजित इन्द्र अपहरित,
यज्ञ-भाग गत-राज्य निराश्रय।।२
दोनों असुर त्रिलोकी-पति हो,
करने लगे विश्व का शासन ।
सूर्य, चन्द्र, यम, धनद, वरुण के, अधिकारों के उपभोगी बन ।।३
पवन, अग्नि के अधिकारों को,
लगे भोगने वे कृत - निश्चय ।
देव निकाले गये स्वर्ग से,
राज्य-भ्रष्ट हो, झेल पराजय ॥४
उत्पीड़ित होकर असुरों से, तिरस्कार सहकर हो लांछित ।
अपराजिता अम्बिका का,
देवों ने स्मरण किया क्षोभित चित ।।५
पूर्व-काल में महा-देवि ने,
दिया वचन वर-दान कृपा कर ।
'स्मरण किये जाने पर तत्क्षण, संकट नाश करूँगी गुरु - तर' ।।६
कर विचार सब देव आ गये, नग-पति हिम के विस्तृत अंचल ।
भक्ति-विनम्र विष्णु-माया का, स्तवन किया भर नैन अश्रु-जल ।।७
देव कथन ॥८॥
नमन देवि को, महा-देवि को,
शिवा देवि को सतत प्रणाम।
नमन प्रकृति को भद्रा के हम,
संतत प्रणत चरण अभिराम ॥ ६
नमन रुद्रिका को, गौरी, धात्री, नित्या को विनत प्रणाम ।
ज्योत्स्ना-मयि, हिम-कर-स्वरूपिणी,
सुख-दायक को नमन ललाम ।।१०
नमस्कार है कल्याणी को,
वृद्धि सिद्धि को बारम्बार ।
दानव-श्री, राज्य-श्री,
शर्वाणी,
को नमस्कार शत बार 1199
दुर्गा दुर्गम सङ्कट नाशिनि, सार-तत्व सब कर्म प्रवीण ।
ख्याति देवि कृष्णा धूम्रा के,
चरण विनत हम आश्रित दीन ॥१२
नमस्कार है अति सौम्या को, अति-रौद्रा को सतत प्रणाम ।
नमन देवि जो जगत प्रतिष्ठा,
कारण कृत्या मङ्गल धाम ॥१३
जो देवी हैं अखिल विश्व में,
ख्यात विष्णु-माया अनिवार ।
उसे नमन है, उसे नमन है,
उसे नमन है शत-शत बार ।।१४-१६
जो देवी सब प्राणि जगत में,
बनी चेतना चिति-विस्तार ।
उसे नमन है, उसे नमन है,
उसे नमन है शत शत बार ।।१७-१६
जो देवी हैं बुद्धि-रूप से,
संस्थित अखिल प्राणि संसार ।
उसे नमन है, उसे नमन है,
उसे नमन है, शत-शत बार ।।२०-२२
जो देवी निद्रा - स्वरूप बन,
होती अखिल भूत - संचार ।
उसे नमन है, उसे नमन है,
उसे नमन है शत - शत बार ।।२३-२५
क्षुधा - रूप से जो देवी,
संस्थित जीवों के उदर अपार ।
उसे नमन है, उसे नमन है,
उसे नमन है शत-शत बार ॥२६-२८
जो छाया - स्वरूप से देवी,
रहती प्रति प्राणी आकार ।
उसे नमन है, उसे नमन है,
उसे नमन है शत-शत बार ।।२९-३१
भरी हुई जो शक्ति-रूप में,
सब जीवों में एकाकार ।
उसे नमन है, उसे नमन है,
उसे नमन है शत-शत बार ।।३२-३४
तृष्णा - रूप विराज रही जो,
सब प्राणी के हृदयागार ।
उसे नमन है, उसे नमन है,
उसे नमन है शत शत बार ।।३५-३७
बन कर क्षमा-रूप सब
जीवों-में करती करुणा - संचार ।
उसे नमन है, उसे नमन है,
उसे नमन है शत शत बार ।।३८-४०
जो देवी सब प्राणि-जगत् में,
जाति रूप हो रही प्रसार ।
उसे नमन है, उसे नमन है,
उसे नमन है शत-शत बार ।।४१-४३
सब जीवों में जो प्रस्थापित,
ले लज्जा का मृदु आकार ।
उसे नमन है, उसे नमन है,
उसे नमन है शत-शत बार ।।४४-४६
जो हो शान्ति-स्वरूप विराजित, सब जीवों में देवि उदार ।
उसे नमन है, उसे नमन है,
उसे नमन है शत-शत बार ।।४७-४६
जो देवी श्रद्धा-स्वरूप संस्थित,
प्रति प्राणी के उर द्वार ।
उसे नमन है, उसे नमन है,
उसे नमन है शत-शत बार ।।५०-५२
गो-चर है जो कान्ति रूप से,
सब जीवों में तेज प्रसार ।
उसे नमन है, उसे नमन है, उसे नमन है शत शत बार ।।५३-५५
जो देवी लक्ष्मी- स्वरूप,
संस्थित है अखिल प्राणि-संसार ।
उसे नमन है, उसे नमन है, उसे नमन है शत - शत बार ॥५६-५८
वृत्ति-रूप से जो देवी सब,
प्राणी स्थित सक्रिय व्यापार ।
उसे नमन है, उसे नमन है,
उसे नमन है शत शत बार ।।५९-६१
सब जीवों में जो देवी
स्मृति-बनकर रहती सदा उदार ।
उसे नमन है, उसे नमन है,
उसे नमन है शत शत बार ॥६२-६४
जो देवी प्रति प्राणी में है,
दया रूप में ममता सार ।
उसे नमन है, उसे नमन है,
उसे नमन है शत शत बार ।।६५-६७
जो देवी सब प्राणि जगत में, तुष्टि-रूप हो रही प्रसार ।
उसे नमन है, उसे नमन है, उसे नमन है शत शत बार ।।६८-७०
जो देवी हो मातृ स्वरूपी,
अखिल जीव से करे दुलार ।
उसे नमन है, उसे नमन है,
उसे नमन है शत शत बार ।।७१-७३
सभी प्राणियों में जो देवी, भ्रान्ति-रूप कर भ्रम - विस्तार ।
उसे नमन है. उसे नमन है,
उसे नमन है शत शत बार ।।७४-७६
जो है अखिल प्राणियों को, सर्वेन्द्रिय स्वामिनि सूक्ष्माकार ।
व्याप्ति-देवि सब जीवों में, परि-व्याप्त नमन है शत शत बार ।।७७
चिति स्वरूपिणी जो देवी,
चैतन्य रूप कण-कण साकार ।
उसे नमन है, उसे नमन है, उसे नमन है शत शत बार ।।७८-८०
पूर्व-काल में सफल-काम देवों से वन्दित ।
देवराज से बहुत काल तक थीं आराधित ।
परमेश्वरि ! वे हों कल्याण-व्रती देवों प्रति ।
मंगल-दायनि ! करें सर्व-सङ्कट विच्छेदित ॥८१
हम सब देव इस समय उद्धत दैत्य-प्रपीड़ित,
विनत प्रणत हैं हम सब जिन श्रीचरणों के प्रति ।
तत्क्षण सर्वापद-नाशक जो,
भक्त संस्मरित,
वे अम्बिका हमारा संकट करें विचूर्णित ॥८२
श्री ऋषि कथन ।॥८३॥
राजन् ! स्तवन-मग्न देवों ढिंग,
हुईं देवि गिरिजा समुपस्थित ।
स्नान हेतु गंगा-तट पर, आई थीं देखे सुर-गण प्रार्थित ।।८४
पूछा गौरी ने उत्सुक हो, किसका स्तवन कर रहे सुर-गण ?
देह-कोश उनके से प्रकटित, हुईं शिवा देवी अगले क्षण ॥८५
बोलीं-'ये सारे सुर-गण हैं, शुंभ - निशुंभ दैत्य - सम्पीड़ित ।
युद्ध - पराजित अपमानित, कर रहे स्तवन मेरा विनम्र चित' ।।८६
इस प्रकार भगवती पार्वती, देह - कोश से होकर प्रकटित ।
ख्यात कौशिकी नाम सभी -लोकों में हुआ देवि का प्रचलित ।।८७
अम्बा का उद्भव होने पर, देवि पार्वती का तनु श्यामल ।
हुआ, अतः वे ख्यात विश्व में, हुईं 'कालिका' वास हिमांचल ॥८८
परम दिव्य अश्रुत अदृष्ट था, रूप अम्बिका का अति सुन्दर ।
शुम्भ-निशुम्भ भृत्य दो भीषण,
चण्ड - मुण्ड आये रजनी - चर ॥ ८९
देख अम्बिका-रूप, शुम्भ की -सेवा में आ किया निवेदन ।
महाराज ! है एक दिव्य, रमणी आभा-पूरित हिम-कानन ॥९०
वैसी अद्भुत रूप-राशि का, सम्भव नहीं कहीं पर दर्शन ।
असुरेश्वर ! ले परिचय उस-देवी को ग्रहण कीजिये तत्क्षण ॥९१
रमणी-रत्न, देह-छवि प्रोज्ज्वल, दिग-दिगन्त श्री अङ्ग प्रभा-मय ।
दर्शन - लाभ करें दानव - पति, वह संस्थित नग - राज हिमालय ॥९२
देव ! अखिल लोकों को मणियाँ, गज, हय दिव्य कोटि के अगणित ।
एकत्रित समस्त ये निधियाँ, भवन आपके में हैं शोभित ॥९३
ऐरावत गज, हय उच्चैश्रव, पारिजात तरु - राज मनोहर ।
ये तीनों विभूतियाँ अपहृत, इन्द्र - देव से हैं दनुजेश्वर ।॥६४
और विधाता का विमान, मणि-जटित हंस-गण से परिचालित ।
शोभित राज-महल प्राङ्गण में, निशिचर-नाथ ! आपके सुविदित ।।९५
महा-पद्म निधि भी कुबेर से, स्वामि ! आपने की है अधिकृत ।
किंजल्किनी-माल जल-निधि से, की चिर विकसित सरसिज शोभित ॥ ९६
वरुण-देव का हेम-प्रवर्षक, छत्र आपके भवन विराजित ।
परम दिव्य रथ छीन आपने, किया प्रजापति वाहन - वंचित ॥९७
उत्क्रान्तिदा शक्ति अपहृत की, मृत्यु - देवि से भी दैत्येश्वर !
बन्धु आपके ने अधिकृत, किया वरुण से पाश भयङ्कर ॥९८
श्री निशुंभ ने प्राप्त किये हैं, कई रत्न मणि निर्गत सागर ।
कर विशुद्ध दो वसन वन्हि ने, किये भेंट सेवा में सादर ॥ ९९
दैत्येश्वर ! इस भाँति आपने, किये रत्न सारे एकत्रित ।
क्यों न रत्न रमणी कल्याणी, को अधिकृत होते प्रमुदित ।।१००
श्री ऋषि कथन ।।१०१।।
चण्ड - मुण्ड सेनापति की, विस्तृत बातें सुनकर दैत्येश्वर ।
भेजा उत्सुक शुंभासुर ने, दूत बना सुग्रीव निशाचर ।।१०२
वचन कहे- "हे दूत ! देवि से, युक्ति सहित कहना समझाकर ।
करना वही उपाय, आ सके, यहाँ मुदित हो वह रमणी-वर ।।१०३
गया दूत देवी समीप अति, शोभित रम्य देश हिम-कानन ।
कर दर्शन बोला सु-मधुर, वाणी में कोमल वचन मुदित-मन ।।१०४
दूत कथन ॥१०५।।
"देवि ! इस समय हैं त्रिलोक के-ईश्वर शुम्भ-राज दैत्येश्वर ।
मैं हूँ उनका दूत यहाँ आया, उनसे निर्देशित होकर ।।१०६
सभी देव-गण हो परास्त, आज्ञा-वश-वर्ती जिनके अनुचर ।
वे अमोघ आदेश दैत्य-पति, सुनें संदेशा उनका मन-हर ।।१०७
कहा उन्होंने- "मैं त्रिलोक-पति,
हैं मेरे आधीन देव-गण ।
पृथक-पृथक मैं स्वयं भोगता, सभी यजन परिभाग सावरण ।।१०८
अखिल विश्व के सभी श्रेष्ठ-रत्नों पर मेरा स्वत्व अव्याहृत ।
ऐरावत गजेन्द्र को मैंने किया,
सुरेश निकट से अपहृत ॥१०६
अश्व-रत्न उच्चैश्रव भी जो, हुआ लब्ध क्षीरोदधि - मंथन ।
उसे सुरों ने चरण-प्रणत हो, मुझे किया स-विनीत समर्पण ॥११०
जो-जो दिव्य रत्न थे शोभन, देव नाग गन्धर्व अधिकृत ।
देवि ! सभी वे रत्न पास, मेरे हैं अखिल लोक अभिवंदित ।।१११
तुम्हें मानते हम सर्वोत्तम, रमणी - रत्न लोक-त्रय शोभन ।
अतः हमारे पास पधारो, केवल हमीं रत्न - भोगी जन ।।११२
मेरी अथवा परम शूर, भ्राता निशुम्भ की आश्रित होकर ।
चपले ! इच्छा वरण करो, तुम रत्न-स्वरूप समादर पाकर ।।११३
करने पर स्वीकार मुझे, अतुलित ऐश्वर्य लाभ का अवसर ।
स्वयं विचार करो निज-मति से, वरण करो मेरा, आ सत्वर ।।११४
श्री ऋषि कथन ।।११५॥
राजन ! अखिल विश्व की सर्जक, जगदम्बा सुन दूत - निवेदन ।
अन्तर विहॅसित प्रकट रूप में, बोलीं मधुर गिरा हो उन्मन ॥११६
श्री देवि कथन ।।११७।।
"सत्य कथन है दूत ! तुम्हारा, है त्रिलोक-पति शुम्भ निशाचर ।
उसके सदृश निशुम्भ बली है, किश्चित मिथ्या नहीं कथन पर ।।११८
कैसे भङ्ग प्रतिज्ञा कर लूँ, इसी विषय की मेरी अनुचर ।
पूर्व-काल से, स्वल्प बुद्धि, प्रेरित हो मैं प्रण-बद्ध विवश-तर ।।११६
जो रण - विजयी होगा मेरे-शक्ति-दर्प को कर वित्खण्डित ।
तुल्य शक्ति-धर जन ही ऐसा, होगा मेरा भर्ता निश्चित ॥१२०
अतः महासुर शुम्भ स्वयं, अथवा निशुम्भ आये हो तत्पर ।
मैं समरोत्सुक यहाँ, विजय पा-मुझे वरण कर लें आ द्रुत-तर।।१२१
दूत कथन ॥१२२॥
"देवि ! तुम्हारा यह प्रत्युत्तर, अनुचित शक्ति - दर्प से पूरित ।
कौन समर्थ त्रिलोकी में जो, शुम्भ-निशुम्भ अग्र हो प्रस्थित ॥१२३
सारे देव निशाचर दल के, सम्मुख खड़े न रहते पल भर ।
फिर एकाकी, तुम अबला, कैसे रण हेतु हो रही तत्पर ॥१२४
और दैत्य-पति शुम्भ आदि से, इन्द्रादिक सुर सम्मुख सङ्गर
-नहीं कर सके, भला नारि तुम, कैसे कर लोगी रण दुर्धर ।।१२५
यही उचित अब तुम हो जाओ,
शुम्भ-निशुम्भ निकट समुपस्थित । चलो, अन्यथा केशाकषित,
तुम जाओगी हो अपमानित" ।।१२६
श्री देवि कथन ॥१२७।।
"निश्चय दूत ! परम बल-शाली, शुम्भ - निशुम्भ युगल हैं दुर्जय ।
किन्तु पूर्व में अविचारित हो, मैंने प्रण कर डाला अक्षय ।।१२८
मैं प्रण-बद्ध विवश हूँ जाकर, कहना देत्य - राज से सादर ।
जैसा उचित जान पड़ता हो, वैसा करें यही है उत्तर" ॥१२६ ।।
इति पाँचवाँ अध्याय ।।
छठा अध्याय
(धूम्र - लोचन वध)
ध्यान
ॐ माला दिव्य नाग-मणि शोभित, नाग-राज है जिनका आसन । ज्योतित देह तेज दिन-मणि सा, जिनके नयन तीन अति शोभन । कर में माला, कुम्भ, मुण्ड, नीरज, हिम - कर - किरीट शोभा घन । करता हूँ सर्वज्ञेश्वर भैरव, अङ्क-स्थित अम्बा - चिन्तन ।।
श्री ऋषि कथन ॥१॥
सुन देवि-वचन तब दूत चला हो अति क्रोधित ।
जा किया कथन दैत्येश निकट सब कुछ विस्तृत ॥२
दैत्येश शुम्भ कर श्रवण दूत - वाणी, सरोष ।
बोला सेना-पति धूम्र-विलोचन ! से स-घोष ।।३
"हे धूम्र-विलोचन सैन्य-सहित जाकर सत्वर ।
लाओ गर्विष्ठा को केशापकर्ष देकर ॥४
यदि उसके रक्षण हित हो कोई समुपस्थित ।
वध कर डालो गन्धर्व, यक्ष, सुर, अविचारित" ।।५
श्री ऋषि कथन ।।६।।
आदेश शीश धर चला धूम्र-लोचन भीषण ।
ले साठ सहस्र निशाचर-दल अतिशय दारुण ।।७
जा देखी छवि अम्बा की हिम-नग के अञ्चल ।
बोला मरणोन्मुख- "अरी ! दैत्य-पति के ढिग चल ॥८
यदि तू न चलेगी स्वेच्छा से रमणी चञ्चल ।
तो ले जाऊँगा तुझे केश - कषित विह्वह्नल" ।।९
श्री देवी कथन ।।१०।।
"तुम सम्प्रेषित दैत्येश, बली, सेना कराल ।
यदि बल प्रयोग कर सको, करो मैं अवश हाल" ।।११
श्री ऋषि कथन ।।१२।।
सुन झपटा असुर अम्बिका-दिशि हो क्रोधान्वित ।
हुंकार मात्र से गिरा भस्म में हो परिणत ।।१३
क्रोधान्ध अम्बिका औ' दानव-सेना विशाल ।
अविरत वर्षण-रत शक्ति, परशु खर, शरज्जाल ।।१४
दुर्दान्त कुपित, भैरव-नादित कम्पित केशर ।
कूदा केहरि देवी-वाहन निशि चर दल पर ।।१५
अगणित को सबल करों डाढों से कर आहत ।
अगणित को दृढ़ जबड़ों से कर डाला विक्षत ।।१६
अगणित असुरों के, तीक्ष्ण नखों से उदर फाड़ ।
सिर खण्डित कराघात से कर भीषण दहाड़ ।।१७
अगणित असुरों के बाहु शीश को कर खण्डित ।
कर शोणित पान विदीर्ण-उदर केशर कम्पित ।।१८
यों हुआ केशरी देवी - वाहन क्रोधोद्धत ।
क्षण में विनष्ट की असुर-सेन होकर रण-रत ॥१६
जब सुना शुम्भ ने निधन धूम्र-लोचन उदण्ड ।
देवी-वाहन ने की समस्त सेना विखण्ड ॥२०
धीरज विनष्ट दैत्येश शुम्भ क्रोधित प्रचण्ड ।
रोषाक्त प्रस्फुरित अधर बुलाये चण्ड-मुण्ड ।।२१
आदेश दिया "हे चण्ड-मुण्ड, जाओ ! तुरन्त ।
ले जाओ अपने साथ वाहिनी भी अनन्त ।।२२
केशापकर्ष कर लाओ उसको कर बन्धन ।
यदि शक्य न हो तो बल-कौशल से करो निधन ।।२३
संहार केहरी औ' उस दुष्टा का सत्वर ।
अथवा अम्बा का कर बन्धन लौटो द्रुत-तर" ।। २४॥
इति छठा अध्याय ।।