श्री दुर्गा सप्तशती- आचार्य सदानंद – समीक्षा & छन्द 4
श्री दुर्गायन" दर असल श्री दुर्गा सप्तशती का छन्द अनुवाद है जो आचार्य सदानंद द्वारा किया गया है । इसके प्रकाशक शाक्त साधना पीठ कल्याण मंदिर प्रकाशन अलोपी बाग मार्ग इलाहाबाद 6, थे। यह जुलाई 1987 में प्रकाशित की गई थी ।तब इसका मूल्य ₹10 रखा गया था। अब यह पुस्तक अप्राप्त है ।
पुस्तक के अनुक्रम में कुल 21 बिंदु रखे गए हैं। सबसे पहले श्रीपाद मुक्तानंद जी का आशीर्वाद है। सप्त श्लोकी दुर्गा' अर्गला स्तोत्र, कीलक स्तोत्र, श्रीदेवी कवच, रात्रि सूक्त के बाद पहले से 13 वे तक अध्याय लिखे गए हैं। अंत में देवी सूक्त और क्षमा प्रार्थना शामिल की गई है। भूमिका में श्रीपाद मुक्तानंद जी लिखते हैं कि सदानंद जी ने एम ए हिंदी साहित्य से किया है। साहित्य रत्न किया है और कवि रत्न भी किया है । इसलिए उनकी भाषा और व्याकरण में गहरी रुचि और गति है। दुर्गा सप्तशती के अनुवाद के पदों की भाषा संस्कृत निष्ठ होने के बाद भी लालित्य पूर्ण है। कहीं भी जटिलता और कठिनाई महसूस नहीं होती है। संस्कृत निष्ठ भाषा होते हुए भी यह भाषा आम आदमी की समझ में आ जाएगी। सबसे बड़ी बात यह है कि कठिन श्लोक का सरलतम अनुवाद श्री सदानंद जी ने किया है। हिंदी साहित्य सदानंद जी का बड़ा आभारी रहेगा। यह पुस्तक जब से पढ़ी है। अनेकों बार समीक्षक ने इसका अध्ययन किया है और कहीं भी कोई त्रुटि महसूस नहीं होती है। इस पुस्तक के समीक्षा के प्रमाण में कुछ अध्याय और पद प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
सातवाँ अध्याय
(चण्ड और मुण्ड का वध)
ध्यान
ॐ बैठीं रत्न-सिंहासन, सुनें शुक-वाणी मृदु,
श्याम अङ्ग छवि, एक चरण सरोज पर ।
शीश दिव्य अर्ध-चन्द्र शोभित कल्हार पुष्प-माला वर राजित सु-वादिनी जो वीणा-धर ।
छवि-मय चोलिका कसी है
लसी रक्त-वर्ण,
सारी दिव्य, शङ्खः शुचि पान-पान लिये कर ।
शोभित ललाट बेंदी भासित प्रभाव मधु,
'महा-देवि मातङ्गी' मैं ध्यान रत-अनुचर ।।
ॐ ऋषि कथन ।1911
दैत्येश शुम्भ का पा आदेश शस्त्र - सज्जित ।
चतूरङ्गिणि सेना लिये चले दोनों गर्वित ॥२
पाया स्वर्णिम हिम-शिखर पहुँच देवी-दर्शन ।
मन्द-स्मित शश्रीमुख सिह-विराजित तेजो-धन ।।३
दानव-दल करने लगा देवि बन्धन उद्यम ।
ले धनु, कृपाण आसन्न चतुर्दिक हो निर्मम ॥४
रिपुओं का साहस निरख अम्बिका को भीषण,
छा गया क्रोध विकराल हुआ श्यामल आनन ।।५ ।।
भ्रू-चाप कुटिल से ज्वाला प्रकट हुई तत्क्षण ।
असि, पाश हस्त-धारी कालिका कराल-वदन ॥६
अद्भुत खट्वाङ्ग मुण्ड - माला ग्रीवा - भूषण ।
था व्याघ्र-चर्म परिधान शुष्क भय-दायक तन ॥७
अति दीर्घ प्रसारित वदन रक्त जिह्वा लोलित,
रक्तिम कोटर-गत नयन नाद दिशि-दिशि गुंजित ।। ८ उल्का-प्रपात सी टूट पड़ी दानव दल पर ।
दित, द्रुत-भक्षित, दलित, लगे होने निशिचर ।।६
अगणित संरक्षक चालक, गज घण्टा संयुत ।
योद्धाओं को धर एक हस्त ले मुख में द्रुत ।।१०
यों ही रथ, सारथि, अश्व, रथी-गण को तत्क्षण ।
मुख डाल चबाया काली ने' क्रोधान्ध प्रमन ।।११
अगणित केशोधृत हुये ग्रीव - कर्षित अगणित ।
अगणित पद-मर्दित उर-प्रघात से मृत अगणित ॥१२
रिपु-दल संधानित अस्त्र-शस्त्र मुख विवर पकड़ ।
अत्युग्र रोष, धर - दशन पीस देती कड़-कड़ ।।१३
बल-गर्वित दुष्टात्मा असुरों का दल समस्त ।
पद-मर्दित भक्षित और पलायित हुआ ध्वस्त ।।१४
कितने खण्डित असि-घात हुए खट्वाङ्गाहत ।
कितने ही चर्वित दन्त हुए संभक्षित मृत ॥१५
इस भाँति देख क्षण-भर में निज सेना विनष्ट ।
दौड़ा दानव-पति चण्ड कालिका ओर धृष्ट ।।१६
कर शर-वर्षण औं' चक्र सहस्रों संधानित ।
दैत्येश मुण्ड ने की काली अस्त्राच्छादित ॥१७
काली मुख-विवर प्रवेशित चक्र हुए शोभित ।
ज्यों हों प्रविष्ट मेघोदर अगणित रवि ज्योतित ।।१८
अत्युग्र कोप कर किया कालि ने विकट हास ।
दशनावलि भीषण वदन-कूट प्रोज्ज्वल प्रकाश ॥१६
हंकार उचार कालिका ने कर असि-प्रहार ।
गह केश चण्ड-सिर काट उड़ाया एक वार ।।२०
मृत देख चण्ड को, मुण्ड घोर झपटा स-बाण ।
काली असि से हो खण्ड गिरा भू विगत-प्राण ॥२१
यों दोनों बल - धारी दनुजों का देख अन्त ।
भागे अवशिष्ट निशाचर भय व्याकुल दुरन्त ॥ २२
काली ने मस्तक लिये हाथ में चण्ड-मुण्ड ।
आई अम्बिका समीप, कहा हँसकर प्रचण्ड ।।२३
"ये चण्ड-मुण्ड पशु, युगल-भेंट में हैं अर्पित ।
रण-यज्ञ करो इति, शुम्भ-निशुम्भ दैत्य कर हत" ।॥ २४
श्री ऋषि कथन ।।२५।।
देखे दोनों दैत्यों के मस्तक उच्छेदित
बोलीं मृदु-वाणी काली से चण्डिका मुदित ॥२६
"देवी ! तुम मस्तक ले आई हो चण्ड-मुण्ड ।
होगा चामुण्डा नाम ख्यात भू पर प्रचण्ड” ।।२७।।
इति सातवाँ अध्याय ।।
(रक्त-वीज-बध)
ध्यान
ॐ देह श्री अरुणाभ करुणा-पूर्ण नयन विशाल ।
पाश, अंकुश, वाण, धनु, धर-हस्त ज्योतित भाल ।
सिद्धि, अणिमा आदि किरणावृत्त तेज प्रधान ।
मैं भवानी श्रीचरण का सतत अनु-रत ध्यान ।।
श्री ऋषि कथन ।।१।।
कर श्रवण संवाद, दानव चण्ड-मुण्ड-विनाश ।
दनुज - सेना बहुल संक्षय हुई गिर यम-पाश ।।२
परम बल-शाली दनुज-पति शुम्भ कोपाधीन ।
किया निर्देशित सजे सेना समस्त प्रवीण ॥३
हो छियासी उदायुध सेनप अनी सन्नद्ध ।
कम्बु चौरासी चमू - पति चलें रण क्रम-बद्ध ।।४
कोटि-वीर्य पचास, धौम्रज शत अनी-पति वीर ।
चले सेना सहित रण में शस्त्र सज मति-धीर ॥५
मौर्य, दौहृद, कालकेय स-सेन कालक शूर ।
शीघ्र जावें रण परम आदेश मेरा क्रूर ।।६
भीम शासक शुम्भ ने आदेश दिया कठोर ।
चला लेकर स्वयं शत-शत विकट सेना और ।।७
(
१०१
देख आती दनुज-सेना कोटि - कोटि कराल ।
देवि-ज्यों-टंकार गुंजित हुआ नभ पाताल ॥5
केहरी-गर्जन महा- रव मिला उसके साथ ।
अम्बिका ने किया वर्धित बजा घण्टा हाथ ॥६
नाद-ज्यों ज, वन-राज, घण्टा प्रपूरित दिक्-छोर ।
कालिका-मुख से हुआ गर्जन कराल कठोर ।।१०
सुना भैरव नाद आई दनुज-सेन विशाल ।
चतुर्दिक् से देवि, केहरि, कालि घेरा डाल ॥११
इसी क्षण सुर-अभ्युदय औं' दनुज-दल का नाश ।
हेतु लेकर, शक्तियाँ प्रकटीं घिरा आकाश ॥१२
विष्णु शिव ब्रह्मा सुरेश्वर कार्तिकेय कुमार ।
शक्तियाँ हो प्रकट आईं देवि ढिग साकार ।।१३
जिन सुरों का जिस तरह था रूप, वाहन, वेश ।
शक्ति उनकी तुल्य सज्जित आ गईं रण-देश ॥१४
प्रथम आई शक्ति विधि की हंस वाहन भव्य ।
लिये ब्रह्माणी कमण्डलु, अक्ष माला नव्य ।।१५
हो वृषभ आरूढ माहेश्वरि लिये कर शूल ।
शीश हिमकर-रेख कंकण नाग-वर अनुकूल ।।१६
कार्तिकेय - स्वरूप कौमारी मयूरारूढ ।
शक्ति लेकर हाथ आई हो समर आरूढ ।।१७
समर-भू में गरुड़-राजित वैष्णवी अभिराम ।
आ गई, कर शङ्ख, असि, धनु, चक्र, गदा ललाम ।।१८
शक्ति वाराही अनूपम रूप ले वाराह ।
आ गई रण, प्रकट श्रीपति-अंश ले
सोत्साह १९
नारसिंही आ गई छवि ले नृसिंह कराल ।
बिखरते नक्षत्र नभ आघात केश-जाल ।।२०
आ गई ऐन्द्री, लिये कर वज्र चढ़ गज-राज ।
सहस-नयनी इन्द्र जैसे रूप से सज साज ॥२१
शक्ति-केन्द्रित चण्डिका से रुद्र बोले वाणि ।
मोद-हित मेरे करो दानव-विनाश भवानि ॥२२
परम भीषण शक्ति प्रकटित हुई चण्डी-अङ्गः ।
उग्र भैरव शिवा शत शत नादिनी भयदङ्गः ।।२३
जटा धूमिल रुद्र से बोलीं अविजिता और ।
"देव ! होकर दूत जायें शुम्भ दानव ठौर ॥२४
कहें शुम्भ - निशुम्भ बल-मद अन्ध से संदेश ।
युद्ध-आगत अन्य निशि-चर-वृन्द को निर्देश ॥२५
दानवो ! यदि प्राण प्रिय तो जा बसो पाताल ।
भाग पायें यजन सुर, त्रैलोक्य इन्द्र विशाल ।।२६
हो रणोत्सुक बल प्रगर्वित तो बढ़ो कर साज ।
तृप्त कच्चे मांस से मेरी शिवा हों आज" ॥२७
स्वयं शिव को दूत-पद पर किया कार्य-नियुक्त ।
देवि वह 'शिव-दूतिका' प्रख्यात जग उपयुक्त ॥ २८
प्रबल निशि-चर रुद्र से सुन देवि का सन्देश ।
चले क्रोधान्वित जहाँ स्थित अम्बिका वर-वेश ॥२६
लगे बरसाने पहुँच कर बाण - शक्ति प्रऋष्टि ।
अम्बिका पर प्रथम ही निशि-चर अमर्षित दृष्टि ॥३०
देवि ने खर बाण-वर्षक कर धनुष टंकार ।
किये रिपु के परशु, सायक, शक्ति, शूल प्रछार ।।३१
तब बढ़ीं विकराल काली कर त्रिशूलाघात ।
और कर खट्वाङ्ग-चूर्णित विदीणित अरि-गात ॥३२
देवि ब्रह्माणी प्रधावित जल कमण्डलु डाल ।
लगीं करने ध्वंस पौरुष ओज रिपु तत्काल ॥३३
शूल से माहेश्वरी औं वैष्णवी ले चक्र
शक्ति कौमारी कुपित रत नाश अरि-दल वक्र ॥३४
गिरे शतशः दनुज भू पर स्रवित शोणित-धार ।
छिन्न होते अङ्ग ऐन्द्री के कुलिश की मार ॥३५
हुए वाराही भयंकर तुण्ड से संहार ।
रिपु अनेक,
विदीर्ण उर खा दन्त - चक्र-प्रहार ।।३६
नारसिंही नखोच्छेदित गिरे दैत्य विशाल ।
रण-प्रधावित सिह-गर्जन नाद नभ दिक्-जाल ।।३७
अनगिनत दानव गिरे सुन अट्टहास प्रचण्ड ।
भीम शिव-दूती चबाती गिरे दनुज प्रखण्ड ॥ ३८
मातृ-गण को देख क्रोधित दनुज-ध्वंस कराल ।
दैत्य-सैनिक समर-भू से भगे भय - बेहाल ॥ ३६
देख विह्वल दनुज-दल का पलायन-व्यापार ।
परम दानव रक्त-बीज बढ़ा स-कोप प्रचार ।।४०
एक शोणित बिन्दु गिरता भूमि दैत्य शरीर ।
प्रकट तत्सम दैत्य होता उसी क्षण भू-चीर ।।४१
धिक्-कुपित दानव गदा ले रक्त-बीज कराल ।
बढ़ा, ऐन्द्री देवि ने मारा कुलिश विकराल ॥४२
वज्र-आहत दैत्य-तन से झरी शोणित - धार ।
हुए उद्भव रूप बल तत्सम निशाचर झार ।।४३
बिन्दु जितने गिरे भू पर रक्त निशि-चर-देह ।
प्रकट तत्क्षण हुये सम- बल वीर्य-पुरुष सदेह ।।४४
पुरुष रक्तोत्पन्न भीषण अस्त्र - शस्त्र प्रहार ।
लगे करने मातृ-गण से युद्ध घोर प्रचार ॥४५
फिर हुआ आहत विणित भाल वज्राघात ।
हये शोणित-धार से शतशः असुर क्षण-जात ॥४६
वैष्णवी ने दनुज पर तब किया चक्र-प्रघात ।
और ऐन्द्री ने गदा से किया तीव्राघात
चक्र-आहत असुर - तन से बहा रक्त-प्रवाह ।
छा गये दानव प्रकट हो, जग धरा-कण राह ॥४८
शक्ति कौमारी, वराही खड्ग, गौरी शूल ।
ले स्व-आयुध किया आहत रक्त-बीज समूह ॥४६
ले गदा कर तब महासुर ने स-रोष प्रचार ।
मातृ-गण पर पृथक क्रम से किये क्रूर प्रहार ।।५०
शूल एवं शक्ति-आहत हो असुर प्रति - बार ।
रुधिर उसके से प्रकट दानव हुये शत-बार ।।५१
असुर-शोणित से प्रकट थे दनुज जग परि-व्याप्त ।
देख यह अम्बर अमर-गण भीति को थे प्राप्त ।।५२
निरख सुर-भय चण्डिका ने कहे वचन तुरन्त ।
"कालि ! चामुण्डे !! प्रसारित मुख करो अत्यन्त ॥५३
धार शोणित दनुज-तन से गिरे शस्त्र प्रहार ।
निगल जाओ त्वरित मुख में झेल शोणित-धार ।।५४
और भक्षण करो सत्वर दैत्य मायिक वृन्द ।
क्षीण-शोणित निशाचर का अन्त हो निर्द्वन्द ।।५५
खाद्य होने पर तुम्हारे फिर न जन्म समर्थ" ।
अम्बिका ने कहा फेंका शूल दानव अर्थ ।।५६
कालिका-मुख गई दानव - देह-शोणित-धार ।
चण्डिका पर दैत्य ने तब किया गदा-प्रहार ।।५७
दे सका पीड़ा न किश्चित वह गदा-आघात ।
रक्त-बीजक स्वयं था आहत, रुधिर-परि-स्नात ।।५८
प्रवह शोणित जा रहा था कालिका-मुख-गर्त ।
वदन में होते प्रकट दानव - रुधिर - आवर्त ।।५६
खा रही थी कालिका उनको स-शोणित पान ।
शूल, असि, पवि, ऋष्टि, शर थे देवि-कृत सन्धान ।।६० विगत-शोणित घोर आहत महासुर बलवान ।
गिरा भू पर रक्त-बीजक शस्त्र-हत निष्प्राण ।।६१
भूप ! देखा सुर-गणों ने रक्त - वीज-निपात ।
हर्ष-विह्वल मोद - पूरित हुये उनके गात ।।६२
मातृ-गण कर पान शोणित असुर-दल का और ।
विजय-मद से था मदोद्धत नृत्य-रत उस ठौर ॥६३ ।।
इति आठवाँ अध्याय ।।
नवाँ अध्याय
(निशुम्भ-बध)
ध्यान
ॐ जिनकी दिव्य-कान्ति पीतारुण, स्वर्ण पुष्प बंधूक ललाम ।
जिनके कर शोभित, पाशांकुश, माला अक्ष, वरद अभिराम ।
अर्ध-चन्द्र आभूषण जिनका, तीन नयन शुचि शोभा-धाम ।
श्रीअर्धाम्बिकेश चरणों का, मैं आश्रित सेवक निशि-याम ।।
सुरथ कथन ।। १ ।।
देव ! यह रक्त-बीज - संहार, परम अद्भुत प्रसङ्ग इतिहास ।
सुनाया मुझे कृपा कर दिव्य, महा-देवी का चरित विलास ॥२
योगि-वर ! है अभिलाषा और, असुर क्रोधोन्मद शुम्भ निशुम्भ ।
देख कर रक्त-बीज का अन्त, किया क्या दोनों ने बल दम्भ ॥३
श्री ऋषि कथन ॥ ४ ॥
नृपति ! दानव - सेना के साथ,
देख कर रक्त-बीज का अन्त ।
असीमित क्षोभित शुम्भ-निशुम्भ, हुए रोषानल दग्ध अनन्त ॥५
देख विध्वंसित सैन्य विशाल, साथ ले अगणित दैत्य प्रधान ।
वेग से झपटा देवी ओर, महा - दानव निशुम्भ बलवान ॥६
साथ थे आगे, पीछे, पार्श्व, भयानक महा- दनुज चहुँ ओर ।
चबाते हुए ओष्ठ संक्रुद्ध, बढ़े देवी दिशि करते रोर ॥७
परम पौरुष - शाली दनुजेश, शुम्भ अपनी सेना ले सङ्ग ।
बढ़ा करने रण में संहार, देवि औं' मातृ - गणों के अङ्ग ॥८
देवि का शुम्भ निशुम्भ स-सेन, साथ तब छिड़ा घोर संग्राम ।
दैत्य दोनों थे रत शर-पात, मेघ ज्यों वर्षा - रत उद्दाम ॥९
चण्डिका ने सायक संधान,
काट फेंका दानव शर-जाल,
शत्रु अङ्गों पर किया प्रहार, प्रवर्षित कर आयुध तत्काल ।।१०
परम क्रोधित निशुम्भ ले हाथ, तीक्ष्ण असि और प्रभा-मय ढाल ।
बढ़ा आगे, फिर किया प्रहार, देवि - वाहन केहरि के भाल ।।११
देख निज वाहन ताड़ित देवि, हाथ में ले क्षुरप्र विकराल ।
किया सन्धान, गिरी हो खण्ड, शत्रु असि, अष्ट-चन्द्र की ढाल ।।१२
फेंक कर खण्डित ढाल कृपाण, असुर ने किया शक्ति से वार ।
किन्तु कर दिये शीघ्र दो खण्ड, देवि ने कर निज चक्र प्रहार ।।१३
दग्ध कोपानल हुआ निशुम्भ, उठाया कर में तीक्ष्ण त्रिशूल ।
लक्ष्य ले फेंका, हुआ विनष्ट, मुष्टिकाघात देवि से धूल 11१४
चण्डिका पर भर क्रोधावेग, गदा का किया असुर ने वार ।
किन्तु वह देवी हस्त-त्रिशूल, घात से हुई खण्ड हो छार ।।१५
बा जबढ़ लेकर परशु निशुम्भ, युद्ध - मद - विह्वल दैत्य-प्रधान ।
देवि ने, कर प्रहार शर तीक्ष्ण, किया मूर्छित भू-तल म्रियमाण ।।१६
शुम्भ दैत्येश पराक्रम भीम, देखकर अनुज दशा युत रोष ।
अम्बिका - बध को हो सन्नद्ध, बढ़ा आगे क्रोधांध सघोष ॥१७
सुशोभित था रथ पर दैत्येश, अष्ट-भुज आयुध लिये कराल ।
बाहुओं से था नभ परिव्याप्त, दृश्य था विस्मय-कर उस काल ।।१८
निरख-कर आते शुम्भ, निनाद-देवि ने किया शङ्ख का घोर ।
किया प्रत्यश्वा से टङ्कार, परम दुस्सह ध्वनि महा कठोर ॥१६
वैत्य-दल तेज - विनाश समर्थ, महा - घण्टा था उनको प्राप्त ।
निनादित उसे देवि ने किया, दिशायें हुई नाद से व्याप्त ॥२०
दहाड़ा केहरि हो संक्रुद्ध, विगत-मद हों जिससे गज-राज ।
प्रति-ध्वनि गूंजी भू आकाश, दसों दिशि गरजा बादल राज ॥२१
किया काली ने नभ में कूद, भूमि पर युगल हस्त आघात ।
हुआ अति भीषण नाद कराल, प्रति - ध्वनि उग्र तड़ित सम्पात ।।२२
किया शिव-दूती ने अत्युग्र, दनुज - दल दाहक अट्ट-प्रहास ।
हुए सब निशि-चर कम्पित भीत, शुम्भ ने छोड़ा कोप प्रश्वास ।।२३
देवि ने कहा लक्ष्य कर शुम्भ, "दुरात्मा ! रह संस्थित संग्राम" ।
गगन से सुर-गण का जय-नाद, सुनाई पड़ा देवि के नाम ॥२४
शुम्भ ने आगे बढ़कर शक्ति, ज्वाल-मय भीषण की संधान ।
देवि ने उल्का फेंक निरस्त, उसे की पावक गिरि उपमान ।।२५
शुम्भ ने किया केहरी-नाद, गुँजाए ध्वनि से तीनों लोक ।
प्रति-ध्वनि वज्त्र-प्रपात समान, छा गई अन्य नाद को रोक ॥२६
योजना-बद्ध उग्र शर-वृष्टि, देवि दानव के अमित प्रहार ।
परस्पर ही वे विशिख कराल, गिरे शत सहस खण्ड हो छार ॥२७
परम क्रोधित हो लेकर शूल, किया चण्डी ने तीव्राघात ।
गिरा भू हो चेतना-विहीन, निशाचर शुम्भ विदीणित गात ॥२८
इसी क्षण पाकर चेत निशुम्भ, युद्ध - रत हुआ धनुश्शर तान ।
देवि, काली, केहरि तन किया, विद्ध विशिखों का कर संधान ॥२९
दूसरे क्षण सहस्र - दश बाहु, बनाकर भीषण भैरव वक्र ।
देवि को आच्छादित सा किया, चलाकर शत शत दुर्दम चक्र ॥३०
हुई तब महा-देवि अति क्रुद्ध, भगवती दुर्गा नाशक व्याधि ।
तीक्ष्ण शर से कर डाले छिन्न, चक्र शर दानव जनित उपाधि ॥३१
देखकर यह निशुम्भ भर वेग, देवि पर झपटा सेना साथ ।
देवि वध का लेकर उद्देश्य, गदा अति भीषण ले ली हाथ ।।३२
निकट आते ही काटी गदा, चण्डिका ने तब चला कृपाण ।
भयानक कोप-मग्न हो शूल, हाथ में लिया असुर ने तान ।।३३
देख कर सम्मुख दैत्य निशुम्भ,
देव परि - पीड़क लिये त्रिशूल । चण्डिका ने सवेग अरि-वक्ष, फाड़ डाला प्रहार कर शूल ॥३४
विदीर्णित दानव-उर से शीघ्र, दूसरा पुरुष महा - बलवान ।
प्रकट हो बोला गर्जित क्रुद्ध, "खड़ी रह, ठहर” सहित अभिमान ॥३५
निष्क्रमित निशि-चर की सुन बात, हँस पड़ीं देवि हाथ ले खङ्गः ।
शीस काटा तत्क्षण, तब गिरा, धरा पर खण्डित दानव अङ्गः ॥३६
परम क्रोधित केहरि की डाढ़, प्रचरवित असुर कण्ठ विकराल ।
हुए काली, शिवदूती भक्ष्य, अनेकों दानव पड़ मुख काल ।।३७
अनेकों गिरे अङ्ग विच्छिन्न, देवि कौमारी शक्ति - प्रहार ।
अनेकों भागे हो निस्तेज, मन्त्र-जल ब्राह्मी की बौछार ॥३८
हुए अगणित भू - शायी दैत्य, प्रहारित गौरी शूल प्रचण्ड ।
विणित चूर्णित हुये असंख्य, वराही तुण्ड - घात उद्दण्ड ।।३०..
वैष्णवी के खर चक्र-प्रहार, गिरे दानव हो हो शत-खण्ड ।
मरे अगणित खा वज्राघात, भगवती ऐन्द्री अस्त्र प्रचण्ड ।।४०
हुए अगणित विनष्ट संग्राम, अनेकों भागे भय - वश दीन ।
शेष थे ग्रास, कालिका, सिंह, और शिव-दूती के मुख लीन ।।४१ ।। इति नवाँ अध्याय ।।