Purnima - 2 in Hindi Short Stories by Soni shakya books and stories PDF | पुर्णिमा - भाग 2

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पुर्णिमा - भाग 2

पूर्णिमा ओ पूर्णिमा, कहां चली गई। 

आज खाना मिलेगा कि नहीं, पता नहीं सारा दिन क्या‌ करती रहती है।

चार लोगों का खाना बनाने में चार घंटे लगाती है।

बस...भेज दिया!

पुर्णिमा चुपचाप रसोई में सब सुनती रही बस इतना ही कह पाई _रोटिया बन गई है माजी बस अभी परोस देती हु ।

अगर शशि भी आ जाती तो...

पुर्णिमा अपनी बात पुरी करती इससे पहले ही सासुमा बोल पड़ी __आ जाएगी स्कूल ही गई है लन्दन नहीं गई है 

पता है आज उसका रिजल्ट आने वाला है, कोई तुफान नहीं आ रहा।

वो नहीं आएगी तब तक हमें खाना नहीं मिलेगा क्या?

पुर्णिमा चुपचाप खाना परोसने लगी , अभी खाना खत्म भी नहीं हुआ था कि शशि जोर से चिल्लाते हुए आती है देखो मां _मेरा रिजल्ट!

मैंने टॉप किया है मां !!

पुर्णिमा एकदम चुप हो गई मानो शुन्य में चली गई हो।

पूरे 20 साल बाद आज उसका अतित फिर उसके सामने आ धमका।

दृष्टिपटल पर एक एक पन्ना पलट रहा था। 

 अतित की सारी स्मृतियां उसके सामने जैसे पहाड़ बनकर खड़ी हो गई थी ‌।

कितनी विवस थी  तब वो।

अपने लिए आवाज भी नहीं उठा पाई  थी ढंग से ।

मन आशंकाओं से भर गया,

फिर वही डर मन में भर गया_कही दुबारा तो वो सब नहीं होने वाला? 

क्या शशि को भी ग्रहण लगने वाला है?

क्या शशि भी...

चारदिवारी में कैद हो जाएगी मेरी तरह

ग्रहणी बनकर। 

क्या उसे भी अपनी इच्छाओं को मारना होगा?

क्या शशि अपनी उम्मीदों की उड़ान भर पाएगी या उसके पंख भी काट दिए जाएंगे?

जाने कितने सवालों ने उसके दिलो-दिमाग में तुफान मचा दिया था।

तभी शशि ने पूर्णिमा का पल्लू पकड़ कर कहा__

क्या हुआ?

कहां खो गई मां , क्या तुम्हें खुशी नहीं हुईं क्या?

पूर्णिमा ने मुस्कुराते हुए ,शशि को गले लगाया

और कहा _खूब तरक्की करो, मेरी लाडो 

अपनी आशाओं के पंखों को और फैलाव ,

शिक्षा की खुब ऊंची उड़ान भरो 

सारा आसमान तुम्हारा है!!

तभी सासू मां की आवाज से सारे घर में सन्नाटा छा गया। 

बस- बस बहुत पढ़ लिया, अब चुला- चौंका सिखों ।

पढ़ लिख कर क्या करोगी ससुराल जाकर घर ही तो सम्भालना है।

कौन सा कलेक्टर बन जाएगी।

एक तो पढ़ाई में पैसा खर्च करो ऊपर से दहेज अलग जोड़ों।

मेरा बेटा काम कर- कर के थक रहा है और यहां _

दोनों मां बेटी के शौक ही पुरे नहीं होते।

सासू मां के शब्द पूर्णिमा के कानों में ऐसेे पड़ रहे थे,

मानो किसी  ने कानों में सीसा पिघलाकर डाल दिया हो  एक बार फिर__सवालों के कटघरे में खड़ी थी पर्णिमा।

दिलो-दिमाग में चल रहे सवालों के तुफान में उसे पता ही नहीं चला कि _कब सुबह से रात हो गई और रात से सुबह ।

उसे लगा  जैसे औरत के लिए जमाना कभी नहीं बदलता।

बदलेगा भी कैसे? 

यहां तो  औरत ही औरत की दुश्मन बन बैठी है।

पर अब... नहीं 

अब विवस नहीं थी पुर्णिमा !

मैं अपनी बेटी के साथ ऐसा कुछ नहीं होने दुंगी।

मैं बनुगी अपनी बेटी की ढाल ।

 इस सुबह उसके अंदर एक नया ही विस्वास आ गया था।

पुर्णिमा ने तय कर लिया था,

चाहे जो भी हो इस सुर्य कि नयी  किरणों की तरह 

वह भी अपनी बेटी के जीवन में एक नयी रोशनी भरेंगी।

अपनी बेटी को पंखों की उड़ान देंगी।

शीशे में खुद को निहारती पुर्णिमा,

मन्द मन्द मुस्कुराने लगी।

आज उसके चेहरे पर नई चमक और आत्मविश्वास की लहर थी। 

अब.. कोई सवाल नही था उसके दिलो-दिमाग में,

बस.. जवाब था , बेटी के भविष्य को संवारने का।