आज सुबह से ही घर में खुशी का माहौल था। सब लोग खुशी-खुशी तैयार हो रहे थे। सभी को शशि के साथ उसके समारोह में जाना था। सब लोग बहुत खुश थे। पूर्णिमा को भी जाना था शाशि के साथ पर उसके पहले उसे सबके लिए चाय-नाश्ते का इंतजाम करना था। वो सुबह से ही अपने काम में जुट गई थी और शाशि.. उसकी खुशी का तो ठिकाना ही ना था।
उसके पैर जैसे जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे सुबह से ही पूरे घर मे चिड़िया की तरह चहक रही थी ।
जैसे बिना पंखों के ही उड़ रही हो और क्यों न उडे आज उसे जज की डिग्री जो मिलनेवाली थी।
पूर्णिमा ने नाश्ता लगा दिया था ।सब लोग नाश्ता कर रहे थे तभी, सासू मां की आवाज पूर्णिमा के कानों मे पडी__
मैं तो पहले से ही जानती थी कि _हमारी शशि एक दिन पढ़ लिख कर हमारा नाम रोशन करेगी।
पिता भी वहां वाही लूटने में पीछे नहीं थे बोले _
आखिर बेटी किसकी है।
पूर्णिमा के समने अतीत के कुछ पन्ने फिर पलट गए
ये वही सासू मां है जो कहती थी कि चुला- चौक करो पढ़ लिख कर कौन कलेक्टर बन जाओगी।
और ये वही पिता है जिन्होंने अपनी मां कि बात का कोई उत्तर नहीं दिया था।
पूर्णिमा सोच रही थी, इंसान कितनी जल्दी बदलता है
जिधर पलड़ा भारी देखा उधर ही पलट जाता है।
तभी शशि के चिल्लाने की आवाज आती हैं।
मां, मां यहां आओ जल्दी, पूर्णिमा हाथ का काम छोड़
कर शशि के कमरे में जाती है। तो क्या देखती है सारा कमरा बिखरा पड़ा है। पलंग पर कपड़े बिखरे पड़े हैं।
मां को देखकर शशि बोली_क्या पहनू मां मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा।
कमरे से नजर हटा कर पूर्णिमा शशि की ओर प्यार से देखते हुए बोली __कुछ भी पहन लो तुम पर तो सब अच्छा लगता है।
सिर्फ कहने को शशि नहीं हो । चमक भी शशि की तरह ही है तुम्हारी ,भगवान ने कोई कंजूसी नहीं की है मेरी चिड़िया और उसकी किस्मत बनाने में।
शशि बिच में ही बोल पड़ी _ मेरी मेहनत भी तो है मां मुझे अपने आप पर पुरा विश्वास था कि मैं इक दिन जज बनकर ही रहुंगी।
अब-तुम भी जाओ मां जल्दी से तैयार हो जाओ और हां __
मां तुम थोड़ा अच्छे से तैयार होना देखो अपने आप को कैसी लगने लगी हो ।
एक घरेलू महिला बनकर रह गई हो।
मेरी दोस्त़ो की मम्मी या कितने अच्छे से तैयार होकर रहती है और एक तुम हो?
पुर्णिमा बुत सी खड़ी थी मानो कांटों तो खुश न निकलेगा।
अब जाओ मां जल्दी तैयार हो जाओ और हां वही साड़ी पहनना जो मैंने तुम्हारे जन्मदिन पर दिलाई थी वो रंग तुम पर बहुत खिलता है।
आखिर मेरी इज्जत का सवाल है।
पुर्णिमा चुपचाप चली जाती है।
जैसे आज उसे फिर ग्रहण लग गया हो
आईने के सामने आज फिर,, सवालों के कटघरे में खड़ी थी पूर्णिमा ।
उसने कभी सोचा न था की शशि उससे इस तरह बात करेगी।
उसे अपनी परवरिश पर भरोसा न हुआ। ऐसे संस्कार तो नहीं दिए थे मैंने।
क्या ये वही शशि है जिसके पढ़ाई के लिए मैंने सबसे लड़ाई की ,
ढाल बनी थी मैं उसकी
क्या मैं अब अच्छी नहीं दिखती? बाई बन कर रह गई हु......मैं ?
शशि ने आवाज लगाई तैयार हो गई मां
पूर्णिमा ने अपने विचारों को समेटा और जुड़ा बनाकर तैयार हो कर आ गई।
पुरा हांल खचाखच भरा था सभी बच्चों के साथ उनके माता-पिता आए थे।
सभी को डिग्री मिलनी थी ।
कुछ देर बाद शशि का नंबर भी आ गया।
मंच पर शशि जज की डिग्री ले रही थी यह देख पूर्णिमा की आंखों से खुशी के आंसू निकल पड़े।
जैसे उसका कोई सपना पूरा हो गया हो।
मंच पर माइक के सामने खड़ी शशि ने कहना शुरू किया __
आज मैंने यह कर दिखाया यहां मैं कभी नहीं कर पाती अगर मेरी .."मां 'मेरे साथ ना होती। यह मेरा नहीं मेरी मां का सपना था जो उन्हीं की वजह से पुरा हुआ।
नहीं तो मेरी पढ़ाई तो बहुत पहले ही खत्म हो जाती। मेरी मां मेरी ढाल बनी।
मुझे आसमान तक उड़ने को पंख दिए।
तब मैं यह आसमान छु पाई।
साधारण सी दिखने वाली मेरी मां के अंदर समुद्र सी गहरी विकसित सोच है।
उसका सादापन उसकी उच्च शिक्षा का प्रतीक है।
इसलिए इस डिग्री की असली हकदार भी मेरी मां है । मां ..यहां आओ ऊपर मंच पर मैं आपको यह डिग्री देना चाहती हूं।
पूर्णिमा को जैसे अपने कानों पर यकीन ही नहीं हो रहा था । अब उसे अपनी परवरिश पर गर्व हो रहा था।
आज वह अपने भीतर की शीतल चांदनी से
सराबोर हो गई थी।
उसके भितर की सितलता ने उठने वाले सभी ज्वलंत सवालो को भस्म कर दिया था।
आज उसे अपने पूर्णिमा होने पर गर्भ महसूस हो रहा था।
आज पूर्णिमा को .. अपना नाम सार्थक लग रहा था।