कविताएं/गीत/मुक्तक
1
कोइयाँ के फूल
ताल में खिले हैं
कोइयाँ के फूल
आना तुम साथ-साथ खेलेंगे,
साथ-साथ उछलेंगे-कूदेंगे,
नीले पानी में आसमान देखेंगे।
आना तुम साथ-साथ खेलेंगे।
बेर्रा निकालेंगे
फोड़ेंगे-खाएँगे,
तलडुब्बी का पानी में
भागना निहारेंगे।
आना तुम.......।
शैवालों ने जाल बिछा
खूब उलझाया है।
गिरई के सपनों में
क्या कोई आया है?
उसका भी हाल-चाल पूछेंगे-
आना तुम.....।
माई खिलाएगी चूरा-दही
अमचुर करोनी भी
थोड़ी-सी राब और
बासी कचौड़ी भी
तेरे साथ खाएँगे-खेलेंगे
आना तुम....।
चिड़ियों से सीखेंगे
फुर्र-फुर्र उड़ना
तिनकों को जोड़कर
घोंसला बनाना
जादुई दुनिया को हँसना सिखाएँगे।
आना तुम.......।
हंसों की जोड़ी भी कभी-कभी आती है
आदमी के शोर से दूर रह जाती है
चुपचाप रहती है
उनकी चुप्पी का अर्थ
हम-तुम मिलकर खोजेंगे।
आना तुम........
ताल के किनारे ही झूमता है हरसिंगार
तारों से फूल रोज बूँदों से झरते हैं
कितने लोगों की पीड़ाएँ हरते हैं।
हम-तुम भी देखेंगे-जानेंगे।
आना तुम.....।
माँ ने सुनी है आज ताल की सिसकी
ताल भी रोया क्यों? माई दुखी है
क्या कोई संकट है? सोचेंगे-विचारेंगे
आना तुम.....
2
नदी बहुत खुश थी
नदी बहुत खुश थी
धरती को सींचती
जीवों को जल पिलाती
इतिहास बनाती
दूसरों के काम आती
नदी बहुत खुश थी।
हर व्यक्ति दूसरों के
काम आने पर
खुश ही होता है
नदी भी खुश थी।
उसने सोचा-
समुद्र में मिलकर भी
बचा कर रखूँगी
अपना अस्तित्त्व
पर यह सम्भव न था।
समुद्र में मिलते ही
नदी नदी न रह गई
खारे में समा गया
उसका मीठा जल
नदी बहुत रोई थी।
समुद्र ने समझाया
अस्तित्व बचा मिलन
मिलन नहीं होता है।
मिलने में पूर्ण विलोपन
ही होता है।
तुममें भी कितने ही नदी-नाले
अस्तित्व खोकर ही मिले थे।
मिलना अस्तित्व खोना है
बताओ तुम यह भी मनुष्यों को।
तुम्हारा मीठा जल
खारे में समा गया
पर दुखी मत हो।
देखो, मैं विश्व का
सारा खारा जल
लिए पड़ा हूँ
पर मैं ही, हाँ मैं ही
समस्त मीठे जल का
पिता हूँ।
मेरे ही जल से भाप बन
पर्जन्य जल बरसा
भरते हैं नदी-नालों में
मीठा जल।
यही प्रकृति का नियम
स्रष्टा का धर्म है
दुखी होने का कोई
कारण नहीं है
हम सभी प्रकृति से चालित हैं
उसी के अंग हैं।
3
आदमी बच्चा बन जाता है
आदमी बच्चा बन जाता है
अवस्था बढ़ने पर।
बेटा चलता था तू जिन उँगलियों के सहारे
वे उँगलियाँ और हाथ
चाहेंगे तेरी बाँहों का सहारा
उम्र बढ़ने पर।
झिड़कना, झिझकना मत
बचपन में सँभाला था तुझे
जिन हाथों ने
लौह स्तम्भ थे उस समय।
पर अब शायद काँपने लगें हाथ
पैर लड़खड़ा उठें।
समझना यही, बच्चा बन गया है पिता।
बच्चे की तरह पालना।
मुश्किल जरूर है तुम्हारे लिए यह सब कर पाना
पर उपाय क्या है?
छूट सकता है
शीशे का गिलास
बिखर सकते हैं उसके टुकड़े।
जब तुम बच्चे थे
टूटी थीं कितनी ही प्लेटें तुमसे
पर मुस्कराते हुए पिता ने तुम्हें उठाया था।
खुल सकती है धोती
हो सकते हैं गंदे
कपड़े, चादर और बहुत कुछ
क्षमा कर सकोगे क्या
तुम पिता को ?
भोजन करते समय
जूठन गिर सकती है
कपड़ों पर, फर्श पर
यह सब सहज है
पूरी तरह स्वाभाविक।
आखिर क्या उम्मीद कर सकते हैं
आप एक बच्चे से?
4
भोर
भोर चुपके से उतर आया
धरा को चूमा, जगाया
उनींदीं आँखें
स्वप्नों भरी
खुलने लगीं कलियाँ
उन्हें सहलाया।
अहन् का सन्देश दे छुआ
जग कुनमुनाया
किंचित नहीं है शोर
सभी खग-मृग अलसते से
ले रहे अँगड़ाइयाँ
उठते निशा के पाँव।
पसरती लालिमा परिवेश में
होने लगे सब मुखर।
पपीहे की ध्वनि
कहीं कुछ हाँक के स्वर
कोई गुनगुनाया
कि दिन निकल आया !
दिन निकल आया!
जग रहा है देश
भागता परिवेश
शिशुओं-शावकों का मन
उमगा, मुस्कराया।
भोर चुपके से उतर आया।
5
माँ
यह जो चारपाई पर
बच्ची बनी बैठी है, कोने में
माँ है,
जिसने जग कर काट दिया
तेरे लिए
कितनी रातें, कितने दिन ?
बच्चे की नींद के साथ सोना
कुनमुनाते ही जगना
आँचल में ही लिए लिए फिरना
मुस्कराते हुए।
चाहती है दे सको कुछ पल
उससे बतियाते हुए
मत कहना समय नहीं है।
सच है समय कोई रबर नहीं है
जिसे खींच कर बढ़ाया जा सके।
पर उसी समय में कुछ पल
कुछ थोड़े-से पल
यदि दे पाओगे उसे
राम राम करते हुए मुस्कराते हुए
कट जाएगी उसकी ज़िन्दगी।
लोग ठीक ही सोचते होंगे
माँओं के साथ रह पाना
संभव रहा कहाँ अब?
दुनिया की कितनी माँएँ
तरस जाती हैं सुनने को
बच्चों के स्नेह भरे बोल ।
पाहुन हो जाते हैं माता-पिता
सच है
पर घर को घर रहने देना
हो गया है कितना कठिन ?
घर को घर बनाए रखना भी
जरूरी नहीं है क्या?
सोचना, जरूर सोचना।
बिखरते घरों को देखकर
दुखी होते हैं लोग
तोता और मैना भी।
घर कोई खिलौना नहीं है
जब चाहा तोड़ दिया।
घर सँवारना पड़ता है।
रोज़ बुहारना पड़ता है
स्नेह से बनता है घर
ईंट-पत्थर से ही नहीं।
सोचना...... जरूर सोचना।
6
एक थी चिरई
एक थी चिरई
चिड़ियों की तरह फुर्र-फुर्र उड़ती
माँ कहती-तू चिरई है सोन चिरई।
वह खुश हो जाती
माँ की गोदी में छिप जाती
माँ, माँ थी
उसे आँचल से ढक लेती
उसका एक छोटा-सा घर था
माता-पिता, एक गैया और चिरई।
घर के सामने नीम का पेड़
दातून देता ही, चिड़ियों से भरा रहता।
भोर में उनकी चहचहाहट
चिरई को जगा देती।
उसकी गैया भी रँभाने लगती।
माँ उठकर दाना-पानी देती
चिरई घर बुहारती।
तैयार हो जाती स्कूल जाने के लिए
वह हमेशा खिली-खिली
खिलखिलाती रहती।
स्कूल से लौटती
गुड़ का एक टुकड़ा खाकर पानी पीती।
नीम के नीचे आती तो खिन्न हो उठती।
चिड़ियों की बीट से भरा हुआ दुआर।
झाडू उठाती, बुहारती
कभी-कभी खीझ जाती
कहती 'माँ पेड़ को हटाओ,
बहुत गन्दगी फैलती है इससे।'
'नहीं बेटा ऐसा न कह,
पशु-पक्षी-पेड़ से ही हमारी ज़िन्दगी है।'
माँ समझाती
पर वह समझने को तैयार न दिखती।
'बेटी, हम लोग एक गीत गाते रहे हैं-
निबिया कै पेड़वा न काटेव बाबा
निबिया चिरैया बसेर।
बिटिया कै जियरा दुखायव न बाबा
बिटिया घर कै उजेर।
और तुम नीम को हटाने की बात करती हो।'
'माँ, क्या बिटिया सचमुच
घर का उजेर होती है?'
'होती ही है। तू इस घर का उजियारा ही है।'
माँ कहकर मुस्करा उठी।
बिटिया ने जाना 'माँ ठीक कहती है।'
उसे भी इस घर की रोशनी बननी है।
‘नहीं माँ, अब पेड़ हटाने की बात नहीं करूँगी।'
वह चिड़ियों की बीट को रोज बुहारती
और गुनगुना उठती, ' बिटिया घर कै उजेर।'
उसे घर का प्रकाश बनना ही है।
वह अपने पिता को याद करती-
वे घर चलाने के लिए परदेश भाग कर गए।
इस बार पिता जब लौटे
चिरई खुश हो गई
घर महमहा उठा।
'आप घर पर रहकर
कमाई क्यों नहीं कर सकते ?
'अभी ऐसा कुछ हो नहीं पाया बेटी
मैं चाहता हूँ तू खूब पढ़-लिख ले।
अपने पैरों पर खड़ी हो कुछ कमा सके।'
'माँ कहती है तू घर का उजेर है बापू।'
'ठीक कहती है माँ
तू जहाँ रहेगी घर का उजेर ही करेगी।'
'पढ़-लिख कर कमाने के लिए
क्या मुझे भी भागना होगा परदेश।'
'बेटी जब तक तू कमाने लायक होगी
दुनिया तेरी मुट्ठी में आ जाएगी।'
'तो घर को कैसे उजेर करूँगी बापू?'
'बेटी का नाम ही उजास है।
तू दुनिया को रोशनी देगी,
केवल इसी घर को नहीं।'
'मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा बापू।
शायद बड़ी होकर समझ पाऊँ।'
सोचते हुए चिरई उठी
दुआर बुहारने लगी।
बापू कुछ दिन रहकर
फिर जाने का उपक्रम करने लगे।
चिरई गुमसुम थी, बापू टिकट ले आए।
जाने के दिन चिरई चुप थी।
बापू को जाना था।
'रुपया ऐसे कहाँ मिलता है?'
जाते जाते बापू कह गए
'जल्दी आऊँगा।
खुश रहना तुम लोग।
गैया का ध्यान रखना।'
बापू चले गए
घर उदास हो गया।
खुशियों से जिसने भर दिया था घर।
वही चला गया।
रह गया माँ-बेटी,
गैया और चिड़ियों का बसेरा।
चिरई के लिए ही बापू भागते रहे।
चिरई पाठ को मन लगाकर पढ़ती रही।
बढ़ते-पढ़ते देश-दुनिया को समझती रही।
चिरई अब अभियंत्रण की पढ़ाई कर रही है।
बापू ओवरटाइम कर पैसे भेजते हैं।
'मेरी चिरई अभियंता बनेगी
उसके सपनों का पिटारा खुल जाएगा।'
वे सोचते
अतिरिक्त मेहनत से पैसे जोड़ते।
चिरई साफ्टवेयर अभियंता हो गई
उसने बंगलौर काम शुरू ही किया था
कि खबर मिली
बापू और माँ दोनों चल बसे।
उस पर जैसे गाज गिरी।
होश नहीं रहा उसे।
थोड़ी देर बाद जब होश आया
कोविड के कारण
लॉकडाउन की घोषणा हो रही थी।
अब तो वह जा भी नहीं सकती।
हर तरफ शंका, भय का वातावरण
प्रतिपक्ष अदृश्य है
कहते हैं रोज़-रोज़
रूप-रंग-आकार बदल रहा।
उसने पड़ोस के चाचा को फोन मिला पूछा
'अब क्या करूँ मैं?'
'शव को जलाना तो है ही'
चाचा का उत्तर था।
चाचा घर-खेत-गैया आप ले लो।
मैं लिखा-पढ़ी कर दूँगी
बापू और अम्मा का क्रिया-कर्म
यथा संभव कर दो।
आपत्ति काल है यह !
वह सोचती रही
क्या अनजाने ही बापू
हो गए थे कोविड संक्रमित?
पर किसी से कह न सकी।
बापू और माँ दोनों ही शायद !
जाना था दोनों चले गए।
कुछ दिनों के बाद
चिरई गाँव आई थी।
दरवाजे का नीम कट चुका था
नहीं आतीं चिड़ियाँ
अब दरवाजे पर।
चिरई भी कहाँ रुकी?
घर-खेत की लिखा-पढ़ी कर
लौट गई बँगलौर।
गाँव छूटा तो छूट ही गया।
अपने को ढाल लिया है उसने भी
बहुउद्देश्यीय सेवाओं के अनुरूप।
पूरी दुनिया अपनी है
पर अपना कोई ठीहा नहीं।
ठीहा बदलते ही ज़िन्दगी बीत गई
न घर बसाया न बनाया।
कमीज़ की तरह घर बदलना ही था।
उसके खाते में पैसा है
इससे अधिक सोचा नहीं।
अब उम्र के अस्सीवें वर्ष में
उसने एक होटल में आजीवन
कर लिया है एक कमरे का अनुबन्ध।
पर अब भी निश्चिन्त नहीं है वह !
7
अपने ही बनाए घर से भागता क्यों है?
सुरक्षा, स्नेह पाने के लिए ही
आदमी बनाता है घर
पर वही घर क्या आदमी
में वितृष्णा पैदा कर देता है?
लौटना चाहता नहीं वह घर।
आज वह घर के
दरवाज़े तक गया
पर अन्दर जाने की
हिम्मत न जुटा सका।
लौट पड़ा वह
लगा घर काट खाएगा!
क्यों ऐसा हुआ?
जब कभी प्रश्नों की
गठरी लिए ताकता है घर
आते ही प्रश्नों की गठरी ले
बैठ जाते घर के लोग
न दाना, न पानी
केवल प्रश्नों की बौछार !
थका-हारा लौटा है
सुकूँ की तलाश में
पर प्रश्नों की गठरी
शब्दों का आघात
सह पाना कितना कठिन है?
हर दिन यही होता रहा।
उसे विषाद के गह्वर में
ठेल दिया घर के लोगों ने।।
इधर-उधर भाग कर
वह सवालों से बचना चाहता है।
इसीलिए मित्रो
घर को घर रहने देना
कितना ज़रूरी है?
प्रश्नों की गठरी
आते ही मत खोलो।
उसे सुस्ताने दो
थके-हारे को शरण दो
सुकून में हो फिर धीरे से प्रश्नों
को खोलना
उसे सहलाते हुए।
घर शरणदाता है
प्रश्नों का पिटारा नहीं।
प्रश्न हैं तो उत्तर भी
होंगे ही,
उत्तर में सहयोगी बनें।
बार-बार सोचें
आखिर अपने बनाए घर से
आदमी भागता क्यों है?
8
पसीना
राजा बीमार हुआ
बुलाए गए वैद्य
उन्होंने देखा-परखा
कहा- राजा को पसीना चाहिए।
कारिन्दे दौड़े
पसीने की तलाश में।
पूरी बाज़ार छाना
पर कहीं पसीना न मिल सका।
कारिन्दे हलाकान
फिर पहुँचे वैद्य के पास
बताया- पसीना कहीं मिलता नहीं
क्या करें?
महाराज को कैसे बचाएँ?
वैद्य मुस्कराए, कहा-
पसीना कहीं बाज़ार में
नहीं मिलता
आप नहीं समझ सके
मेरे नुस्खे का अर्थ?
राजा को निकालना होगा पसीना
अपने शरीर से।
कारिन्दे अचकचाए-
राजा से कौन कहे-
पसीना निकालो।
कोई न चारा देख
महामंत्री ने सँभाली कमान।
बहुत आदर के साथ
महाराज से कहा-
आप और हम सुबह-सुबह
पैदल निकलें तो कैसा रहेगा?
'पैदल !' राजा ने कहा-
'सवारी किसलिए है?
हम सवारी पर निकलेंगे
हवाखोरी के लिए।'
महामंत्री इसके आगे
कुछ कह न सके।
हुआ वही जिसकी आशंका थी
धीरे-धीरे राजा का शरीर
क्षीण होता गया
और उन्हें परलोक-गमन
करना ही था।
9
ओ भलेमानुस
ओ भलेमानुस !
तुम हमेशा दुश्मनों की खोज
में लगे रहे।
उन्हें खोजा ही नहीं,
उन्हें नष्ट करने का
अभियान चलाते रहे।
कभी सोचा नहीं
संसार विविधताओं से
समृद्ध हुआ करता है।
आख़िर क्यों नहीं सोचते ?
तुम्हें अपने अतिरिक्त
और कुछ दिखता कहाँ है?
न जाने कितने हथियार
कितने रसायन बना डाले
दुश्मनों को ख़त्म करने के लिए।
ये तुम्हारे हथियार-रसायन
दोस्त-दुश्मन में भेद नहीं करते।
वे नष्ट करते हैं
चाहे दोस्त हो या दुश्मन।
दुश्मनों को ख़त्म करने के
अभियान में
दोस्त भी मारे गए।
ये पेड़-पौधे पशु-पक्षी
तुम्हारे सहयोगी थे।
गौरैया, बया
और तोता-मैना ने
तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?
वह सफाई कर्मी गिद्ध भी
कहाँ बच पाया?
बेचारे केंचुए
न जाने कहाँ
विलीन हुए !
अब जब तुम पर ही
आ-बीती है
तुम तिलमिला उठे।
आख़िर दुश्मनों को भी
इस संसार में जीने का हक है।
वे भी कुछ न कुछ
करेंगे ही, अपने अस्तित्व को
बचाने के लिए।
ये कीट, ये विषाणु
कहाँ जाएँगे?
अब जब कोई विषाणु
आ ही गया सामने
तुम्हें कुछ सूझ नहीं रहा।
तुम उसे कोरोना नाम दो
या कोई और
क्या फर्क पड़ता है?
तुम्हारा सारा तंत्र
हलाकान है
क्योंकि दुश्मन
क्षण-क्षण रूप और शक्ति
बदलने वाला विषाणु है।
तुम्हीं कुछ ऐसा करते हो
जिससे महामारियाँ
समय-समय पर आकर
तुम्हारा मान-मर्दन करें।
महामारियाँ अपने आप
नहीं आतीं
उन्हें बुलाने वाले
तुम्हीं हो।
क्या तुम बदल सकोगे
अपने विकास का प्रारूप
अपनी मानसिकता?
यदि कभी समय मिले
थोड़ा सुकून में हों
तो सोचना ... ज़रूर सोचना।
वैसे दौड़-भाग में
तुम्हें समय का टोटा
बना ही रहता है
फिर भी....
यदि समय निकाल सको
तो सोचना.... ज़रूर सोचना।
10
विचलित करता है
आज प्रातः से ही
उभरकर एक दृश्य
विचलित करता है बार-बार
वह दृश्य.......
धू-धूकर जलता
विक्रमशिला विश्वविद्यालय का
बहुमंजिला पुस्तकालय
पंक्तिबद्ध बौद्ध भिक्षु
बख्तियार के सामने
छपाछप तलवार का ग्रास
बनने के लिए खड़े
बुद्धाय नमः कहते हुए।
क्या यह दृश्य आपको
विचलित नहीं करता
ओ, महान बुद्ध ?
बख़्तियार अंगुलिमाल
क्यों नहीं हो सका?
यदि सभी अंगुलिमाल
नहीं हो सकते
तो सभी के लिए
कटते जाना ही विकल्प है क्या?
शास्ता मैं आपसे ही
पूछता हूँ!
क्या इसका उत्तर खोजना
जरूरी नहीं?
क्या यह भी उन्हीं दस प्रश्नों
के साथ जुड़ेगा
जिनके उत्तर देने से
आप अपने को विमुख
कर लिया करते थे।
क्या आप हमारा
मार्गदर्शन करेंगे
ओ महान बुद्ध !
अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित
कोई आक्रमणकारी
हमें समाप्त करने
के लिए खड़ा हो
क्या हम सिर झुकाकर
कर दें आत्मसमर्पण
खत्म हो जाने के लिए?
या है कोई अन्य विकल्प
शास्ता हमारा मार्गदर्शन करें।
जो बख़्तियार ने किया था
वह बन्द कहाँ हुआ?
अपने को बचाने का उपाय क्या है?
वह निरन्तर चल रहा है शास्ता
पूरी दुनिया में निरन्तर।
क्या उत्तरजीविता के सिद्धान्त को
मानते हुए हम ख़त्म हो जाने के लिए
तत्पर रहें?
मार्गदर्शन करें शास्ता !
यदि बख्तियार फिर फिर
नए रूपों में जीवित हो उठता हो तो
उपाय क्या है?
दुनिया में न जा
ने कितने लोग
अपने घरों से विस्थापित
कर दिये जाते हैं
दर-दर ठोकरें खाने के लिए।
उनकी पीड़ा हमें विचलित
क्यों नहीं करती?
हम आँखें क्यों मूँद लेते हैं
ऐसी घटनाओं पर !
कलिंग युद्ध से पीड़ित हो
अशोक आपकी शरण में आया।
पर क्या युद्धों के बादल छँट गए?
आपके प्रभाव से
कोशल और मगध के शासक
बौद्ध मत में दीक्षित हुए
पर उनके पुत्रों ने क्या किया?
ध्यानमन चौक
के बच्चे भी मौन खड़े हैं
गोलियों से भून दिये जाने के लिए।
पूछते हैं वे भी
क्या अपना दर्द बताना भी
अपराध है शास्ता ?
बामियान में
आपकी टूटी हुई मूर्ति
पूछती है
हम दूसरे धर्मों को
उनके प्रतीकों को
नष्ट कर क्या पाना चाहते हैं?
जैव विविधता को हम
खत्म करते जा रहे है।
क्या मानवीय विविधता
को भी खत्म कर ही दम लेंगे?
विविधता को बर्दाश्त करने की
क्षमता कब आएगी शास्ता?
आपने इस धरती को
सुन्दर, रहने योग्य
बनाने का उपक्रम किया।
पर हुआ क्या?
तिब्बती बौद्ध होने पर
गर्व करते थे
पर वे अपनी रक्षा नहीं कर सके
न जाने कितने विस्थापित हो
अपनी दास्तान खुद सुनते हैं।
बुदबुदा कर रह जाते हैं।
ऐसा क्यों हुआ शास्ता?
आपने कहा था-
"अप्प दीपो भव!"
स्वयं अपना दीप बनो।
स्वयं आश्वस्त हो जाओ
जाँच-परख लो
तभी मानो।
पर हम जाँचते-परखते
मनुष्यता ही भूल गये।
स्वयं दीप बनते हुए
दूसरों का गला काटने लगे।
उनका हक छीनने लगे।
हमारे विचार से जो असहमत हुआ
उसके जीने का हक छीनकर
हम कौन-सी दुनिया बनाएँगे शास्ता?
हमारा धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है
पूरी दुनिया में यही बचना चाहिए।
अन्य धर्मों के लोग
हमारे दुश्मन हैं।
वे कैसे रह सकते हैं
इस दुनिया में?
यह दुनिया तो हमारी है
किसी दूसरे मतावलंबी को
रहने का हक नहीं है यहाँ।
सुनो शास्ता, सुनो-
लोग क्या कह रहे हैं-
हमारा धर्म कबूल करो
या मौत का आलिंगन।
दूसरा कोई चारा नहीं है।
यह ज़मीं यह आसमाँ हमारा है।
और रातों-रात लाखों लोग
अपनी गठरी-मुटरी लादे
निकल पड़े अनजाने भविष्य की ओर
जो रह गए वे भी
कहाँ बच पाये ?
चीर दिये गये आधो-आध
और दुनिया देखती रही।
कुछ चीरने वालों के पक्ष में थे
जो असहमत थे, वे चुप थे।
कहते- यह संकट
बहुत दूर है हमसे।
हम क्यों चिन्ता करें?
मित्रों ने कितने सिर कलम किये?
यह कौन बताये ?
यीशु तुम्हीं बताओ
तुम पर कील ठोंकने वाला
अब भी ज़िन्दा है।
हर दिन किसी न किसी को
ठोंकता ही रहता है।
क्या पंक्तिबद्ध कर दिया जाए
लोगों को कील ठुकवाने के लिए?
आपने ही कहा था-
जो तुम्हारे एक गाल पर
थप्पड़ मारे
उसके सामने कर दो
दूसरा गाल भी।
पर वह यदि लगातार
थप्पड़ मारता ही जाए
तब ? हाँ तब ?
बताना- क्या करना है
क्या लोगों को
बना दिया जाए कायर
कहा जाए- हत्यारे के सामने
समर्पण करो अपने को ?
यदि किसी में मनुष्यता का
रंचमात्र भी अवशेष न हो
तब? तब, क्या करना है?
बताना ज़रा, ओ महान यीशु।
महान गुरु नानक देव
आपने ही कहा था-
'एक जोति से सब जग उपज्या'
हमने पूरी निष्ठा से
माना इसे
पर अपनी परम्परा निभाते हुए
गुरु गोविन्द सिंह जी को
बलि क्यों देनी पड़ी?
उनके बच्चों को भी
दीवार में चुना गया।
उनका अपराध क्या था?
जो आपका उपदेश मानते रहे
वे बलिदान होते रहे
क्या करना चाहिए गुरुदेव !
आपने कहा था-
'नानक नन्हें ह्वै रहो
जैसी नन्हीं दूब-'
जो दूब बनकर रहे
वे कुचले जाते रहे।
उपदेश करें गुरुदेव !
अब दबे-कुचले लोग
यदि स्वाभिमान रैलियाँ करने लगें
क्या यह गलत है?
उसे गलत कैसे कहेंगे?
उपदेश करें गुरुदेव !
वत्स !
स्वाभाविक और मार्मिक हैं
तुम्हारे प्रश्न
विचलित कर दिया है
इन प्रश्नों ने हम तीनों को
आह्वान किया है तुमने
केवल हम तीन को ही
कर सकते थे और लोगों को भी।
मैं, महात्मा यीशु और गुरुनानक देव जी
आ गए हैं एक साथ
तुमसे संवाद करने के लिए।
सभी ने मुझे ही आगे कर दिया है।
प्रयास करूँगा मैं कि उत्तर दे पाऊँ
वत्स !
कल्पना करो कि समाज में
न होते उपदेशकों, महात्माओं के
वचन, उपदेश, जीवनादर्श
मिल पाता कहाँ से कोई प्रकाश
क्या समाज अँधेरे में ही
हाथ-पाँव नहीं मारता?
तुमने ही कहा है
कि हम सबने
समाज को सुन्दर,
रहने योग्य
बनाने का उपक्रम किया।
सभी उपदेशकों, महात्माओं के
प्रयास इसी दिशा में थे।
यह भी सच है
हम पूरे समाज को बदल नहीं सके
यह सम्भव भी नहीं था
हर मनुष्य में होता है एक जंगल
उसका अहं उस जंगल को
खत्म होने नहीं देता।
अहं को विगलित कर ही
होती है प्राप्ति महत् उद्देश्यों की।
पर हम हर आदमी के अहं को
कहाँ कर पाते हैं पूरी तरह विगलित
समाज अपने हित को देखकर ही
करता है हम सबके वचनों का उपयोग
वह केवल उतना ही लेता है
जिससे हो पाता है
उसका हितसाधन।
हम सबने नहीं की बात
अन्धानुकरण की।
अपने विवेक को जाग्रत कर
कदम रखने को कहा।
युग के अनुरूप ही
लिया था निर्णय सभी ने।
उसमें छिपा है कुछ शाश्वत सत्य
यह भी सच है।
मनुष्य अपने सहारे के लिए
बनाता है मूर्तियाँ, चित्र
मंदिर-मस्जिद-मठ-गुरुद्वारे-चर्च।
जिससे भी उसे मिल सके प्रेरणा
प्राप्त करे उससे ही।
पर करना आक्रमण
दूसरे धर्मों के लोगों, प्रतीकों पर
कभी न्यायसंगत नहीं।
भ्रम में हैं वे सभी
जो सोचते हैं कि ऐसा करने से
परमात्मा या महात्मा खुश होंगे।
हर युग की परिस्थितियाँ
भिन्न होती हैं वत्स !
इसीलिए जरूरत होती है
हर युग में नए शास्ता की
जो दे सके युगानुरूप
दिशा-निर्देश।
समझा सके उपदेशों का मर्म।
शब्दों के अर्थ, उसके मर्म
बदलते रहते हैं,
उन्हें ही समझाने के लिए
हर युग उगाता है नए शास्ता को।
मनुष्य को पड़े रहना नहीं है
अन्धकूप में ही
उसे दीप बनना है।
दीप जहाँ भी जलता है
प्रकाश फैलाता है,
पूरी दुनिया ही उसका घर है।
दीप भी कहाँ कर पाता है
पूरे अन्धेरे को खत्म ?
उसके नीचे भी अँधेरा रहता है
पर उससे क्या खत्म हो जाती है
उसकी सार्थकता ?
हर युग को देना होता है
अपनी समस्याओं का उत्तर।
जो समाज अपनी समस्याओं
का हल नहीं खोजता
उसे जीवन्त कैसे कह सकते हैं?
पढ़ाया था हम लोगों ने पाठ
अहिंसा, प्रेम और समानता का
पर दुनिया से खत्म नहीं हो सकी
हिंसा, युद्ध और असमानताएँ?
पर इन्हें कम करने का प्रयास
तो होना ही चाहिए वत्स !
जमा लें अपना आधिपत्य
यही प्रवृत्तियाँ यदि समाज पर
कितना भयंकर हो जाएगा वह समाज।
नया विचार, नयी खोज
प्रयास करती है समाज को बदलने का
पर परिवर्तन की इस प्रक्रिया में
जन्म ले लेती हैं नयी समस्याएँ
और हमें खोजना ही होता है
नयी समस्याओं का नया हल।
इसमें काम करती रहती हैं
प्रतिरोधी शक्तियाँ भी।
खोजना ही होता है
उनका निदान भी
यह निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है।
वत्स !
तुमने सार्थक प्रश्नों को उठाया
हम सभी को इससे प्रसन्नता हुई
सोचना-विचारना और
खोजना ही नया हल देता है
समाज को नयी दिशा भी।
केवल सार्थक प्रश्नों के सहारे ही
मिल सकता है सार्थक उत्तर।
इसीलिए हम सभी चाहते हैं
लोग प्रश्न करें।
तुम्हारे सार्थक प्रश्नों से लोग जगें।
शुभाशीष......