Koiya ke Phool - 2 in Hindi Anything by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कोइयाँ के फूल - 2

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कोइयाँ के फूल - 2

                         कविताएँ/गीत/मुक्तक 


11 

कहकर गया था


कहकर गया था 

लौटकर आऊँगा 

कजरी तीज का दिन था।


गाँव के उस पार 

कजरी गाने वाले 

गा रहे थे कजरी-

लछिमन कहाँ 

जानकी होइहैं? 

ऐसी विकट अँधेरिया नाँय। 

जाते समय 

बार-बार कहा था उसने 

लौटकर आऊँगा 

घर बनाऊँगा।


बहुत दिन बीते 

मैं गिनती रही दिन 

वह नहीं लौटा 

कजरी तीज पर 

कजरी गाने वाले भी 

अब नहीं दिखते।


क्या हुआ उन्हें? 

कौन-सा अजगर 

निगल गया उन्हें भी?

अब न वह कजरी की थाप 

न कजरी की धुन 

क्या हुआ? सोख लिया किसने ?

कितने दिन बीत गए 

हर कजरीतीज को 

कसक उठता है मन।

क्यों ऐसा होता है?

कोई कहकर जाता है 

जल्दी आऊँगा 

पर लौट नहीं पाता।


जब वह गया था 

बच्चा केवल छह माह का था।

अब उसने देख लिया है 

पच्चीस पतझर।

हर बार कजरीतीज को

मैं उदास होती हूँ

और वह पूछता है

बापू कब लौटेंगे?

उसे क्या बताऊँ?

गाँव कितना बदल गया है?

लोग व्यस्त हो गए हैं

दूसरों के लिए समय निकालना 

हो गया है कितना मुश्किल ?

पहले समय था 

लोग बैठकर 

आपस में गपशप करते थे 

पर अब?

समय बिल्कुल नहीं है 

किसी के पास !

समय को क्या हो गया है?

पूस के महीने में 

बाहर से चिड़ियाँ आकर

ताल में किलोल करती थीं।

उन्हें भी जाने क्या हो गया?

अब नहीं लौटतीं।

ताल सूना हो गया।

उसे पाटकर घर बना रहे हैं लोग 

ताल बचेगा या नहीं?

कौन बताए?

हंसों की जोड़ी 

जो ताल के किनारे 

प्रायः दिखती थी 

अब नहीं दिखती।


कितना बदल गया है समाज !

लोगों के मकान पक्के हो गए हैं

मुझसे भी लोगों ने कहा 

सरकारी अनुदान से 

बना लो पक्का मकान।

पर मैंने नहीं बनाया 

उसने कहा था-

मेरी भुजाओं में बल है 

लौटकर घर बनाऊँगा।

मैं अब भी आश्वस्त हूँ 

वह जरूर लौटेगा 

घर बनाने के लिए।

उसके बिना घर 

मैं सोच भी नहीं सकती। 

गाँव बदला है

आ गयी हैं

चार और दो पहिए वाली गाड़ियाँ 

सर-सर भागते हैं लोग 

दूसरों को पीछे छोड़ते हुए।

मैं यह नहीं बता सकती 

कि बच्चा को पालने के लिए 

बेलने पड़े कितने पापड़?

पर मैं संतुष्ट हूँ 

कि मैंने उसे ठीक से 

पाल-पोषकर बड़ा किया है।

वह सोचता है घर-समाज के लिए 

दौड़ता है हर दुखी जन के लिए 

वह इतिहास चाहे न बना पाए 

पर समाज बनाना जानता है।

केवल अपने बारे में ही 

मैं भी नहीं सोचती।

समाज में कितने लोग 

कहकर जाते हैं

लौटकर आएँगे 

पर नहीं लौट पाते।

ऐसा क्यों होता है?

मैं बार-बार सोचती हूँ?

लौटकर आना अपने ठीहे पर 

कितना कठिन होता जा रहा है।

ठीहा भी लौटने पर साबुत बचेगा

इसे कौन बताए? 

ठीहे हथियाने को 

अनेक दाँव चलते हैं लोग।

सच और ईमान को क्या हुआ?

लोग ऐसे हो गए हैं 

कि पूछो मत।

बुढ़िया दादी की झोपड़ी 

बचाने के लिए

क्या-क्या करना पड़ा?

कैसे बताऊँ?

किसी तरह गाँव को जुटा पायी।

कितना मुश्किल हो रहा है

सभी को एकजुट करना ?

एक हाँक पर जुटने वाला समाज 

कहाँ चला गया?

छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटकर 

अपने स्वार्थों की गोटियाँ बिछाना !

ओह राम !

क्या होता जा रहा समाज को?

हर कोई भाग रहा है

भागते चलो !

भागना जैसे सभी का ध्येय हो

न गौरैय्या का झुण्ड 

न कोयल की कूक 

पपीहे की आवाज़ भी 

कभी-कभी सुनती हूँ।

एक क्षण रुको तो....

कोई नहीं रुक रहा। 

जैसे वह सोच रहा 

रुका तो पिछड़कर 

दौड़ से बाहर हो जाएगा। 

आज कजरीतीज है 

मैं सोच रही थी 

कोई न कोई ढोल की थाप पर 

कजरी गाने आएगा 

पर कोई नहीं आया। 

मेरा वह भी अभी लौटा नहीं 

कब लौटेगा लोग पूछते हैं? 

मैं सोचती हूँ कभी तो लौटेगा।


लोग कहने लगे हैं 

भूल जाओ उसे 

अब वह कभी नहीं लौटेगा 

ऐसा कैसे हो सकता है?

कोई गया है तो लौटेगा ही।

सभी भूल सकते हैं 

पर मैं कैसे भूल जाऊँ?

विश्वासघात करना 

मेरा स्वभाव नहीं 

इसीलिए जब तक प्राण हैं 

प्रतीक्षा करूँगी...

वह आएगा ही। 

कजरी गाने वाले भी 

लौटेंगे ही 

रूप बदले, भाव बदले 

पर कजरी भी जरूर लौटेगी।

बेटा कभी-कभी कहता है-

माँ, मैं पिता को खोजने जाऊँ? 

उसे अनुमति कैसे दूँ? 

यदि वह चला गया 

तो मेरी ज़िन्दगी पहाड़ हो जाएगी 

नहीं, मैं उसे जाने की 

अनुमति नहीं दे सकती।

मैं उसे भी खोना नहीं चाहती 

कभी-कभी वह भी

मचल उठता है 

माँ, मैं भी बाहर कमाने जाऊँगा 

लोग जा रहे हैं

कुछ ज्यादा कमाने के लिए 

कमाकर घर बनाऊँगा 

तू यही चाहती है न 

स्वयं कमाकर घर बनाऊँ।

घर स्नेह से बनता है 

अकूत धन से नहीं।

मैं उसे समझाती हूँ।

पर मन का असमंजस गहराता रहा।

जब वह अपनी दुलहिन लाएगा 

किस घर में स्वागत करूँगी मैं?

जोड़े का स्वागत इसी झोपड़ी में!

मन उधेड़बुन करता रहा 

आखिर मैंने उसे भी 

कमाने के लिए भेज ही दिया।

अब प्रतीक्षा के दिन....

फोन की टिनिन टिनिन 

के सहारे ही 

क्या जीवन कटेगा?

मन कजरी गाना चाहता है 

गुनगुना बोल पड़ती हूँ-

श्याम गये मधुबनवाँ 

कब का लिखे अवनवाँ नाँय।

पर श्याम भी

कहाँ लौट सके?

क्या यही जीवन का सच है।

ओह!

आज फिर कजरीतीज का ही दिन है

मन उदास है

पर कजरी गाने को उमगता है।

वह कजरीतीज को ही गया था 

नहीं लौटा !

बेटा भी परदेश कमाने गया है

अभी लौटा नहीं है वह भी 

कल ही उससे बात हुई थी-

'रहने-खाने की दिक्कत है यहाँ।

पर चिन्ता न करो माँ 

कुछ कमाकर ही लौटूंगा।'

कहा था उसने।

विवाह भी हो पाता है तभी

जब बच्चे लौटते हैं

कुछ कमाकर 

निठल्ले बच्चों को

कौन पूछता है?

यह कैसा संयोग 

परदेशी होने पर ही

बनती है विवाह की सम्भावना।

इसीलिए शायद इसीलिए 

भेज देती हैं माँएँ

अपने बच्चों को दूर 

बहुत दूर 

अनजान शहरों की ओर 

और वे अनेक कष्ट उठाकर भी 

जोड़ते हैं चार पैसा 

बसाने के लिए अपना घर।

मुझ जैसी हजारों माँएँ 

अपने बच्चों को 

भेजती रहती हैं परदेश 

मन मसोस, पत्थर बन, 

झेलती रहती हैं अकेलापन !

कुछ उदास, कुछ आशान्वित मन 

मन के कैसे-कैसे रंग !

पूछती हूँ धरती माँ से भी 

वे बस मुस्करा देती हैं

और मुझे भी देना होता है

मुस्कान का उत्तर 

मुस्कराकर ही।

क्या मुस्कान भी संक्रामक होती है? 


12 

अम्माँ


अम्माँ जब तुमने घर में कदम रखा 

केवल अठारह की थीं।

सन था उन्नीस सौ छियालिस।

मैं भी केवल आठ का 

अबोध बालक।

तुम्हारा और भाभी का 

आना हुआ साथ-साथ।

घर चहकने लगा था।

उसके पहले दीदी (बड़ी माँ) ही 

अपनी दो बेटियों के सहारे 

सँभालती थीं घर।

तुम्हें आलस छू नहीं गया था।

हर समय हर काम के लिए 

तैयार रहतीं।

तुम्हें 'अम्माँ' कहने के लिए 

किसने प्रेरित किया था मुझे?

याद नहीं आता।

जन्मदात्री माँ को क्या कहता था?

यह भी स्मरण नहीं।

लोगों से यह जरूर सुना 

वे बहुत ताकतवर थीं

सूर्य की आराधना करते-करते 

मेरा आगमन हुआ।

खुशियों से भर गयी होंगी वे 

खुश होती होगी हर माँ 

माँ बनने पर। 

यह तो माँ ही बताएगी।

तुमने यशोदा की तरह 

मुझे पाला, बड़ा किया 

गलतियों को क्षमा किया।

घर की रखवाली की।

'अम्मा' जब तक तुम रहीं 

घर सुरक्षित रहा।

हम निश्चिंत होकर भागते रहे 

चार पैसा कमाने के लिए 

काका को भी सँभाला 

अपने साथ रखा।

अन्नपूर्णा थीं तुम।

आज श्रावणी पूर्णिमा 

दो हजार इक्यासी 

तीसरी पुण्यतिथि पर माँ 

उभर आया तुम्हारा बिम्ब।

खनकती-सी आवाज़, 

हमेशा सक्रिय रहने वाली माँ।

मात्र चौरान्नबे वर्ष की अवस्था में 

हमें छोड़ गयीं।

छोड़कर जाना ही होता है 

सभी को एक न एक दिन।

बप्पा और काका नब्बे पूरा करने के 

पहले ही चले गए।

उनका और आपका आशीष 

फलता दिख रहा है।

सभी बच्चे-बच्चियों का परिवार 

अपनी विकास-यात्रा पर हैं 

तुम्हारी ही अनुकम्पा से। 

बहन इन्दिरा का विवाह 

मैंने ही तय किया था 

तुमने 'हाँ' कहने में देर नहीं की।

उनका परिवार भी अग्रसर है 

तुम्हारे ही आशीष से।

बच्चों पर अंकुश रखा 

चाहे रामकुमार हों या रामसुन्दर 

उनकी उड़ान में 

कभी बाधक नहीं बनीं।

निरुपमा, कमला, जावित्री, किरन 

सभी के परिवार पंख फड़फड़ाते हुए 

आगे बढ़ने की ओर अग्रसर हैं।

मेरे ही 'अम्मा' कहने से 

सभी बच्चे-बच्चियाँ 

तुम्हें 'अम्मा' ही कहते रहे।

मैंने ईमानदारी से कमायी 

करने की कोशिश की।

तुमने हमेशा मेरा साथ दिया। 

जो मिल पाया उसी में घर चलाया।

कभी अनर्गल इच्छाएँ नहीं पालीं।

बच्चों की पढ़ायी में साथ रहीं 

यद्यपि तुम्हें स्कूल जाने 

का अवसर नहीं मिला था।

तुम्हारे गाये लोकगीत 

सँझवाती, विवाह ही नहीं 

पिछले पहर चक्की पीसते 

गाये गये जाँता-गीत 

मन को झकझोर जाते हैं 

याद आते हैं माँ

तुम्हारे वे गीत 

तुम तो कढ़ाने वालों में थीं 

पिछलग्गू होना तुम्हें स्वीकार नहीं था।

हर काम में आगे रहीं।

हर कदम रखती रहीं 

अपनी धमक के साथ।

माँ आज बहुत याद आती है तुम्हारी 

इस तीसरी पुण्यतिथि पर 

मन भरा-भरा है तुम्हें याद करते हुए।

माँओं का नाम जानने की कोशिश 

बच्चे भी कहाँ करते थे?

कागजों में जब बप्पा ने तुम्हारा नाम 

सरफराज कुँवरि लिखा तभी जान पाया 

तुम्हारा नाम।

यह नाम हमारी धरोहर हैं माँ 

पीढ़ियाँ इसे याद रखेंगी।

गलतियों को क्षमा करते रहना 

ओ क्षमाशील माँ!

तुम्हारे आशीष से फूटती हैं 

ठूंठ में भी कोंपले 

सभी को संजीवनी मिलती है 

आगे भी मिलती रहेगी। 




13

मित्र


मित्र तुम तो यादवेन्द्र थे

आस्था के प्रतीक 

निमग्न रहे निरन्तर

ध्यान और योग में।

कुछ दिनों पूर्व ही

याद आया तुम्हें

होना ही चाहिए

गाँव में भी

कोई ठिकाना 

और बना डाला 

एक स्मृतिगृह।

इच्छाएँ सभी की 

कहाँ पूरी हो पाती हैं?

तुमने स्वयं ही 

तय कर लिया 

कि छोड़ ही देना है 

यह पार्थिव शरीर 

फिर तिल-तिल 

अपने को घटाते गये 

अनन्तयात्रा की 

प्रतीक्षा में।

अपनी अन्तिम रात में भी 

नहीं जाना चाहते थे 

किसी चिकित्सा के लिए।

संभवतः आभास हो गया था तुम्हें  

पर तुमने हमारी और 

उर्मिला जी की बात का 

मान रखने के लिए ही 

जाना स्वीकार कर लिया था 

वह भी निर्विकार भाव से।


हुआ भी वही 

आप अपनी अनन्त यात्रा पर 

निकल गये।

कहा था तुमने ही रोना नहीं 

जो पहले जायेगा 

वह मार्ग प्रशस्त करेगा 

हम कहाँ निभा पाये इसे।

आप यादवेन्द्र थे 

यादवेन्द्र में मिल गये। 


14

एक दिन ऐसा हुआ


हम कुछ भी देखते नहीं 

आँखें बन्द कर चलते हैं 

कान में उँगली डाल लेते 

नहीं सुनते कोई आवाज़ 

ज़बान भी बन्द कर रखी है

बड़ी मुश्किल से चुभलाने के लिए 

खोल लेते हैं थोड़ा-सा मुँह 

देखते नहीं प्रसन्न, अच्छे-बुरे की 

पहचान करना भी नहीं 

आनन्द से हैं 

कुछ सुनना नहीं तो 

चिन्तन-मनन की 

जरूरत ही क्या है?

हाँ, मुस्करा लेते हैं 

इतना ही बहुत है।

पर हर दिन ऐसे ही नहीं चला 

एक दिन ऐसा हुआ 

बन्द आँखों से अश्रुपात। 

तूफान उठ खड़ा हुआ।

हर छोटा-बड़ा विस्मय-विमुग्ध !

बन्द कानों ने कैसे सुन लिया? 

आश्चर्य, घोर आश्चर्य !

बन्द ज़बान से जो चीख निकली 

धरती पर छा गयी !

दौड़े लोग- चीखना अपराध है। 

गूँगे, बहरे अन्धों को 

जेल में ठूंसकर 

लोगों ने साँस ली।

पर चीख को रोकना 

असंभव था।

वह आसमान तक गूंज उठी। 

आयोग बैठ गया 

यह जाँचने के लिए 

कि बेज़बान से चीख 

कैसे निकल गयी?

और इतनी प्रभावी चीख!

आयोग के निर्णय 

की प्रतीक्षा है!  


15

चल पड़े वे


सिर पर गृहस्थी की मुटरी उठाए 

चल पड़े वे गाँव की ओर 

औंधे मुख, पैदल ही 

कोरोना साँपिन का ऐसा दंश। 

साँप गया भय 

घर घर में, मनस में। 

शासन-सत्ता के 

पहिये भी रुक गये।


टूट गया 

अन्तस्सम्बन्धों का तार 

छूट गया रोटियों का जुगाड़ 

जिसके लिए गाँव छोड़ 

भागे थे वे।


पैदल जो निकले हैं 

लक्षपतियों के कुमार नहीं 

साधन-सम्पन्न वेतन-भोगी 

के बेटे नहीं।

दो रोटी पाने को भागे थे 

घर से, गाँव से।

काम दिया शहर ने 

रहने को ठिकान नहीं 

ढोरों की तरह रहे 

कोई पहचान नहीं। 

चमकी राजधानी 

इनके ही हाथों। 

पर इनका हिसाब 

अब कौन करे? 

इनके गड्ढे को 

कौन भरे?



16

उत्तर दो


स्वप्न के पंखों पर उड़ना 

नींद से उठना 

समय को चुनौती देना 

सब कुछ संभव है तुम्हारे लिए।

हमेशा नींद में माते रहना 

कहाँ से सीख लिया?

नींद एक पड़ाव है। 

चिड़ियाँ नींद को झटका दे 

पंख फड़फड़ाने लगती हैं।

तुम भी पंख फड़फड़ा कर उठो। 

समय, धरती और आसमान 

तुम्हें अंक में भरने के लिए 

मुस्करा रहे हैं।

उनकी मुस्कराहट का उत्तर दो। 


17

जीवन


आँधियों से गिरे जो पेड़ 

कसमसा उठते हुए 

कह रहे हैं

डालियों के क्रोड़ में 

किंशुक उगेंगे 

वही देंगे नया रंग 

हमारी जिजीविषा को 

पत्तियाँ हरी होंगी 

भरेंगी वे हममें नयी ऊर्जा 

नया कुछ करने का उत्साह 

हम होंगे और अधिक शक्तिशाली 

जीवन्त होने की पहचान भी तो यही है।

गिरना मौत का वरण 

करना नहीं होता।

गिरकर उठना ही जीवन है 

इसीलिए तुम भी 

गिरे हो तो उठो 

बार-बार गिरने पर 

बार-बार उठो 

जीवित होने का प्रमाण दो।

दम तोड़ने वालों से 

नहीं पाता जन 

कोई प्रेरणा, कोई उत्साह।

उन्हें भी सहारा दो 

जिन्हें उठने के लिए 

जरूरत है सहारे की। 

स्वयं उठोगे 

तभी उठा पाओगे 

दूसरों को भी।




18

परमपिता


परमपिता तुम्हीं बताओ 

आपका उपदेश जो उतरा था, 

क्या उसमें भी भेद था 

ईमाँ और गैर-ईमाँ के बीच।


यह कैसे सम्भव है परमपिता! 

आप तो दयावान हैं, करुणा के सागर हैं 

फिर गैर-ईमाँ वालों के लिए 

किसने दी व्यवस्था 

कत्ल, रक्तपात, विस्थापन, लूट की 

क्या यह भी निर्देश का हिस्सा था

परमपिता!

लगता नहीं 

यह सब आपने किया होगा परमपिता! 

किसी भी पंथ को एकजुट 

आक्रामक बनाने के लिए 

गढ़े जाते हैं ऐसे नियम। 

मुश्किल है मान लेना कि 

यह आपने गढ़ा होगा?


उपदेशों, अनुष्ठानों में 

समाज को संस्कारित करने की 

होती है अद्भुत क्षमता। 

पर यह संभव है तभी 

जब इन्हें दूर रखा जाए 

कठमुल्लेपन से। 

अनेक धार्मिक युद्ध 

बता रहे हैं कि 

हमने सामान्य जन को 

उन्मत्त कर 

पकड़ा दी गलत दिशा 

हम क्या यह गलत नहीं कर रहे? 

परमपिता! 


19

खूँटी पर


धैर्य की पुटरी 

टाँग दी है उसने भी 

ऐसी खूँटी पर 

जिस पर पहले से टँगे हैं 

संयम, निर्विकारता, अध्यात्म। 

खूँटी कभी भरभरा कर 

गिर सकती है। 

पर लोग कहाँ मानते हैं? 

उसी पर लादते जा रहे हैं 

विनय, अलोभ, संस्कार 

और जाने क्या-क्या ? 

क्या इसीलिए समाज में इनका 

भयंकर अकाल दिखता है?



20

कहते हैं


कहते हैं महामारियाँ भी 

कुछ समय का अन्तराल दे 

झपट्टा मार ही देती हैं 

अचानक 

और मनुष्य इस औचक आक्रमण से 

हो जाता है असहाय, निरुपाय 

अशक्त और शंकाग्रस्त । 


21 

दूर के सपने


मत दिखाओ दूर के सपने बहुत 

अभी जो घायल सपन हैं 

उन्हें ही है ठीक करना।

सदा उड़ता जो गगन में 

उसे भी है लौटकर आना धरा पर।

गगन में उड़ता रहे वह 

यह सदा संभव नहीं।

धरा से भी पिण्ड छूटे 

यह अभी संभव नहीं।

उगाने में लगे कुछ लोग 

चाँद पर भी हरे पौधे।

यदि हुआ यह !

चाँद पर भी उग सकेंगे 

पेड़-पौधे, बस्तियाँ 

धरा के आदमी भी 

बना लेंगे चाँद पर आवास।

उड़ते-उड़ते पक्षी भी 

जा सकेंगे चाँद पर भी।

अभी यह दूर का सपना सही 

पर कौन जाने 

दूर का सपना यही 

सच बने। 


22

छोटी चादर


उसकी चादर छोटी है 

उसी में अपने को सिकोड़कर 

वह गठरी बन गया है।

यह तो अभी ठंडक कम है 

यदि ठंडक बढ़ी तो 

वह अपने को कितना सिकोड़ेगा?

उसे अपनी चादर बड़ी करनी ही होगी 

चादर बड़ी करने के प्रयास में 

उसने अपनी ज़िन्दगी खपा दी 

पर चादर बड़ी नहीं कर पाया।

हर दिन बदलते समाज में 

वह अपने पाँव ठहरा ही नहीं पाया 

बदलते-बदलते उसने अपने को 

बिल्कुल बदल लिया।

उसे अब पहचानना भी 

मुश्किल हुआ।

पर चादर जस की तस है,

क्या समाज का दायित्व नहीं 

कि बदलते समय के लिए 

तैयार करने में 

करे उसकी सहायता ?

नये उगते धन्धों के लिए 

करे उसे प्रशिक्षित।

बने सहायक 

उसकी चादर बड़ी करने में। 


23

स्मृतियाँ


स्मृतियाँ हमें कुरेदती हैं 

बाध्य करती हैं हमें 

आगे या पीछे चलने के लिए। 

दाहक होती हैं। 

दग्ध करती हैं वे 

कौंधती हैं बार-बार। 

स्मृतियों से रहित हो जाना 

कितना खतरनाक है?


24

धो डालना


दुनिया को एक ही डंडे से हाँकना 

रुचियों, आकांक्षाओं का संसार धो डालना 

फिर मत प्रवेशन ! 

कितना ख़तरनाक खेल है! 

इसे समझो 

मत समझो मनुष्य को भेड़-बकरी ! 


25 

अभी समय है !


चुप्पी तोड़ो 

कुछ तो बोलो 

नयन-नयन में 

झाँको तोलो 

उठो उठाओ 

राह बनाओ 

तड़प सभी में 

मिल कर गाओ। 

मुश्किल क्षण है 

क्षरण-क्षरण है 

पर कोंपल का 

उगना तय है। 

पीर आँख में 

शक्ति पाँख में 

घायल मन, पर 

उड़ो उड़ाओ।

अभी समय है 

समय न खोओ 

दर्पण देखो 

दाग मिटाओ।

यही समय है 

उठकर दौड़ो 

आगे-पीछे 

ऊपर-नीचे

कहीं जगह हो

साँस न तोड़ो

भरम मिटाओ

आगे आओ

भाग्य भरोसे

क्यों रुक जाओ?

सावन बरसा

पानी-पानी

ताल-तलैया

की मनमानी

पर धरती ने

रंग बिखेरा।

हरियाली का 

नया सवेरा 

नए सवेरे संग 

जग जाओ। 


26

चलते चल


जग में प्यार लुटाने वालो 

धरती स्वर्ग बनाने वालो 

चारों ओर देखते चल 

सँभल-सँभल कर चलते चल।


ठोस धरा में भी है दलदल 

शुष्क कहीं है कहीं अगम जल 

पंचम स्वर में गाने वालो 

सोच-समझकर चलते चल।


तेज चाल में भी बहु संकट 

फूल कहीं है सँग में कंटक 

सब का दर्द समझने वालो 

पाँव जमाते चलते चल


सत्य प्रबल पर झूठ न कम है 

निर्मल चित्त साथ ही भ्रम है 

गाढ़ी नींद सुलाने वालो 

थहा-थहाकर चलते चल 

सँभल-सँभल कर चलते चल।  


मत-प्रवेश कर करें सफाई 

उसमें भी उग आती काई 

चन्दन पेड़ लगाने वालो 

पाँव बढ़ाते चलते चल

सँभल-सँभल कर चलते चल।


धरती यह बिछलहर बहुत है 

अन्ध गली है कहीं खड्ड है 

सबका भार उठाने वालो 

पाँव टिकाते चलते चल 

सँभल-सँभल कर चलते चल।


प्रतिपक्षी भी क्या कम होंगे? 

दाँव खोजकर झटके देंगे 

जन को राह दिखाने वालो 

सच का पाठ पढ़ाते चल 

सँभल-सँभल कर चलते चल।


भटकावों में भटक न जाना 

राह बनाते बढ़ते जाना 

सब को सुखी बनाने वालो 

अपनी पीर छिपाते चल 

सँभल-सँभल कर चलते चल।


27 

शेष रास्ता


शहर गाँव से चले 

बाड़ से निकल चले 

स्वाधीन होने को 

बाँधकर कफन चले।


अलख जब जगी-उगी 

चेतना-लहर उठी 

ब्रिटिश राज हिल उठा 

जड़ सिहर-सिहर उठी।


ऑंग्ल छोड़कर चले 

हम स्वतंत्र हो चले 

कल्पना सुराज की 

स्वयं छोड़ हम चले 

लक्ष्य देखते चले 

समत्व-प्रेम के तले 

रास्ते भटक गए 

बिखर-बिखर हम चले।


दूरियाँ उगल चले 

उँगलियाँ पकड़ चले 

सुराज के सपन सभी 

हम निगल-निगल चले 

इधर चले-उधर चले 


न सोचते, किधर चले 

शेष रास्ता बहुत 

कुछ कदम अभी चले। 

भटक-भटक क्यों चले?

पूछते सभी भले 

अब समय न शेष है 

सिर झुका किधर चले?


लक्ष्य साध कर चलो 

रास्ते बना चलो 

समय की पुकार सुन 

घर सुघर बना चलो। 

सोच-समझ कर चलो 

दर्प को गला चलो 

स्वयं-देश को जगा 

क़दम को बढ़ा चलो। 


28 

क्रान्ति-बीज


नयी सोच हो 

नए अस्त्र हों 

नये विकल्पों की 

किरणें हों


उग पाता तब 

क्रान्ति-बीज भी 

नये बिम्ब में 

नव साहस से।


बनी लीक को 

दुहराने से 

क्रान्ति न होती।

नहीं फूटता

उसमें अंकुर।

कठिन समय ही 

जन्माता है 

क्रान्तिबीज को।

युग की पीड़ा 

आवाहन कर 

उसे उगाती 

देती पोषण।

जो युग की नस-नस पहचाने 

कण-कण छाने 

और निकाले युग का अमृत 

उससे युग आगे बढ़ता है 

क्रान्ति-पौध भी 

पोषण पाकर 

मोद मनाकर 

कुछ दिन में ही 

क्यों झर जाता? 

रह जाता है ठूंठ।


उसे पकड़कर 

रोते-गाते लोग। 

यही नियति क्या क्रान्ति-बीज की?


29

चलो थोड़ी देर बैठें


चलो थोड़ी देर बैठें 

पंख को क्रमशः समेटें 

बहुत दौड़े हर दिशा में 

भागते ही रहे हर दिन 

अर्थ-यश की कामना में 

अब तनिक रुक कर चलें 

भ्रम-तनावों से उठें 

समय का उत्तर निकालें 

कभी मद में चूर होके 

नहीं दौड़े कहीं ऐंठे। 

चलो थोड़ी देर बैठें।  


30 

गीत


नदी किनारे गाँव री। 

बाँबी जैसे सघन घरौंदे, उनमें भी नित दाँव री। 

रोज़ी निर्मम ठेल भेजती, रहनि सपन-सी गाँव री।


हम तो रोज़ यहाँ पिसते हैं, उन्हें न मिलती छाँव री। 

यादें उनकी रोज़ टीसतीं, उन्हें बुलाती गाँव री।


वे तपते जब हर दिन हर क्षण, जलते मेरे पाँव री। 

कच्चे तन में कच्चा मन है, कच्चे ही सब दाँव री।


एक टिनिन की ध्वनि सुनते ही, थिरकें तन-मन पाँव री।




मुक्तक

1

आँख में है और कोई 

पाँख में है और कोई 

यह विसंगति कौन देखे 

हम प्रकृति के ढोर कोई। 


2


नज़र ही नज़र मुस्कराना न आया। 

लबों से ग़ज़ल गुनगुनाना न आया।

किसी ने लिखी आँसुओं से इबारत, 

किसी को उसे बाँच पाना न आया।


4

गाँव भी शहर हुए, 

पक्के सब घर हुए, 

अपने ही घरों में, 

हम सब बेघर हुए।


4

खोल में सिमटते चले गए, 

अपनों से कटते चले गए,

किसी से कोई मतलब नहीं,

खुद को सिकोड़ते चले गए।


5

चमचमाते मकां हैं पर घर नहीं हैं 

फूल हैं पर तितलियों के पर नहीं हैं 

खोजना है ज़िन्दगी के प्रश्न सबको 

प्रश्न बहुतेरे मगर उत्तर नहीं हैं