Koiya ke Phool - 3 in Hindi Anything by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कोइयाँ के फूल - 3

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कोइयाँ के फूल - 3

                           ग़ज़ल खण्ड 



हाशिये पर जो यहाँ औंधे पड़े हैं। 
घर उन्हीं के बारहा क्योंकर जले हैं?

हर किसी की ज़िन्दगी उत्सव न होती,
दर्द अपना पी तुम्हें लगते भले हैं।

चित्र छोड़े आँसुओं ने गाल पर जो, 
अर्थ उनके खोज लेना पट खुले हैं।

झाड़ियाँ मग में कँटीली, तमस गहरा 
और राहें छेंकते विषधर डटे हैं।

सेज फूलों की मयस्सर कब उन्हें जो 
रास्ते ही खोजते आगे बढ़े हैं।

2
कभी यूँ ही चुप रहने को मन करे। 
दुखों को चुप-चुप सहने को मन करे।

भँवर में कश्ती है यह जानता हूँ, 
भँवर से किन्तु निकलने को मन करे।

कपोलों पर बैठे रक्त के आँसू, 
उन्हें ज़रा पोंछ लेने को मन करे।

अभी कच्ची हैं फसलें, गद्दर भी नहीं, 
पके फल फिर भी चखने को मन करे।

वसन तो मसके हैं, क्षण-क्षण मसकते, 
सुई ले फिर भी सिलने को मन करे। 


3

तेरी आँखों से खुद को देखने को मन करे। 
तेरी थरथराहट भी सहेजने को मन करे।

हादसों के साथ ज़िन्दगी का मज़ा ही और है, 
मगर हादसों को थोड़ा टालने को मन करे।

यह ज़िन्दगी बेफिक्री से जीता रहा लेकिन, 
यूँ ही कभी-कभी कुछ फिक्र करने को मन करे।

जीते हैं सब यहाँ दबावों के जंगल में ही, 
चुपके से उस जंगल से निकलने को मन करे।

प्रशंसा पा अक्सर मन गद्गद् हो जाता, किन्तु 
निंदक की कुटिया में तनिक रमने को मन करे। 


नियान लाइट से चौंधा लगे, 
चंदा निहारने को मन करे।
दिनों-दिन भरें गंगा में ज़हर, 
फिर भी निथारने को मन करे।

कच्ची इमारतों में लूट को, 
छिपाते फिरते हैं लोग यहाँ,
उसी छिपे खजाने की मित्रो,
केंचुल उतारने को मन करे।

दो दिनी ज़िन्दगी में आदमी 
कर जाता है जाने क्या-क्या?
हुई होंगी गलतियाँ हजारों, 
उनको सुधारने को मन करे।

मंज़िलों तक न पहुँच पाने का 
मलाल कचोटता है सभी को,
गए जो छूट रास्ते में ही 
उन्हें पुचकारने को मन करे।

बैसाखियों के सहारे चलना 
मुमकिन नहीं होता बहुत दिन,
लबादा ओढ़े अरसा हुआ
उसको अब उतारने को मन करे।



वह मायूस होकर गया था, पर लौटा तो है। 
कुछ बदला न हो बदलाव का मुखौटा तो है।

कच्ची दीवारों पर भरोसा भले ही न हो, 
घर में चूहों की चूँ चूँ और बिलौटा तो है।

तिनका पकड़ कर आदमी जी लेता है यहाँ, 
न डली, न पान-कत्था, पर हाथ सरौता तो है।

विश्वास की गठरी लिए चल पड़ते हैं सभी, 
पर मुश्किल समय का दंश खूब चुभोता तो है।

तेरे गुस्से की चिनगी अब बनेगी जीमन, 
दही जमा नहीं अब तक, पर दूध औटा तो है।


6
अँधेरी रात में भी नींद क्यों आती नहीं है? 
सुरीली दूर की छम-छम तनिक भाती नहीं है।

यहाँ तो रात ने ओढ़ी-बिछायी गहन चुप्पी, 
हवा भी सरसरा कुछ गुनगुना गाती नहीं है।

समेटे पंख को यूँ नींद में माते सभी खग, 
नज़र का रूठना भी आँख बतलाती नहीं है।

पढ़ी जो अर्चना की पंक्तियाँ सब याद करता,
कहीं से रोशनी कुछ टिमटिमा आती नहीं है।

तमस की रात भीगी है, मगर मन उड़ रहा है, 
दिये में स्नेह है भरपूर पर बाती नहीं है।


कर्ज़ खुद या और का चुकाने को मन करे, 
चुप पड़ी संवेदना जगाने को मन करे।

दो पड़ोसी रेल की पटरियाँ हैं इन दिनों, 
इन पटरियों के बीच पुल बनाने को मन करे।

ज़िन्दगी में मुश्किलों की खाइयाँ हज़ारों, 
खाइयाँ जो सामने हटाने को मन करे।

सेंकते हैं दुश्मनी का तवा हर समय जो, 
उन सभी के इरादे ढहाने को मन करे।

कट रहे हैं पेड़, पंछी परीशाँ घर नहीं, 
अब घरों में घोंसला बनाने को मन करे। 


जब उमंगों पर सदा कैंची उठी, 
'हम हुए आज़ाद' की अर्थी उठी।

फिर धुएँ उठने लगे आकाश में, 
फिर किसी की आह से चिनगी उठी।

फिर सफीने घाट से गायब हुए,
लपट कोई रात में ऐसी उठी।

चन्द रोज़ा ज़िन्दगी को जी सकूँ, 
आदमी में भूख कैसी जग उठी?

गाँव के बच्चे सभी बेखबर हैं, 
भेड़ियों की पाँत है न्योते उठी?

9
घाव गहरा है, पर उठो। 
सख़्त पहरा है, पर उठो ।

भेड़िए मुँहबोर चाभें 
रक्त छहरा है, पर उठो ।

तमस में कैसे कुछ दिखे ? 
वक़्त ठहरा है, पर उठो ।

गुर्राहटें हर तरफ से, 
शाह बहरा है, पर उठो।

सत्य आभासी खिलौना 
छद्म लहरा है, पर उठो।  

10 
हमारे गाँव का सूरज हुआ गुम राजधानी में। 
कहीं दीखे खबर करना, बचा यदि आग-पानी में।

मुसीबत भी बता करके कहाँ आती, कहाँ जाती,
भगें दो रोटियों के वास्ते बच्चे जवानी में।

हमारे गाँव के पौधे न पाते खाद-पानी भी, 
गुणी शिक्षा कहाँ मिलती जमा-बाकी ज़बानी में।

भवन बहुमंजिले तुमको लुभाते और ललचाते, 
सृजनकर्ता कटाता हाथ, युग अपनी रवानी में।

तमाशा अब बढ़ाती खाइयों का चल न पाएगा, 
उठेंगी आग की लपटें, पढ़ोगे तुम कहानी में। 


11 
लहर पर लहर है किधर जाइएगा। 
दिखेंगे चतुष्पथ जिधर जाइएगा।

दिशा-काल-मंजिल नहीं कुछ पता है, 
उगा मत भ्रमों की फसल जाइएगा।

समय ने यहाँ भ्रम उगाया बहुत है, 
कटें भ्रम जिधर से उधर जाइएगा।

बहुत रोग पाला विकसते मनुज ने, 
निकलते नए हल उबर जाइएगा।

हमें घर बनाना, बनाते रहेंगें, 
कदम लड़खड़ाते न घर जाइएगा। 


12 
बहुत तेज़ रफ्तार में गाँव मेरे। 
कहाँ टिक सकेंगे भ्रमित पाँव मेरे।

भले रोटियाँ मिल रहीं पर मुसीबत, 
नए पाँव फैला रही गाँव मेरे।

तुम्हें रोटियों की न कीमत पता है, 
सदा रोटियाँ छीनतीं छाँव मेरे।

बड़ी मुश्किलों में ज़माना दिखे, पर 
उलटता सदा ही सभी दाँव मेरे।

किताबें पलट सभ्य कहते स्वयं को,
गुनहगार होते गए गाँव मेरे। 

13 
ज़रा यार आना कभी गाँव मेरे, 
बहुत कुछ उगाना अभी गाँव मेरे।

न गंगाजली अब, नहीं छाँव बरगद, 
शहर की हवा लग गई गाँव मेरे।

शहर जो परीशां, वही रोग व्यापे, 
बचा अब न दमखम कहीं गाँव मेरे।

चले चाल मौसम, न गुणवान शिक्षा, 
युवा भागते आज भी गाँव मेरे।

हुई सोच खंडहर नकल ही असल है, 
कहीं कुछ उबलता नहीं गाँव मेरे।

नदी बोलती-सी हुई चुप दिखाऊँ?  
शहर इस कदर हर कहीं गाँव मेरे। 

14 

सियासी मार से घायल हुआ है यह शहर यारो। 
न अकुलाहट, न अँगड़ाई, न गुस्सा रंचभर यारो।

कभी यह भर रहा होता बड़ी नादान आहें भी, 
यहाँ होते रहे हैं आदमी क्यों दर-बदर यारो ?

बहुत धीरे चला विश्वास की खुरदरी राहों पर, 
अविश्वासी निगाहों ने सदा तोड़ी कमर यारो।

यहाँ तो आदमी के हाथ से अब काम ही गायब, 
युवा कब तक गिनेंगे सिन्धु की उठती लहर यारो।

किले से झाँकने से हल न निकला है यहाँ कोई, 
जमीं उतरो सदाकत से बना करता शहर यारो।

कभी भी आइने धुँधले न देते साथ आँखों का, 
नज़ारा ही बदल जाता बदलती जब नज़र यारो।

जटिलता समय की मारक समझ यदि हम नहीं पाते, 
कभी क्या दे सकेंगे आम जन को शुभ खबर यारो।

ज़रा समझो कि आभासी नई दुनिया तमाशा है, 
समझ कर भी न समझें हम, लुभाती इस कदर यारो।

15
तुम्हें छोड़ना सब बहाना पड़ेगा। 
अहंकार का गढ़ ढहाना पड़ेगा।

जगत्-जीव का रंग देखो मगर अब, 
नया रास्ता खुद बनाना पड़ेगा।

न आशीष से काम चलता हमेशा, 
तुम्हें पाँव खुद ही बढ़ाना पड़ेगा।

निकट ही नहीं दूर तक देखना है, 
ज़रा फिर नज़र को उठाना पड़ेगा।

न हो दृश्य बदरंग कदम से तुम्हारे 
सँभलते हुए पग बढ़ाना पड़ेगा। 

16
सदी बोलती है सुनो मीत मेरे। 
न भयभीत होकर भगो मीत मेरे।

तुम्हें जानना गर कि कल क्या करे रुख, 
ग़ज़ल सब बताती गुनो मीत मेरे।

कठिन मंजिले हैं, पता है मुझे भी, 
मगर हारना क्या? बढ़ो मीत मेरे।

ज़मीनी हकीकत तुम्हें गर पता है, 
समय साधते खुद उठो मीत मेरे।

नहीं ज़िन्दगी के सुरों की समझ गर, 
कहाँ स्वर निकलते? गुनों मीत मेरे। 

17 
निकट भी आना मना है। 
दूर भी जाना मना है।

बन्द घेरे हैं चतुर्दिक, 
लौट घर आना मना है।

शर्त पर बादल उमड़ते, 
सूखती संभावना है।

दीप धीरे से जलाओ, 
अंधड़ों से सामना है।

भागते सब पाँव सिर रख, 
भागने से क्या बना है? 

18
ऐ ज़िन्दगी, न कर मजबूर मुझे। 
जाना अभी है बहुत दूर मुझे।

मैं तो गुनाहों बीच हैरां हूँ, 
दुनिया कहती है बेकसूर मुझे।

तूने मुझे प्यार से पाला है, 
करना न या रब बेशऊर मुझे।

दर्द की संवेदना समझ सकूँ, 
ऐसी निजता दे भरपूर मुझे।

दुनिया यहाँ तमाशा देखेगी, 
करना न बेबस, न मग़रूर मुझे। 

19 
सपना यदि बार-बार छलता है। 
उससे रास्ता भी निकलता है।

ऐसी हिम्मत जुटा लोगे तभी, 
बंजर कहीं अंकुर उगलता है।

ऊपरी इबादत के पार चलो, 
अंदर से ही रंग उभरता है। 

पहचानना मुश्किल मुखौटे में, 
फूल कब मुखौटे में खिलता है।

मन को निखार कर चलो यारो, 
मन निखरते, मुखड़ा निखरता है।

20 
ऐ ज़िन्दगी तेरी पहचान क्या है? 
अन्तर्वस्तु क्या है, उनवान क्या है?

जीने का अधिकार लिए फिरती तू, 
तेरी सम्भावना, इमकान क्या है?

गुज़ारिश यही है कि सँभलना सिखा दे, 
रोज़-रोज़ का यह इम्तहान क्या है?

गिरना-उठना तो यात्रा का हिस्सा है, 
बार-बार तोलना ईमान क्या है?

ऐ ज़िन्दगी खोजा बहुत तुझे इधर, 
पाया न पकड़, तेरा निशान क्या है? 

21 
वह ताज़ा फूल है, छूने से बिखर जाएगा। 
आँखों में बसा लोगे शायद निखर जाएगा।

शाख उसकी माँ है, हिलने से मना करती है, 
नाजुक इतना कि नज़दीक आते गिर जाएगा।

हवाएँ भी अपनी बेताबी सँभाले हैं पर, 
लाओगे आँधियाँ तो विश्वास सिहर जाएगा।

अभी उम्र क्या है उसकी खिलने तो दो उसको, 
खिलने पर बाग़ भी मकरन्द से भर जाएगा।

हम सब की ज़िन्दगी फूल ही है, सँभालो इसे, 
दोगे जिधर हाथ, यह काफिला उधर जाएगा।

बाँटते रहे प्यार यहाँ मयखाने भी हाँक लगा, 
कोई इनसे निकलेगा तब तो घर जाएगा। 

22 
दामन न सही चेहरे पर मसाइल तो है। 
लड़कियों के हाथ में मोबाइल तो है।

ढीले कपड़े की बात करना गुनह है, 
चुस्त कपड़ों में हाथों में फाइल तो है।

दो दो दीनारों पर बिकी हैं लड़कियाँ,
खुला आकाश, अब उड़ने की ख्वाहिश तो है।

हर बार खड़ी करते रहे दीवार ही, 
पवन के संचार की गुंजाइश तो है।

कूपे में कैद रखना अब हुआ मुश्किल, 
खुली हवा में जीने की जुम्बिश तो है। 


23 
ऐ जिन्दगी तेरा मिजाज़ क्या है? 
इसका ताल-सुर और साज़ क्या है?

काले भूरे बादलों में तेरा, 
क्षण क्षण बदलता अंदाज़ क्या है?

दिखता नहीं कुछ यहाँ अँधेरे में 
पर बीच में झपटता बाज़ क्या है?

मुश्किलों में आदमी क्या न करता? 
खिलखिला चिढ़ाती आवाज़ क्या है?

चाँद-तारे सभी आसमाँ में हैं, 
उनकी लय और गति का राज़ क्या है? 

24 
बिछलहर धरती पर पाँव जमा कर तो देख, 
किसी के सपनों में पंख लगाकर तो देख।

खपा दी ज़िन्दगी अपनों के लिए ही मीत, 
कभी दूसरों हित खुद को तपा कर तो देख।

नहीं चढ़ती कभी कच्ची हांडी बार-बार, 
पर पका उसको टनाटन बजाकर तो देख।

यहीं दिखता है सब कुछ, काशी और काबा, 
ज़रा-सा इनके पार मन लगा कर तो देख।

स्वर्ग और जन्नत की बात खूब करते हो, 
पर इस धरती को जन्नत बनाकर तो देख। 

25 
अपने को बताएँ क्या? 
खुद का गम छिपाएँ क्या?

चुभते वक्त के काँटे, 
घावों को दिखाएँ क्या?

ये बेरुखख हवाएँ हैं, 
सिर अपना झुकाएँ क्या?

जब दो हाथ करना है, 
उनसे गिड़गिड़ाएँ क्या?

चहुँ दिश बन्दिशें हैं, 
पत्थर ही उठाएँ क्या? 

26

गाँव-गाँव शहर-शहर परीशान क्यों है? 
आज ज़िन्दगी में इतना उफान क्यों है?

किस-किस के प्यार में पागल हुए हैं सब, 
पर अन्तस् मचा इतना तूफान क्यों है?

बीती हैं सदियाँ उठा-पटक करते ही, 
जन कच्ची राहों पर हलाकान क्यों है?

अन्तरिक्ष में भी पैर जमा खुश दिखता, 
आज भटका हुआ वही इन्सान क्यों है?

ये शहर, ये कोठियाँ सब बोलते दिखे, 
केवल आदमी यहाँ बेज़बान क्यों है?

27 
कभी तो ज़िन्दगी हम पर महरबाँ होगी। 
दुइज के चाँद की हसरत भी जवाँ होगी।

अभी जो कोपलें विश्वास से गद्गद् हैं। 
समय की मुश्किलें उनकी मेजबाँ होगी।

छिड़कते जान हम सब आज जिस पीढ़ी पर, 
न जाने क्या करेगी वह जब जवाँ होगी।

रियासत को न छोड़ेंगे यही दिखता है, 
मगर यह खुद तुमसे दूर हो कहाँ होगी?

हमें विश्वास है हम खोज ही लेंगे खुद, 
कहीं भी ज़िन्दगी की यह लौ जहाँ होगी।

28 
तुम्हारी खूबसूरत-सी खता कोई। 
हमें हर बार देती है पता कोई।

बदल तेवर किया है लाल आँखें भी, 
रिझाती यह तुम्हारी ही अदा कोई।

लबालब हैं भरी नदियाँ मगर प्यासे, 
कहाँ पाते, वही जल सोखता कोई।

सदा मजबूत कन्धों का सहारा ले, 
उमगती-सी लपकती है लता कोई।

अभी तक ज़िन्दगी के प्रश्न उलझे क्यों? 
सवालों के सही उत्तर बता कोई।

शरारत-सी गुनगुनाती उतरती है, 
कहीं उत्तुंग शिखरों से हवा कोई।

छिपाकर आँसुओं को चल न पाओगे 
बताते आइने अन्तर्दशा कोई। 

29 
आँख में सपने उगाना चाहता हूँ। 
ज़िन्दगी तुझको सजाना चाहता हूँ।

कमल कीचड़ में उगे, रंगत बिखेरे, 
इसलिए सूरज उगाना चाहता हूँ।

अब अदीबों पर भरोसा टिक न पाता, 
जनों का विश्वास पाना चाहता हूँ।

वे खड़े हैं देवदारों से, पता है, 
दूब को भी हक दिलाना चाहता हूँ।

उठे जो इतिहास की धारा बदलने, 
उन्हें ही सम्बल बनाना चाहता हूँ। 

30 

जिधर पाँव दो प्रश्न फूटे पड़े हैं। 
दिशाबोध-अरमान औंधे पड़े हैं।

डगर डोलती-सी दिखे रोज हर क्षण, 
न मंजिल सधे, खार ऐंठे पड़े हैं।

न भागो, कभी प्रश्न कितना जटिल हो, 
कभी क्या समाहार टपके पड़े हैं।

नई राह गढ़ता वही कुछ बनाता, 
बँधी लीक पर पग जमूरे पड़े हैं।

बहुत कुछ लिखा ज़िन्दगी की किताबों, 
अगर लिख सको पृष्ठ कोरे पड़े हैं।

31 
पेड़-पौधे सभी गुनगुनाने लगे। 
सर्जना के नए गीत गाने लगे।

सरसरा कर चला क्या वसन्ती पवन, 
ठूंठ के कान ऐंठे लजाने लगे।

अब परिन्दे सभी उठ पड़े कुनमुना 
झुण्ड के झुण्ड रासें रचाने लगे।

सुरसुरी-सी मचाकर जगत्-जीव में, 
पंचशर खींच मनसिज चलाने लगे।

वंचितों का खुशी-ग़म मुखौटा नहीं, 
फाग-चौताल वे झूम गाने लगे। 


32 
अभी तो चल रही है साँस देखो तो, 
कहीं अटकी हुई है आस देखो तो।

दिलों में बैठकर जो बात करता था, 
खुदा उसको बुलाता पास देखो तो।

कभी नकली यहाँ असली नहीं होते, 
सदा असली करे बू-बास देखो तो।

कहानी लिख चुके जो आँसुओं से, 
वही अब बाँटती अहसास देखो तो।

यहाँ तो आदमी केवल खिलौना है, 
उगा पाये अगर विश्वास देखो तो। 

33 
कटे पंख को फड़फड़ाना नहीं है। 
कभी भी किसी को सताना नहीं है।

सही सोच से ज़िन्दगी है सँवरती, 
गलत राह पर पग बढ़ाना नहीं है।

यहाँ ज़िन्दगी खुद उछलकूद करती, 
लगे घाव यदि तिलमिलाना नहीं है।

सभी रास्ते स्निग्ध समतल न होते, 
कभी यदि गिरे टूट जाना नहीं है।

बहुत दूर मंज़िल मगर याद रखना, 
बिना श्रम कभी लक्ष्य पाना नहीं है।


34 
सुधियों की अँगड़ाई पिहँकती चली गयी। 
पीर सभी तार-तार जुड़ती चली गयी।

कौन सुने कौन गुने पीर भरी बातें, 
कौवों की झाँव झाँव बढ़ती चली गयी।

नींद में माते लोग बुदबुद करते हैं, 
स्वप्नों के साये हैं, धरती दली गयी।

मानव में जंगल बार-बार उगता है, 
शेरों की माँद में मनुजता छली गयी।

पंछी सब सहमें, कहाँ जाएँ, क्या करें? 
धरती आकाश की ठौर भी चली गयी।

अहं के उभार से क्या हम बच पाये ? 
सीख सभी कोरोना की किस गली चली गयी? 

35 
पीर सहलाते हुए वे जी रहे हैं। 
घाव अपने दर्द सहते सी रहे हैं।

कौन जाने दर्द सम्हले या कि बढ़ ले, 
आँख से जो अश्क निकले पी रहे हैं।

पाँव में छाले बहुत पर चल पड़े वे, 
राह के काँटे डराते ही रहे हैं।

जो डरे हैं बिजलियों या आँधियों से, 
भयभीत वे घर बैठ जाते ही रहे हैं।

डर भगा निकले मकाँ से गुनगुना जो, 
साँस रोके, शर सधाते ही रहे हैं। 

36 

थोड़ी आज़ादी पा मुस्कराने लगे हैं। 
माँ-बाप से बच्चे दूर जाने लगे हैं।

बच्चे फूल हैं, आज़ादी उन्हें प्रिय है, 
माँ-बाप अपने को समझाने लगे हैं।

घर में बैठ जीविका कमाना हुआ मुश्किल, 
वे वैश्विक गगन में मँडराने लगे हैं।

दूर जा अपनी ज़मीन से जुड़े रहना,
इस कठिन समय में आजमाने लगे हैं।

वे बच्चे हैं, उनकी उड़ान को पंख दो, 
वे आसमाँ नाप, जमीं आने लगे हैं।  


 37 
काली-सी चिड़िया सुर में गाती तो है। 
बेटी दूर है पर याद आती तो है।

अपने वतन से भगाए गये हैं जो, 
उनकी आह हमें भी सुलगाती तो है।

याद न करेगा भले ही कोई तुम्हें, 
यह तुम्हारी आवाज़ टकराती तो है।

लम्बी साँसें लेने वाले क्यों दुखी ? 
तुम्हारी साँस भी आती-जाती तो है।

जर्जर नाव से भी नदी पार करके, 
साहस भरी ज़िन्दगी इतराती तो है। 

37 
इस अँधेरी रात में भी दिया टिमटिमाता तो है। 
और उसकी रोशनी में सच नज़र मिलाता तो है।

कह रहे हैं लोग अँधेरा छँट सके संभव नहीं, 
फिर सुबह होगी सूरज यह आस उपजाता तो है।

मानता हूँ ज़िन्दगी की राहें भी कण्टक भरी, 
खार-वन भी पाँवों को चुनौती दे जाता तो है।

कठिनाइयों को चीर कर राहें बन जातीं सदा, 
पग बढ़ाना धैर्य रख, कोई सिखा जाता तो है।

जीना भी दूभर करेंगी यदि बढ़ी आसानियाँ, 
बहुत मीठे में भी तीता स्वाद दे जाता तो है। 

39 
फिर चिड़ियों ने छोड़ दिए गाँव। 
देखो अब तो शहर हुए गाँव।

दिखती नहीं चिड़ियों की चहचह, 
क्यों इतने मजबूर हुए गाँव।

अमवारी पनघट सपने हुए, 
शिलाखण्डी होते गए गाँव।

दिखता न कोई घरों के द्वार, 
घर के अन्दर कैद हुए गाँव।

रचा सन्नाटा, पिंहके न मोर, 
क्यों अन्तस् से दूर हुए गाँव। 


40 
तुम्हारी बोलती आँखें। 
बहुत कुछ खोलती आँखें।

जरा-सी बात में पानी, 
भला क्या तोलती आँखें?

तुम्हें लगतीं बहुत भोली, 
मगर रस घोलती आँखें।

निमंत्रण मौन देती हैं, 
भ्रमर-सी डोलती आँखें।

कभी वे बावरी होतीं, 
नया पथ खोलती आँखें। 

41 
कैसे-कैसे दंश झेलते, जीते जाते लोग। 
जाने कितना शोर मचाते, चलते जाते लोग।

उड़ते फैलाकर पंख सदा, धरा गगन कर एक, 
उलझ उलझकर नित्य द्वन्द्व में, फँसते जाते लोग।

जलते-भुनते कभी टूटकर, देखें राह अनेक, 
पार न पाते दलदल से, पर पैर जमाते लोग।

जीवन की हर दिशा टटोलें, हर दरार पर चोट, 
दुखिया-दुखिया चिल्लाते हैं, नयन नचाते लोग।

खुश होकर जी सकते, लेकिन कहाँ मानते कभी, 
पानी में भी आग लगाकर नींद चुराते लोग।