राजकुमारी लीलावती की अनुमति से राज दरबार का आयोजन किया गया. पूर्णिमा की रात्री में राजभवन में विशाल सभामंडप सजाया गया. राज सिंहासन पर राजकुमारी विराजमान है. समीप ही राजकुमारी लीलावती की सहेलियाँ और सेविकायें तथा राज परिवार से संबंधित महिलाएं बैठी है. आज का दरबार सम्पूर्ण रात्रि भर चलेगा.
राजकुमारी के सामने एक भद्रासन पर विक्रमादित्य बैठे हैं. भद्रासन इतना निकट है कि राजकुमारी राजा विक्रमादित्य की बात आसानी से सुन सके, कक्ष के मध्य में सोने की चौकी पर रत्नजटित स्वर्णदीपिका जल रही है, फूलदान रखे हुए हैं उनमें रखे पुष्प अपनी सुगंध फैला रहे हैं, एक शीतल जल का कलश रखा हुआ है, एक ओर नगाड़ा रखा है जो रानी के बोलने पर उद् घोषणा के समय बजाया जाता है, एक सेविका ने नगाड़ा बजाकर उद् घोषणा की आज अपरिचित भद्र पुरुष अपने बुद्धि कौशल द्वारा राजकुमारी का मौन व्रत तुड़वाकर चार बार बोलने को बाध्य करेगा, यदि राजकुमारी लीलावती चार बार बोलने को विवश हो गयी तो वह इस अपरिचित पुरुष को अपना जीवन साथी स्वीकार करने को बाध्य होगी. यदि राजकुमारी को चार बार बोलने हेतु पुरुष विवश न कर सका तो उसे काल कोठरी में आजीवन कारावास भुगतना होगा, दोनों पक्षों को ये शर्ते स्वीकार हैं ?
रात्री का प्रथम प्रहर प्रारम्भ होने वाला है, प्रतियोगिता प्रारम्भ होने जा रही है.
प्रतियोगिता प्रारम्भ होने से पूर्व सेविका ने कहा - इससे पूर्व कि प्रतियोगिता प्रारम्भ हो मैं प्रतियोगी पुरुष से अनुरोध करती हूं कि वह अपना संक्षिप्त परिचय देने का कष्ट करे.
सम्राट विक्रमादित्य ने कहा - "मैं यहां अपना परिचय देने नहीं आया हूं,राजकुमारी की शर्तो के अनुसार यह आवश्यक भी नहीं है कि मैं अपना परिचय दूँ अत: मैं अपना परिचय देना नहीं चाहता. आज की यह प्रतियोगिता स्वयं मेरा परिचय देगी, समय व्यर्थ नष्ट न कर प्रतियोगिता प्रारम्भ की जाय."
राजकुमारी लीलावती ने राजा विक्रम की ओर देखा और उसकी मधुर वाणी सूनी तो उसके ह्रदय में अंतरद्वन्द प्रारम्भ हो गया. वह सोचने लगी - कितना सुंदर और आकर्षक पुरुष है, दीपक लेकर खोजने पर भी इतना साहसी पुरुष मिलना कठीन है.
मन ही मन वह उस युवक के प्रति आकर्षित हो उठी, किन्तु नारी मन को समझना अत्यधिक कठिन है, उसकी हठ भी विचित्र होती है, राजकुमारी ने फिर अपने आप से कहा - "मेरी प्रतिज्ञा अटल है. यदि यह अपनी बुद्धि और कौशल से मुझे बोलने को बाध्य नहीं कर सकेगा तो इसका भी वही परिणाम होगा जो पूर्व में अन्य पुरुषों का हुआ है. मेरी सम्पूर्ण जनता व सारा देश मेरी प्रतिज्ञा जानता है, मैं भावुक होकर अपनी कीर्ति नष्ट नहीं कर सकती. मैं आजीवन कुंवारी रहूंगी किन्तु प्राण-प्रण से अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करूंगी, मैं बोलूंगी ही नहीं तो कौन मुझे बोलने को बाध्य कर सकेगा,
राजकुमारी लीलावती की सहेलियाँ मन में सोचती हैं कि हे भगवान हमारी सहेली हार जाय. यह सुंदर और सलोना पुरुष जयवंत हो.हमारी सहेली की हार में ही उसकी जीत है. उसका सुखद और सौभाग्यपूर्ण जीवन उसकी हार में ही छिपा है नारी कितनी ही योग्य क्यू न हो किन्तु पुरुष की भांति न तो युद्ध कर सकती है और ना ही युद्ध का संचालन. किसी दिन किसी शक्तिशाली राजा ने आक्रमण कर दिया तो हमारी राजकुमारी को आश्रित जीवन जीने के लिये विवश होना पड़ेगा. यदि राजकुमारी पराजीत होती है तो उसको श्रेष्ठ वर और कंचनपुर राज्य को समर्थ उत्तराधिकारी मिल जायेगा.
रात्री का प्रथम प्रहर प्रारम्भ
हुआ. चारों ओर नीरवता...गहरा सन्नाटा छाया हुआ है. विक्रमादित्य चिंतित हुए और सोचने लगे राजकुमारी को बोलने के लिये कैसे विवश किया जाय. जब राजकुमारी मौन है तो मेरी बात का उत्तर कौन देगा ? सभी मौन रहेंगे और इस तरह तो रात बीत जाएगी, मुझे पराजय का मुंह देखना पड़ेगा. सहसा उन्हें वेताल की याद आई. अत्यंत कठिनाई से उन्होंने वेताल को सिद्ध किया था. वेताल विक्रम के साथ छाया की तरह अनुगामी रहता था, उन्होंने वेताल को स्मरण किया. अदृश्य वेताल ने मंद स्वर में कहा - स्वामी! अनुचर उपस्थित है आज्ञा दीजिये.
विक्रम ने कहा - वेताल तुम उस दीपक में प्रवेश करके मेरे साथ बात-चीत करो कोई कहनी सुनाओ
वेताल बोला - स्वामी!मैं आपके साथ क्या बात कर सकता हूं ? मुझे तो बात करना ही नहीं आता. मुझे कहानी भी नहीं आती.
राजा विक्रमादित्य ने सभा को सम्बोधित कर कहा - "रात बहुत लम्बी होती है,बिना बात किये मौन रहकर समय काटना अत्यंत कठिन होता है. इसलिए मैं राजकुमारी और उसकी सहेलियों से बात करना चाहता हूं किन्तु राजकुमारी बोलना नहीं चाहती और स्वामिनी न बोले तो सेविका कैसे बोल सकती है ? इसलिए मैं दीपक से बात करना चाहता हूं"
यह सुनकर सभी मौन भाव से आश्चर्य पूर्वक देखते रहे.
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