नगर में प्रवेश करने पर राजा विक्रमादित्य ने एक सुंदर भवन देखा. भवन के बाहर सुंदर प्रांगण था. इसी आंगण में लगे एक आम्रवृक्ष के नीचे एक तेजस्वी पुरुष को देखा तो वह अपना कुतुहल नहीं रोक सका.
सम्राट विक्रमादित्य के पास आया और बोला - "परदेशी प्रतीत होते हो ? कहां से आये हो भाई ?
सम्राट विक्रमादित्य ने उत्तर दिया- "मैं उज्जयिनी से आया हूं
आनंद को यह जानकर प्रसन्नता हुयी और वह सहज भाव से बोला - क्या उसी उज्जयिनी
से आये हो जहां सम्राट विक्रमादित्य का शासन है ?
सम्राट विक्रमादित्य ने उत्तर दिया - हां भाई उसी उज्जयिनी से आया हूं.
आनंद ने कहा - भाग्यवान हो जो सम्राट विक्रमादित्य द्वारा शासित राज्य की नगरी उज्जयिनी में रहते हो.सुना है सम्राट विक्रमादित्य अत्यंत सुंदर है. उनकी देह यष्टी अत्यंत आकर्षक है. सुंदर होने के साथ युद्ध कौशल में निपुण है. इतना ही नहीं स्वयं महान विद्वान है और विद्वानों का सन्मान करना भी जानते है.
बड़े उदार और प्रजा वत्सल है. उनके दरबार में नौ रत्न है जो विविध विद्याओं के श्रेष्ठ विद्वान है.
सम्राट विक्रमादित्य स्वयं एवं स्वयं के शासन की प्रशंसा सुनकर मन ही मन हर्षित हुये और बोले - भाई तुम ठीक कहते हो.
किन्तु आनंद की जिज्ञासा शान्त नहीं हुयी व बोला - सुना है सम्राट बहोत न्याय प्रिय है. उनके न्याय की कथायें सम्पूर्ण भारतवर्ष में अधरों से अधरों पर यात्रा करती हुयी विचरण कर रही है. उनके राज्य में चोरी, डकैती, बलात्कार और हत्याये नहीं होती. लोग अपने घरों में ताले नहीं लगाते. वे वेश बदल कर रात्री में घूमते है. दीन, दुःखियों को स्वयं खोजकर उनकी सहायता करते है. वे लोक कल्याण की प्रतिमूर्ति है. उनके राज्य को राम राज्य की संज्ञा दी जाती है क्या यह सब सत्य है ?
सम्राट विक्रमादित्य ने कहा - बंधु! मैं तो इतना ही कह सकता हूं कि विक्रमादित्य के शासन में प्रजा सुखी है और सम्राट अपने कर्तव्यों का पालन निष्ठापूर्वक करते है.
आनंद ने कहा - मैं सम्राट विक्रमादित्य के बारे में विस्तार से सुनना चाहता हूं, तुम सुनाओ और उत्तर की अपेक्षा में उसने विक्रमादित्य की ओर देखा. उनके चेहरे की आकृति, तेज और शरीर से परिलक्षित होती कांति को देखकर आनंद ने कहा - कहीं तुम्ही तो सम्राट विक्रमादित्य नहीं हो ?
सम्राट हसने लगे और बोले - "भाई क्यों मेरी हँसी उड़ाते हो"
आनंद ने कहा - मुझे जैसा प्रतीत हुआ मैंने वैसा ही अभिव्यक्त कर दिया. तुम यात्रा करते हुये आ रहे हो, भोजन का समय भी हो गया है. महानुभाव!मेरा आतिथ्य स्वीकार करें.
सम्राट ने कहा - मान्यवर क्या आप अपना परिचय देंगे ?
आनंद ने कहा - "मैं एक शिल्पी हूं"
राजा विक्रमादित्य ने कहा - मूर्तिकार, चित्रकार, काष्ठकार, कुम्भकार ये सब प्रकार के कलाकार शिल्पी की श्रेणी में आते है आप किस कला से संबंधित है ?
आनंद ने उत्तर दिया - मैं कुम्भकार हूं. कुम्भ, दीपक, लघु घट, बड़े घट, मधु चषक आदि अनेक प्रकार की कलाकृतियां मिट्टी से बनाता हूं. अपनी कला के संदर्भ में मैं क्या कहूँ आप स्वयं ही देख लेना. पर्याप्त समय हो गया है अब मेरे भवन में पधारें और भोजन करें.
सम्राट विक्रमादित्य ने शिल्पी आनंद के घर भोजन किया और विश्राम किया. विश्राम के पश्चात दोनों देश-विदेश की बातें करते रहे. पुनः यात्रा प्रारम्भ करने से पूर्व सम्राट ने कहा - "मैं दक्षिण की यात्रा पर जा रहा हूं. कंचनपुर की राजकुमारी लीलावती के रूप और सौन्दर्य की बहुत प्रशंसा सूनी है. मैं उसे प्राप्त करने की लालसा से जा रहा हूं."
आनंद ने कहा - तुम स्वस्थ सुंदर और प्रतिभाशाली युवक हो क्यों व्यर्थ में अपना जीवन नष्ट करने पर तुले हो ? वह जितनी रूपसी है, उतनी ही निष्ठुर भी है. उज्जयिनी और सम्पूर्ण भारतवर्ष में रूप का अकाल नहीं पड़ रहा, उसे पाने की कामना छोड़ दो. अभी तक ऐसी कोई कला के बारे में नहीं सुना जो कोई बोलना न चाहे उसे बोलने को बाध्य कर दे.
विक्रमादित्य ने कहा -
महानुभाव! आप यथार्थ कहते है. किन्तु राजकुमारी लीलावती की प्राप्ति की आकांक्षा से जो युवक कंचनपुर गये थे वे बड़े साहसी और प्रतिभाशाली युवक थे. उनका जीवन व्यर्थ ही कारावास में सड़ता रहेगा.यदि राजकुमारी लीलावती को विजीत नहीं किया तो निरंतर देश की प्रतिभा की हानि होती रहेगी. कारावास में बन्दी देश की प्रतिभा को मुक्त कराना भी हमारा दायित्व है. इसका उपचार एकमात्र राजकुमारी लीलावती से विवाह करना है.
आनंद बोला - महानुभाव! आपके विचार महान है आप राजकुमारी लीलावती से विवाह करने के साथ ही देश की प्रतिभाओं का उद्धार भी करना चाहते है आपकी यात्रा सफल हो किन्तु.......