विक्रमादित्य बोले - किन्तु क्या ?
आनंद बोला - किन्तु तो यूं ही कह दिया. वास्तव में राजकुमारी लीलावती से विवाह करना बड़ी टेडी खीर है. तुम्हारी प्रतिभा को बहोत पापड़ बेलने पड़ेंगे. फिर भी मेरी सद्भावनायें तुम्हारे साथ है. तुम्हारी यात्रा सफल हो, शुभमस्तु ते पंथान: .....
विक्रमादित्य बोले - बंधु! मात्र मेरी सफलता की कामना से ही सिद्धि प्राप्त होने वाली नहीं है. मुझे कंचनपुर की राजकुमारी लीलावती के विषय में आवश्यक जानकारी कराने में कुछ सहायता कीजिये.
आनंद बोला - अवश्य अतिथि! मुझे जितना ज्ञात है उतना बताने में मैं प्रसन्नता का अनुभव करूंगा. सुनो....तुम दक्षिण दिशा में बढते चले जाओ और जब सुंदरवन नाम का वन आ जाये तो वहाँ रुक जाना. सुंदरवन दक्षिण भारत का प्रसिद्ध वन है. वह एक बृहद सुंदरतम उद्यान है. प्रत्येक महीने की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को वहाँ एक दिवसीय मेले का आयोजन किया जाता है. उद्यान के मध्य में चामुंडी देवी का भव्य एवं दिव्य देवालय है. वही यात्रियों की श्रध्दा और आकर्षण का केंद्र है. हजारों की संख्या में यात्री आते है और देवी की आराधना करते है. सूर्यास्त के समय ही मेला समाप्त हो जाता है. सूर्य अस्त होने के पश्चात राजकुमारी लीलावती अपनी सखियों के साथ आकाश मार्ग से आती है और देवलय नृत्य और भक्ति संगीत से गूंज उठता है. देवालय के आंगन में राजकुमारी लीलावती अपनी कंचुकी उतार कर संगमरमर के एक पाषाण खंड पर रख देती है. देवालय में चामुंडी माता की वेदिका पर रखे दीप को छोड़कर सभी दीप बुझा दिये जाते है और कंचुकी में जड़े रत्नों के प्रकाश में नृत्य गीत और वाद्य के साथ राजकुमारी और उनकी सखियों द्वारा चामुंडी की आराधना सम्पन्न होती है. उस समय राजकुमारी और उसकी सखियों को छोड़कर देवालय में सब का प्रवेश वर्जित रहता है. यदि तुम किसी भी विधि से उस कंचुकी को प्राप्त कर लो तो कंचुकी लौटाने के बदले तुम्हारा साक्षात्कार राजकुमारी लीलावती से हो सकता है.
विक्रमादित्य ने कहा - भाई आनंद! मैं तुम्हारा उपकार जीवन पर्यन्त नहीं भूलूंगा. कभी उज्जयिनी आओ तो अवश्य भेट करना. यह कह कर राजा विक्रमादित्य चल दिये.
आनंद ने पुकार कर कहा - ओ भाई परदेशी! अपना नाम और पता तो बताते जाओ. मैं उज्जयिनी में तुम्हें कैसे खोजूँगा ?
राजा विक्रमादित्य ने बिना रुके कहा - इसकी कोई आवश्यकता नहीं, उज्जयिनी आते ही मुझे पता चल जायेगा कि तुम आ गये हो.
आनंद कुतूहल भरी दृष्टी से राजा को देखते ही रह गया जब तक कि वे आँखो से ओझल न हो गये.
राजा विक्रम ने दक्षिण भारत की सीमा में प्रवेश किया. दक्षिण भारत के जन साधारण में सर्वत्र रानी लीलावती की चर्चायें व्याप्त थी. कोई उसके रूप की प्रशंसा कर रहे थे तो कोई उसकी बुद्धिमत्ता की, कोई वैभव की तो कोई उसके स्वर और गीत की. राजा विक्रम कल्पना में राजकुमारी लीलावती की आकृति बनाने लगे और उस विभिन्न गुणों से विभूषित नारी को पाने के लिये व्याकुल हो उठे. उनके चरणों की गती बढ़ गयी. वे जितनी जल्दी हो उतनी जल्दी सुंदरवन में पंहुच जाना चाहते थे. आखिर उनका गंतव्य निकट आ ही गया. सुंदरवन में पंहुच कर उन्होंने माता चामुंडी की भक्तिभाव से वंदना की. चामुंडी माता का देवलय विशाल था. माता की मूर्ति के आगे बहुत बड़ा प्रांगण था. जहां भक्ति संगीत का मधुर नाद गूँजता रहता था. नदी के प्रवाह की भांति श्रध्दालुओं की भीड़ उमड़ती आ रही थी. चामुंडी माता की मूर्ति बहुत विशाल थी. लोगों की मान्यता थी कि माता जिस पर प्रसन्न हो जाती है उसका भाग्योदय हो जाता है.
राजा विक्रम आतुरता से कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की प्रतीक्षा करने लगे. अंततः कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी आयी. सुंदरवन की सघन नीरवता घटने लगी. सूर्योदय के साथ कोलाहल बढ़ने लगा. सुंदरवन में विविध वेश-भूषा में देश- विदेश के नर-नारी दृष्टीगोचर होने लगे. "जय चामुंडी माता"
"जय चामुंडी माता"के जयघोष से सुंदरवन नीनादित हो उठा. राजा विक्रम मेले में घूमते रहे. मेले की साज़ सज्जा अनुपम थी. कहीं नट-नटी अपना करतब दिखा रहे थे. कहीं सपेरेबीन बजाकर सांपों को खिलाने का कौशल प्रदर्शित कर रहे थे. पुषों और नारिकेल की दुकानों पर बड़ी भीड़ थी. संध्या का समय निकट आया राजा विक्रम ने भी आराधना के लिये सामग्री खरीदी और चामुंडी माता की आराधना के लिये मंदिर में पहुंचे. मंदिर में नर नारियों की विशाल भीड़ थी. सम्पूर्ण देवालय में चंदन और कपूर की सुगंध व्याप्त थी. विशाल देवलय भी भीड़ को देखते हुये अत्यंत छोटा प्रतीत हो रहा था. राजा विक्रम ने भक्तिभाव से माता चामुंडी की आराधना की. सूर्योदेव ने पश्चिम दिशा की ओर यात्रा प्रारम्भ कर सांध्य वेला के आगमन की सूचना दी.सांझ होते ही पूजारी ने घोषणा प्रारम्भ कर दी. अर्चन पूजन शीघ्र कीजिये सूर्यास्त के पूर्व सभी को देवलय के बाहर जाना अनिवार्य होगा.
माता चामुंडी की परम उपासिका कंचनपुर की राजकुमारी लीलावती माता के दर्शन को पधारेगी.....
धीरे धीरे भीड़ कम होने लगी. राजा विक्रम देवालय में छिपने का स्थान खोजने लगे. विगत वर्षो में ऐसी कोई घटना नहीं घटी थी कि रात्री में कोई नर देवालय में रह गया हो. इसलिये पुजारी यह जानने का प्रयत्न नहीं करते थे कि देवालय में कोई रह तो नहीं गया. सूर्यास्त के पूर्व मंदिर रिक्त हो गया. राजा विक्रम चामुंडी माता की प्रतिमा के पीछे छिप गये. पुजारी देवलय के द्वार बंद कर चला गया......
-
-
क्रमशः