"क्या हुआ?" जस्टिस दीवान ने सम्मोहित कर देने वाले स्वर में पूछा- कहां खो गई आप?"
और फिर, जैसे दीवान के मेस्मोरिज्म से बाहर निकल आई ममता। उसने फौरन अपने जज्बात पर काबू पाया तथा स्वयं को संभाल लिया।
"सॉरी सर।" फिर वह बोली- "मुझे ऐसा लगा, जैसे यहा आकर मैं सम्मोहित हो गई हूं।"
"आप मजाक कर रही हैं?" दीवान ने अपने होंठों पर पूर्ववत मुस्कराहट लिए हुए कहा- "किसमें हिम्मत है, जो क्राइम ब्रांच की इस होनहार इंस्पेक्टर को सम्मोहित कर सके। हां, अगर हम सम्मोहित हो गए होते तो और बात होती।"
"अब आप मजाक कर रहे हैं सर।” ममता तनिक लजाकर बोली। "चलिए, ऐसा ही सही। वैसे हम हिप्नोटिज्म, मैस्मोरिज्म या
सम्मोहन के बारे में कुछ अधिक नहीं जानते। हमारी आदरणीय
माता जी से कभी इस बारे में पूछा था हमने । जो जवाब मिला, वह आज भी हमें याद है।" "क्या जवाब मिला था सर?" ममता ने उत्सुकता से पूछा ।
"उनका जवाब था- हॉटों की मुस्कराहट टूटने न दो, दूसरों की ज्यादा से ज्यादा मदद करो। सबसे मधुर व्यवहार करो और स्वास्थ्य की कीमत पर कोई समझौता न करो। फिर तुम्हें हिप्नोटिज्म, मेस्मोरिज्म या सम्मोहन के बारे में कुछ जानने की जरूरत न रहेगी। तुम्हें जो भी देखेगा, सम्मोहित हो जाएगा। तुमसे जो भी मिलेगा, तुम पर मर मिटेगा।”
"वाह!" ममता के होंठों से निकला- "कितना सुंदर और सटीक उत्तर दिया उन्होंने लगता है आपने ये चारों सिद्धांत जीवन में अपना लिए हैं।”
"नहीं अपना पाए।" दीवान के होंठों पर थिरक रही मुस्कराहट में जरा सी कड़वाहट अपना पाए हम उन सिद्धांतो उचाहकर भी नही न्यायाधीश की कुर्सी पर
बैठने के बाद, न्याय करते समय हमें बहुत कुछ सहना पड़ता
है मिस ममता। इसका अंदाजा आप नहीं लगा सकती।" "आप ठीक ही कह रहे हैं। मैं सहमत हूं आपसे
ममता नजरें झुकाकर बोली- "मेरा खुद का यह मानना है कि इंसाफ की कुसी पर बैठकर सही इंसाफ करना इस संसार का सबसे मुश्किल काम है।"
छोड़िए इस बात को।" दीवान अपनी गर्दन को झटका देकर बोले- हम न जाने कहां उलझ गए। हम आपसे यह पूछ रहे थे, कैसे आना हुआ?"
“मैं यह बताने आई हूँ सर कि जिस कानून की रक्षा करने के लिए आपको न जाने क्या क्या सहन करना पड़ता है, उसे कोई सरे बाजार नीलाम करने पर तुल गया है।"
"हम कुछ समझे नहीं।" दीवान चौंककर बोले ।
प्रत्युत्तर में बैरिस्टर विनोद के बारे में विस्तारपूर्वक बताती चली गई क्राइम बांच की इंस्पेक्टर । सुनकर दीवान का चेहरा गंभीर होता चला गया।
“क्या आप बैरिस्टर विनोद के शोरूम में गई थी?"
"जी नहीं सर, लेकिन मेरा इंफॉर्मर वहां गया था। हनुमान नाम है उसका। उसने मुझे जितनी भी बातें बताई हैं, उनमें एक भी गलत नहीं हो सकती।”
"ओके।" दीवान फिर अपने होंठों पर मुस्कराहट बिखेरते हुए बोले- “ऐसा ही सही। अब आप यह बताइए कि हमसे क्या चाहती हैं?"
"ज...ज...जी.”
"अगर आप यह समझती हैं कि हम उस शोरूम को बंद करवा देंगे तो आप गलत सोच रही हैं।
"मैं कुछ समझी नहीं सर ।"
"मिस ममता। हम एक जज हैं। किसी इलाके के इंस्पेक्टर या थानेदार नहीं। हमारी सीमाएं केवल न्यायालय कक्ष के भीतर
तक ही सीमित हैं।"
"मगर सर... "
साफ-सी बात है।" दीवान सपाट स्वर में बोले- जब तक हमारी अदालत में उस शोरूम के खिलाफ कोई शिकायत दर्ज नहीं हो जाती, हम कुछ भी नहीं कर सकते।"
तो क्या वह शोरूम यूं ही चलता रहेगा, कानून की खरीद-फरोख्त यूं ही होती रहेगी।"
"अब आप खामखाह जोश में आ रही हैं, यकीन मानिए कि ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा, जो पहले न होता आया हो । कानून जब से बना है, तभी से इसकी खरीद-फरोख्त शुरू हो गई थी। अब तक न जाने कितने ही लोग इसे खरीद और बेच चुके हैं।"
"मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा सर ।”
"आप एक पुलिस अधिकारी हैं।” दीवान शांत स्वर में बोले- “आपके विभाग में क्या कानून की खरीद-फरोख्त नहीं होती? क्या कानून के भाव नहीं लगाए जाते? सच यह है मिस ममता कि कानून की मार सिर्फ उसी पर पड़ती है, जो कानून को खरीदना या बेचना नहीं जानते। जो कानून को खरीदना और बेचना जानते हैं, कानून उनके चरणों का दास बन जाता है।"
“ये आप कह रहे हैं? एक जज होकर ?"
"जज भी एक इंसान ही होता है। उसके सीने में भी दिल होता है। गलत बात उसे भी कचोटती है। सही काम उसे भी अच्छा लगता है। इंसाफ की कुर्सी पर बैठकर भी कई बार हम इंसाफ नहीं कर पाते। हमें अपना हर फैसला सुबूतों और गवाहों की बिनाह पर सुनाना होता है। न जाने कितनी ही बार ऐसा होता है कि सुबूत खरीद लिए जाते हैं। गवाह बिक जाते हैं और फिर...
“और फिर क्या सर...?"
“न चाहते हुए भी हम गलत फैसला सुनाने पर विवश हो जाते हैं। जानते-बूझते हुए भी हमें अनेक बार गुनहगारों को बाइज्जत बरी करना पड़ता है और निर्दोष को सजा सुनानी पड़ती है।"
ममता आश्चर्य से आंखें फाड़े दीवार की ओर देखने लगी,
जिसके शांत चेहरे पर एक धीमा धीमा तूफान अंगड़ाइयां लेने लगा था।
"आप अनुमान नहीं लगा सकतीं मिस ममता।" दीवान एकाएक तड़पकर बोले- “जब हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि जिसे बाइज्जत बरी कर रहे हैं, वह गारंटिड मुजरिम है और छूटने के बाद वह और भी अपराध करेगा, उसे छोड़ना पड़ता है, तब हमारे दिल पर क्या गुजरती है। हम कई-कई रात सो नहीं पाते। हमारा चैन और सुन छिन जाता है। उससे भी कहीं बुरी हालत हमारी तब है, जब हम यह अच्छी तरह जानते हुए कि सामने वाल निर्दोष है, उसे सजा सुना देते हैं।"
“क्या इसका कोई इलाज नहीं है सर?"
फिलहाल तो दिखाई नहीं देता। शायद कोई इलाज है भी नहीं। जहां चपरासी से लेकर अधिकारी तक बिकते हों, मुंशी से लेकर वकील तक बिकते हों, सुबूत बिकते हों, गवाह बिकते हों, यहां तक कि जज और मजिस्ट्रेट तक बिक जाते हों, वहां कानून बेचारा अपना बचाव कैसे कर पाएगा। उसे भी बिकना ही पड़ेगा न ।"
"बात बैरिस्टर विनोद की हो रही थी सर।”
"वह वकील ऐसा कुछ नहीं कर रहा, जो दूसरे वकील करते हों। फर्क सिर्फ इतना है कि वह जिस काम का ढिंढोरा पीट रहा है, दूसरे वकील उसी काम को गुप-चुप ढंग से कर
रहे हैं।"
"कुछ भी हो सर । कानून की यह खुली खरीद-फरोख्त मुझे तो उचित नहीं लगी। इसलिए मैं आपके पास चली आई।" "बहुत जल्दी की आपने यहां आने की।" दीवान हंस
पड़े बेहतर होता, आप खुद बैरिस्टर विनोद के शोरूम पर जातीं। वहां कुछ ऐसा खोजत, जो कानून के खिलाफ हो । फिर एक सामान्य नागरिक की हैसियत से उसके खिलाफ मामला दायर करतीं। तब शायद हम कुछ कर भी पाते, लेकिन जब कोई मामला हि नहीं है तो हम कर ही क्या सकते हैं।”