Chouboli Rani - 2 in Hindi Adventure Stories by Salim books and stories PDF | चौबोली रानी - भाग 2

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चौबोली रानी - भाग 2

कहानी  में क़ल आपने पढ़ा मैना अपने तोते को लीलावती की कहानी सुनाने लगी, वह बोली - 
   "दक्षिण भारत में कंचनपुर केमहाराज जयसेन की पुत्री राजकुमारी लीलावती उस समय की श्रेष्ठ सुंदरी है. उनकी वह एक ही संतान है. महाराज चाहते थे कि किसी श्रेष्ठ वर के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर अपना शेष जीवन प्रभु की शरण में बिताऊं, किन्तु राजकुमारी लीलावती की प्रतिज्ञा के कारण उसका विवाह होना असंभव था. महाराज जयसेन दिवंगत हो गये. राज्य का संचालन लीलावती करने लगी. उसकी प्रतिज्ञा थी कि जो व्यक्ति एक रात्री में अपनी बुद्धिमत्तापूर्ण बातों के द्वारा उसका मौन व्रत तोड कर चार बार बोलने को विवश कर देगा उसी को व अपना जीवन साथी के रूप में चुनेगी. राज कुमारी लीलावती अद्वितीय सौन्दर्य शालिनी थी. विचक्षणा थी. पर उसकी प्रतिज्ञा विचित्र थी. कोई बोलना न चाहे तो उसे बोलने को कैसे बाध्य किया जा सकता है ?
    राजा विक्रमादित्य ने तोता-मैना की वार्ता सुनी. सुनकर चिंतन में डूब गये. पक्षी आदमी की भाषा कैसे बोल सकते हैं ? ये कोई देवी देवता होने चाहिये. या फिर कोई संयोग है ? मुझे उद्देश्य कर सुनाने के पीछे क्या कारण हो सकता है ?
    सम्राट विक्रमादित्य की मन-भावना राजकुमारी लीलावती का सुंदर चित्र सजाने लग गयी. रूप, यौवन, चतुरता, लावण्य, और पांडित्य की मूर्ति की कल्पना कर उसे पाने के लिये व्याकुल हो उठे. साथ ही अकारण आजीवन कारावास काट रहे युवकों के प्रति उनका ह्रदय करुणा से भर उठा. मुझे उन युवकों को कारावास से मुक्त करना ही चाहिये. राजकुमारी लीलावती की प्रतिज्ञा पूर्ण करने पर दोनों उद्देश्य पुरे हो सकते है. उन्होंने निश्चित कर लिया कि उस रूपगर्विता के गर्व को खंडित करूंगा.
   सूर्योदय की कंचनवर्णी कोमल किरणे शरीर पर पड़ते ही उन्हें समय का बोध हुआ और वे वास्तविकता के धरातल पर लौट आये. सम्राट राज प्रसाद में पहुंचे.
      सम्राट विक्रमादित्य बहुमूल्य कलात्मक राजसिहासन पर राजदरबार में विराजमान है. प्रजा के दुःख-दर्द
सुन रहे है. न्याय प्रदान कर रहे है. राजकार्य से निवृत्त होकर सम्राट विक्रमादित्य ने महामंत्री से कहा - "महामंत्री!"
      महामंत्री ने विनम्र स्वर में कहा - आज्ञा दीजिये महाराज!
     सम्राट ने कहा - "महामंत्री, मैं अज्ञात यात्रा पर जा रहा हूं. यह निश्चित नहीं कि कितने दिनों में लौटूंगा. मेरी अनुपस्थिति में राज्य का कार्यभार तुम्हें सम्हालना है. राज्य की परम्परा से तुम परिचित हो. मेरी अनुपस्थिति में राज्य की परम्परा और प्रतिष्ठा पर आंच न आने पाये. प्रजा सुख से रहे. उसे कष्ट न हो.
    महामंत्री ने कहा - "मैं प्राणप्रण से आपके आदेशों का पालन करूंगा, लेकिन........
      सम्राट ने पूछा - लेकिन क्या ?
      महामंत्री ने कहा - "अगर उचित समझे तो मुझे बताने की कृपा करें कि आप कहां किस दिशा में जा रहे हैं और वापस कब तक लौटेंगे"
      सम्राट बोले - "अभी नहीं, समय आने पर सब पता चल जायेगा."
       सम्राट विक्रमादित्य ने एक सम्पन्न व्यापारी का वेश धारण किया और पैदल ही यात्रा पर चल दिये. मार्ग में प्राकृतिक सौन्दर्य अद्भुत था. क़ल क़ल करती सरिताये मधुर संगीत का सर्जन कर रही थी. सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय आकाश में बन-बन कर मिटने वाले चित्र किसी अदृश्य चित्रकार की अनुपम कला का बोध करा रहे थे. विविध रंगों का सम्मीश्रण चित्रों में मुखर हो रहा था.उन रंगों के कलात्मक मिश्रण की कला को मनुष्य अभी तक जान नहीं पाया. प्रातः सूर्योदय के समय नीड़ो को छोड़ते और सांझ में लौटते हुये पक्षियों की चहचहाहट कितनी मधुर और मादक होती है उसे संवेदन शील व्यक्ति ही समझ सकता है. ये गीत मिलने और बिछड़ने के सुख और दुःख के मधुर गीत होते है. इनकी अनुभूति ह्रदय को अभिभूत कर देती है. वास्तव में प्रकृति ही जीवन दायिनी है. किन्तु प्राकृतिक सौन्दर्य देखने के लिये दृष्टि चाहिये. संवेदनशील ह्रदय चाहिये.
      सम्राट विक्रमादित्यहरे भरे वनों, कल-कल बहती सरिताओं ऊँचे तीरछे पहाडो आदी का मनभावन सौन्दर्य देखते हुये यात्रा कर रहे थे. विंध्याचल, सातपुड़ा की पर्वत श्रृंखलाओं को पार कर दक्षिण भारत के प्रवेश द्वार के एक सुंदर नगर के निकट पहुंचे. नगर के प्रवेश द्वार के बाहर एक उद्यान में कुछ समय के लिये रुके. तालाब के शीतल जल में स्नान कर वस्र परिवर्तन किये और नगर में प्रवेश किया.

क्रमशः