भाग 19
तभी बातें करते हुए नाज़ की नजर पुरवा के हाथ में पहने कंगन पड़ी। ये इतने सुंदर कंगन अभी कल तो इसके हाथ में नही थे। तो फिर आज इसे कहां से मिल गए। बाजार तो गई नही फिर कहां से आए ये कंगन…?
उसने कंगनों पर अपने हाथ फेरते हुए बोली,
"अरे..! पुरवा …! ये कंगन तो बेहद खूबसूरत है। कहां से बनवाया..?"
पुरवा बेपरवाही से बोली,
"वो… बताया ना एक रिश्ते की बुआ और फूफा आए हैं। उन्होंने ही आज मुझे ये कंगन पहनाए।"
नाज़ पुरवा से ज्यादा समझदार थी। उसे खटका हो गया कि कोई भी बुआ ऐसे ही इतने कीमती कंगन किसी को नही दे देंगी। जरूर कुछ खास वजह होगी।
उसने पूछा,
" क्या तुझे टीका भी किया… उन्होंने..?"
पुरवा बोली,
"हां..! टीका भी किया और एक चुनरी भी ओढ़ाई थी। मैं तो तुरंत ही उतार कर भाग आई।"
नाज़ उसकी ठुड्ढी पकड़ कर हिलाते हुए हंस कर बोली,
"फिर तो मेरी प्यारी बन्नो…! तू भी विदा होने के लिए तैयार हो जा। इन सब का मतलब है तुम्हारी भी शादी तय हो गई है। वो भी इन बुआ के घर में ही।”
पुरवा पहले की ही तरह बेपरवाही से बोली,
"तो हो जाए ना..। एक दिन तो होना ही है। अब इनके घर में हो ये किसी और के घर में। मेरे लिए तो सभी अनजान ही है। अब जब तू ही चली जाएगी तो मेरे लिए भी यहां क्या रक्खा हुआ है।"
फिर अपने हाथो में पड़े कंगन को देखते हुए शरारती मुस्कान के साथ बोली,
"पर नाज एक बात तो है। बुढ़िया ने कंगन बहुत जोरदार दिया है।"
पुरवा की इस बात पर दोनो ही खिलखिला पड़ी।
इधर पुरवा के नाज़ के घर आने के बाद उर्मिला और अशोक, जवाहर और गुलाब ने पंडित जी से छेंका का मुहूर्त पूछा। पंडित जी ने दो दिन बाद का मुहूर्त बताया जो बेहद शुभ था।
अब वापस घर जा कर तैयारी करने का वक्त नहीं था। इस लिए सोच विचार कर ये फैसला लिया गया कि आखिर यहां भी तो महेश का ननिहाल है। ये रस्म यहां पर भी हो सकता है।
फिर जब शादी होगी उसी समय तिलक हो जायेगा।
अशोक की माली हालत भी ज्यादा मजबूत नही थी। जो कुछ खेती से मिलता था उसी से कम चलता था।
गुलाब ने शुभ लगन में हल्दी,सिक्का और अक्षत ले कर रस्म पूरी करवा दी। फिर वापस लौटने की तैयारी करने लगीं।
अब पुरवा के गिने दिन बचे थे इस घर में। अब वो किसी और की अमानत थी। गुलाब बुआ उसके माथे पर अपने खानदान का मोहर लगा कर गई थीं।
साथ ही अशोक को हिदायत भी देती गई थीं कि परेशान होने की जरूरत नहीं है। जो कुछ आराम से कर पाना वही करना। बेटा …! अशोक ….! तुम पराए नही हो। अगर कुछ कम ज्यादा होगा तो मैं संभाल लूंगी।
इतना आश्वसन बहुत था अशोक और उर्मिला के लिए। दिन रात उन्हें बस पुरवा की ही चिंता रहती थी। कैसे इसके दहेज का जुगाड़ होगा …? पर अशोक की सजगता से सब कुछ समय पर हो जा रहा था।
गुलाब बुआ के जरिए उन दोनों की नइया पार हो जा रही थी। ये उनका बड़प्पन ही था। नही तो इतने बड़े घर में बेटी ब्याहने को टोकरी भर रुपया लगता। और उनके पास तो अपने ही जरूरत भर से थोड़ा ही ज्यादा कमाई थी। तो फिर इसमें दहेज कहा से दे सकते थे..?
गुलाब बुआ का इस रिश्ते के लिए राजी होना और कोई भी मांग नही करना उनका बहुत बड़ा एहसान था।
सब कुछ तय हो जाने पर अशोक और उर्मिला ने चैन की सांस ली। अब भले ही गुलाब बुआ ने कोई मांग नही रक्खी थी। पर पुरवा उनकी अकेली बेटी थी। उनकी कोशिश थी कि जितना ज्यादा वो उसे बिदाई के वक्त दे सकें, कोशिश करके देंगे।
नाज़ रुखसत हो कर आरिफ के घर आ गई।
बड़े ही जोशो खरोश से उसका इस्तकबाल हुआ ससुराल में।
कलमा फूले नहीं समा रही थी, अपने लाडले पेट पोछने बेटे की दुलहन देख कर। विशेष रूप से उन्होंने शमशाद से कह कर एक जड़ाऊ हार बनवाया था सुनार से। वही नाज़ को मुंह दिखाई में में दिया।
सलमा तो खैर चकवाल से ही बनवा कर लाई थी सोने की चेन। वही नाज़ के गले में पहना दिया।
नाज़ उपहार और गहनों से लद गई।
ये घर उसने बचपन से ले कर निकाह तय होने तक कई बार देखा था। इसमें खेली भागी थी।
पर आज वही घर, वही लोग बदले बदले से लग रहे थे। इस घर के हर शख्स से एक नया रिश्ता कायम हो गया था। जिस वजह से उसका भी व्यवहार बदल गया था। आरिफ की अम्मी आज उसके सास के रूप में उसके सामने थी। इस बदले रिश्ते के कारण नाज़ को अब उन्हें ज्यादा इज्जत देनी थी। नजरें झुकाए वो उनके बताए अनुसार सारा कुछ किए जा रही थी।
सब कुछ अच्छा था नाज़ के लिए इस घर में। बस मायके की आजादी नहीं थी और पुरवा नही थी। पुरवा की उसे बहुत याद आ रही थी।
अब निकाह के बाद शमशाद की हवेली में चार दिन बाद होने वाले वलीमे की तैयारी होने लगी।
आखिर शमशाद हुसैन के लाडले भाई का वलीमा का मौका था तो जलसा भी शानदार ही होना था।
पूरे अहाते के पौधों को काट छांट कर सुंदर सुंदर आकार दे दिया गया। उस पर रंगीन झालरें लगवा दी गईं।
हाते के बीचों बीच बने फौवारें में रंगीन पानी भरवा दिया गया था। जो एक तरफ से लाल पानी फेंकता तो दूसरी तरफ से पीला, हरा और नीला। इस तरह चारों रंग जब मिलते तो एक अजीब सा ही मिला जुला उछलता हुआ नजारा होता।
वलीमा था तो नईमा और बब्बन को भी परिवार सहित न्योता दिया गया था।
ये निमंत्रण पुरवा के घर उर्मिला और अशोक को भी दिया गया था।
जब न्योता अशोक और उर्मिला को मिला तो गुलाब बुआ और जवाहर फूफा यहीं थे। अब भले ही वो लोग अपने घर थे पर उर्मिला उनके स्वागत में कुछ न कुछ बना कर खिलाती ही रहती थी।
उर्मिला के लिए असमंजस की स्थिति थी। अपने बचपन की सहेली की बेटी के वलीमे में जाए या फिर जो अभी अभी उसकी बेटी की शादी तय हुई है उसके सास ससुर की आवभगत करे…?
अलबत्ता पुरवा जरूर खीसिया रही थी उन दोनो को देख कर। उस ने उर्मिला को चेता दिया था। ये कह कर,
"अम्मा..! सुन लो। अगर हम नाज़ के वलीमा में नही जा पाए तो फिर ठीक नहीं होगा। कैसे भी कर के इन्हे बिदा करो।"
उर्मिला बोली,
"तू कैसी बातें करती है लाडो…! अब क्या वो मेरे घर आए हैं या मेरे घर में टिके हुए हैं जो मैं उन्हें विदा कर दूं। वो अपने नैहर आई है। इसमें मैं भला क्या कर सकती हूं..?"
पुरवा बोली,
"फिर तुम और बाऊ जी मत जाना। हम तो जायेंगे।"
क्या पुरवा जा पाई नाज़ के वलीमा में..? क्या उर्मिला ने उसे जाने दिया…? आखिर उर्मिला ने कैसे स्थिति को संभाला…? आखिर उसका और अशोक का भी तो जाना जरुरी था।
जानने के लिए पढ़ें अगला भाग।