भाग 18
बड़े ही उत्साह और लगन से जवाहर और गुलाब के स्वागत के लिए तैयारी हुई।
पूरा घर लीप पोत कर चमका दिया गया।
खटिया पर साफ धुली हुई चादर बिछा कर बैठने की व्यवस्था कर दी गई।
फिर अंत में खूब रच रच कर पकवान बनाया गया। पुरवा को ज्यादा अनुभव नहीं था खाना पकाने का। वो इधर उधर कभी कभी कुछ पका लेती थी। आज पूरी जिम्मेदारी उसी के सर पर उर्मिला ने थोप दी थी। गुलाब बुआ के सामने पुरवा के सारे गुण का प्रदर्शन करना था। कुछ भी ऐसा उनके सामने ना जाए जो पुरवा ने नही पकाया हो।
अब सब कुछ बन कर तैयार था। तब उर्मिला को याद आया कि उससे इतनी बड़ी भूल कैसे हो गई..! शुभ काम की शुरुआत होने वाली है और मीठे में कुछ बनवाया ही नही। झट से बटलोई में दूध चढ़ा दिया गरम होने को और पुरवा को सेंवई दिया भुनने को। फिर तो जल्दी से वो भी बन कर तैयार हो गई।
अब सिर्फ पूरियां छाननी बाकी थी। उसे उर्मिला ने रोक दिया। बोली पुरवा से,
"देख … लाडो…! जब बुआ फूफा, खाने बैठे तब गरम गरम छान छान के देना। एक दम खस्ता खस्ता।"
पुरवा को इतनी आव भगत बुआ फूफा की अच्छी नहीं लग रही थी। बेचारी को सुबह से ही चूल्हे में झोंक दिया गया था। वैसे तो वो कभी नही करती। पर नाज़ के निकाह तक वो घूम फिर कर उसके घर पर ही रहना चाहती थी। अब अम्मा बाऊज की बात को खुशी खुशी मानेगी… घर के काम में सहयोग करेगी तभी उसे जाने को मिलेगा। उसे अच्छे से पता था। अब नाज़ के लिए गरमी सहना क्या बड़ी बात थी..? अगर काम करने के बदले नाज़ का साथ मिलता है तो सौदा मंहगा नही है।
अगर कहीं अम्मा को ढेर काम करना पड़ा और वो खिसिया गई तब तो फिर जाना मुश्किल हो जाता।
यही वजह थी कि गर्मी के बावजूद पुरवा चौका में घुसी हुई थी। मार्च का महीना भले ही था। पर लकड़ी के आंच से वो पसीने पसीने हो रही थी। गोरे गोरे गाल आग की गर्मी से दहक कर लाल हो रहे थे।
खाना तैयार होते ही उर्मिला ने पति अशोक को बुआ फूफा को बुलाने भेज दिया।
अशोक गया और थोड़ी देर में ही जवाहर फूफा और गुलाब बुआ के साथ लौटा।
उर्मिला थाली सजा कर अशोक और जवाहर फूफा को बरामदे में दे आई। फिर बुआ को वही अपने पास बिठा कर खाना परोसने लगी।
गुलाब अपनी इस आवभगत से बेहद प्रसन्न थी। खाना बहुत ही स्वाद वाला बना था। नमक, मिर्ची, मसाला सब कुछ बिलकुल बराबर से पड़ा था।
खाना खत्म होने पर गुलाब ने धीरे से उर्मिला के कान में कुछ कहा। फिर उर्मिला बोली,
"पुरवा..बबुनी….. ! जरा पान दान ले कर आओ। बुआ को सौंफ चाहिए "
अम्मा की आवाज पर पुरवा पान दान ले कर आई। गुलाब बुआ और अम्मा के बीच में रख दिया।
गुलाब बड़े ही गौर से आती हुई पुरवा को देख रही थी। चाल ढाल, लंबाई सब कुछ ही परख लेना था।
पुरवा डब्बा रख कर वापस जाने को मुड़ी तो बुआ बोली,
"ठहर जा बेटी… ! बाहर इनको भी दे आ। सुरती की तलब लगती है इनको खाने के बाद।"
गुलाब ने गौर से देखा। पुरवा का सौंदर्य साधारण नही कहा जा सकता था। आग की गरमी ने धवल रंग पर सुनहरी आभा बिखेर दी थी। बड़ी बड़ी आंखे धुएं से लाल हो कर और भी सुंदर लग रही थीं। सामान्य से थोड़ा ऊंचा कद उसकी छवि को और भी लुभावना बना रहा था। बस .. ऐसी ही पतोह तो चाहिए थी गुलाब को जो नख से शिख तक सुंदर हो। कुछ तो ऐसा नहीं था पुरवा में जो नापसंद किया जाए। काम काजी होने का सबूत भी वो देख ही चुकी थी।
गुलाब बुआ के बाहर जाने के लिए कहने पर पुरवा को थोड़ा अटपटा लगा मेहमान के सामने जाना। वो अम्मा की ओर देखने लगी।
गुलाब बुआ के इशारे पर उर्मिला बोली,
"पुरवा … जा.. ! दे आ बेटी..! संकोच मत कर। बाहर सिर्फ तेरे बाऊ जी और फूफा जी ही है।
पुरवा को बाहर भेजने का मकसद उसे जवाहर जी को भी दिखाना था।
पर अम्मा के कहने पर संकोच करते करते पुरवा बाहर चली गई। बाऊजी को पान दान दे आई।
जवाहर जी ने भी उसे एक नजर देख लिया। और आश्वस्त हो गए। पुरवा की छवि बिलकुल वैसी ही है जैसी बहू की वो इच्छा रखते थे।
अशोक के घर से वापस जा कर जवाहर और गुलाब ने विचार विमर्श किया। फिर आपस में सहमत हो गए कि पुरवा को बहू बनाना है। और पुरवा को अपने घर की बहू बनाने का फैसला कर लिया।
अगले ही दिन गुलाब ने सुनार को बुला कर पुरवा के हाथ का नाप लिवाया और कंगन बनाने को बोल दिया।
सुनार के पास संयोग से उसी नाप के जड़ाऊ कंगन तैयार थे। ज्यादा कीमत की वजह से बिक नही रहे थे।
गुलाब ने उसे खरीद लिया और अशोक के घर गई।
पुरवा के सर पर चुनरी ओढ़ा कर टीका लगाया और हाथों में जड़ाऊ कंगन पहना कर उसे अपनी बहु स्वीकार कर लिया।
पुरवा इन सब से हैरान थी कि ये सब अचानक कैसे हो गया।
पर उसके पास ज्यादा समय नहीं था। इन सब के बारे में सोचने को।
गुलाब बुआ के जाते ही चुनरी उतार कर फेंका और नाज़ के घर चल दी। आज ही नाज़ की मेहदी थी। उसे समय कहां था..?
नाज़ के घर पहुंचते ही नाज़ ने मुंह फुला कर उलाहना दिया।
"कर ले… तू भी खूब नखरे…! आज आधा से ज्यादा दिन बिता कर आई है। मेरी कोई परवाह है तुझे…? मैं बस दो और दिन तेरे साथ रहने वाली हूं। फिर तू रहना पूरे दिन अपने घर। मैं नहीं रहूंगी तुझे बुलाने को।"
इतना कहते कहते नाज़ की आंखे डबडबा आईं।
पुरवा भी भावुक हो गई।
वो सफाई देते हुए बोली,
"तू तो अम्मा को जानती ही है। उनकी काम में मदद कर दो तो खुश। ना करो तो नाराज। आज एक रिश्तेदार बुआ फूफा आए थे। उन्हीं का खाना पीना था। अब अम्मा को अकेले करना पड़ता तो क्या ही मुझे आने देती। मेरी जान …! तेरे लिए ही…. तेरे पास आने के लिए ही मैं गरमी में सुबह से चौके में घुसी हूं। देख धुआं लग के आंखे अब तक लाल हैं।"
क्या नाज़ को पुरवा की बात पर यकीन आया…? क्या उसने देर करने के लिए पुरवा को माफ कर दिया…? क्या नाज को पुरवा के इस रिश्ते के बारे में पता चला…? जानने के लिए पढ़े… "कटास राज : द साइलेंट विटनेस का अगला भाग।