सज्जनता,
व्यक्तिव का दर्पण है।
सज्जनता मनुष्य का स्वभाविक गुण है और अच्छा बनना जन्मसिद्ध अधिकार। अच्छाई को फैलाना हमारी शक्ति है। हम सब अच्छा दिखना चाहते हैं और अच्छा कहलवाना चाहते है। हर व्यक्ति ऐसा चाहता है पर हकीकत में ऐसे कम ही लोग होते हैं जो सबके पसंदीदा व्यक्ति बन पाते है और उनमें से विरले ही अपने को सुधार के रास्ते पर लाकर अच्छा बनने का प्रयास करते हैं।
क्या आपने कभी जानने का प्रयास किया है कि हमारे समाज के उन चंद प्रतिष्ठित व्यक्तियों में ऐसा क्या था अथवा है जिसके कारण वे समाज के पसंदीदा व्यक्ति बन गए। और कहां वे जो समाज के एक छोटे वर्ग को भी प्रभावित न कर सके।
सर्वप्रथम हमें यह विचार करना चाहिए की हम अच्छा व्यक्ति किसको कहेंगे व अच्छा व्यक्ति से हमारी क्या अपेक्षाएं होंगी? उत्तर अत्यंत ही साधारण है। सर्वप्रथम तो हम यह मानते हैं कि सज्जन व्यक्ति ही अच्छा व्यक्ति होता है। सज्जन व्यक्ति दूसरों को दुख नहीं देता और ना ही ऐसा कोई कारण उत्पन्न करता है जिससे किसी व्यक्ति को दुख हो। दूसरी ओर सज्जन व्यक्ति हमेशा समाज के लिए मददगार साबित होता है। सज्जन व्यक्ति जिन लोगों के भी संपर्क में रहता है वह हमेशा प्रयास करता है कि वह उनकी मदद कर सके। यदि हम यह अपेक्षा रखते हैं कि दूसरे हमारे साथ अच्छा व्यवहार करें तो यह परम आवश्यक है कि हम भी दूसरों की मदद करें। दूसरों के साथ सदा वैसा ही व्यवहार करें जैसा व्यवहार हमें दूसरों से अपेक्षित है। सच ही कहा है कि हम जैसा बोएंगे वेसा ही काटेंगे। स्वयम् को जांचने के लिए अपनी अंतरात्मा से पूछिए कि क्या मैं एक अच्छा आदमी हूं? इसके जवाब में आने वाला उत्तर हमें एहसास करा देगा कि हम कितने पानी में हैं।
जब हम किसी नौकरी में आते हैं या कोई प्रशासनिक पद प्राप्त करते हैं। तब हम चाहते हैं कि हम एक अच्छे अधिकारी के रूप में जाने जाएं। परंतु हमारे अधीनस्थ कर्मचारी हमको तब ही अच्छा कहेंगे जब हम उन व्यक्तियों के साथ अच्छा व्यवहार करेंगे और उनकी समस्याओं का उचित हल प्रस्तुत करेंगे।
किसी ने सत्य ही कहा है कि व्यक्ति को उसके अच्छे कार्यों के कारण ही चैन की नींद प्राप्त होती है। हमें इस बात का संकल्प लेना चाहिए कि हम प्रत्येक दिन कम से कम एक व्यक्ति के साथ अवश्य ही कोई अच्छा कार्य करेंगे। ऐसा करने से हमें आत्म संतुष्टि प्राप्त होगी और हम चैन की नींद सो सकेंगे।
आप स्वयं किसी अच्छे कार्य को करके उसका अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। बहुत से व्यक्ति अनिद्रा (इंसोमेनिया) की बीमारी से ग्रसित होते हैं क्योंकि वह कोई भी अच्छा कार्य अपने जीवन में नहीं करते हैं। इसी कारण ऐसे व्यक्ति जीवन का आनंद और आत्म संतुष्टि प्राप्त नहीं कर पाते।
जब हम इस दुनिया को छोड़ कर जाते हैं तो सोचिए कि हम अपने साथ क्या ले जाते हैं ? न रुपया, न पैसा, न जमीन, न जायदाद, न सगे संबंधी और न ही कोई अन्य भौतिक वस्तु। यदि कोई साथ जाता है तो वह है हमारी सज्जनता, हमारी अच्छाइयां और केवल अच्छाइयां। इतिहास गवाह है कि एलेग्जेंडर व सोलेमन जैसे संपन्न व शक्तिमान राजाओं को भी इस दुनिया से खाली हाथ ही जाना पड़ा था। इसके विपरीत स्वामी दयानंद सरस्वती व महात्मा गांधी जैसे महापुरुष जब इस दुनिया से विदा हुए तो उनके हाथ खाली ना थे। वे समाज की दुआओं व आशीर्वादों का पुलिंदा अपने साथ लेकर इस दुनिया से बड़े गर्व के साथ विदा हुए।
ईश्वर को हम सर्वोच्च की श्रेणी में इसलिए रखते हैं क्योंकि वह सभी के साथ एक समान व्यवहार करता है। यदि हम भी ईश्वर के आचरण का अनुसरण कर ले और अपने इष्ट मित्रों तथा साथियों के साथ अच्छा व्यवहार करें तो हम भी आंशिक रूप में ईश्वरीय पद को प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिए सबसे पहला नियम है कि हम अपने आप से प्यार करें अपने आप को अच्छाइयों से जोड़ें अच्छे लोगों का साथ करें। सज्जन व्यक्ति घमंड व अभिमान से सदैव परहेज रखता है। मतलब, ये ऐसे लोग हैं जो आपको वैसे ही दिखते हैं जैसे वे सचमुच हैं। दिखावे से भरी इस दुनिया में ऐसे सरल लोग अपने आप ही अच्छे लगने लगते हैं। इसलिए अगर आपको भी पसंदीदा व्यक्तियों की सूची में शामिल होना है तो सरलता को अपनाएं।
छोटी-छोटी चीजों से लेकर बड़े से बड़े मामलों में सच बोलने की आदत डालें। सच की ताकत से बड़ी शायद ही कोई और ताकत हो, और अगर ये ताकत आपके पास है तो अपने आप ही लोग आपको चाहने लगते हैं। झूठ बोलने की आदत रखने वाले व घमंडी व्यक्ति को कभी वह सम्मान और आदर नहीं मिल पाता जो सच्चे व्यक्ति को मिल जाता है। यहाँ एक बात अवश्य कहना चाहूँगा कि हमेशा सच बोलना एक बेहद कठिन कार्य है। हम शत प्रतिशत सत्य नहीं बोल सकते। ऐसा कर हम इस समाज में नहीं रह सकते। परंतु हमारा इतना प्रयास अवश्य होना चाहिए कि हम अधिक से अधिक सच बोलें और कभी ऐसा झूठ तो कतई न बोलें जिससे किसी को नुक्सान हो।
कबीर दास जी ने भी कहा है कि :-
संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।
अर्थात सज्जन मनुष्य को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष क्यों ना मिल जाए फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता। ठीक वैसे ही जैसे, चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।
सैकड़ों वर्षो से हमारा संत समाज व हमारे गुरुजन हमें सदाचार का पाठ पढ़ाते आ रहे हैं परंतु क्या हम आज भी अपने को पूर्ण सदाचारी मान सकते हैं ? और यदि हमारे अंदर सदाचरण की अंश मात्र भी कमी है तो उसका मूल कारण है कि हमने अपने पूर्वजों की शिक्षा को सच्चे मन से आत्मसात नहीं किया। यदि हम यह दृढ़ संकल्प कर लें कि हम सत मार्ग पर चलेंगे व समाज में अपने को एक सदाचारी व सज्जन मनुष्य की छवि से ही प्रतिष्ठित करेंगे तो ऐसा करने से हमें कोई रोक नहीं सकता। परंतु यदि हम आधे अधूरे मन से सज्जनता को आत्मसात करने का प्रयास करते हैं तो हम इस कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं कर सकते। उत्पात तो कोई भी मचा सकता है परंतु आत्मिक प्रगति और संसार की सेवा करने का श्रेय प्राप्त कर सकना सज्जनता, अपनाए बिना कतई संभव नहीं है।
अंत में परम पिता परमेश्वर से यही प्रार्थना है कि वह हमको सत्यवादी, आचरणशील, पराक्रमी, ओजस्वी और सदाचारी जैसे गुणों से युक्त कर समाज में सज्जनता का प्रतिबिंब बन सकें।
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