मस्तिष्क,
आचरण का निर्माता है।
मनुष्य का मस्तिष्क दुनिया के आधुनिकतम सुपर कंप्यूटर से भी लाखों गुना तीव्र गति से कार्य करता है। मस्तिष्क में दिन रात विचार उत्पन्न होते रहते हैं। कहते हैं हमारे मस्तिष्क में लगभग 30 से 35 लाख विचार प्रतिदिन उत्पन्न होते हैं और मिटते हैं। यह एक निरंतर प्रक्रिया है जो कि हमारे चाहते या न चाहते हुए भी कार्य करती रहती है। हमारा मस्तिष्क इन विचारों को वायुमंडल में विद्युत चुंबकीय तरंगों के रुप में लगातार उत्सर्जित करता रहता है। वायुमंडल में उत्सर्जित यह विचार प्रकाश की गति से संपूर्ण ब्रह्मांड में विचरण करना प्रारंभ कर देते हैं। इन विद्युत चुंबकीय तरंगों में आकर्षण का तीव्र गुण होता है। ये विशाल ब्रह्मांड से समान प्रकृति की चुंबकीय तरंगों को अपनी ओर आकर्षित कर हमारे मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं। यही परिवर्तित विद्युत चुंबकीय तरंगें, विचारों के रूप में हमारे मस्तिष्क में पुनः उत्पन्न होती हैं।
मस्तिष्क में उत्पन्न विचार सकारात्मक व नकारात्मक दोनों प्रकृति के हो सकते हैं। विचार चाहे सकारात्मक हो या नकारात्मक दोनों ही ब्रह्मांड में विद्युत चुंबकीय तरंगों के रुप में विचरण करना प्रारंभ कर देते हैं। सकारात्मक विचार अपने जैसे दूसरे सकारात्मक विचारों को आकर्षित कर हमारी मस्तिष्क को पहुंचा देते हैं। नकारात्मक विचार दूसरे नकारात्मक विचारों को आकर्षित कर हमारे मस्तिष्क में नकारात्मक विचारों का एक विशाल भंडार एकत्रित कर देते हैं। नकारात्मक विचार हमारी सोच को कुंठित, आचरण को दूषित, व्यवहार को अशिष्ट, और संबंधों में कटुता पैदा कर देते हैं। कुल मिलाकर हम एक विशाल दूषित छवि के साथ समाज में स्थापित हो जाते हैं।
इसके ठीक विपरीत सकारात्मक विचार ब्रह्मांड से अन्य सकारात्मक विचारों को आकर्षित कर हमारे मस्तिष्क को प्रेषित करते हैं। ऐसे सकारात्मक विचारों से हम आचरणवान, प्रगतिशील, मृदुभाषी, धैर्यवान, परोपकारी, सनातनी और विचारशील शख्सियत के रूप में समाज में उभरकर खड़े हो जाते हैं।
यह विद्युत चुंबकीय तरंगों के आकर्षण का ही प्रतिफल है कि मनुष्य अपने जैसे विचारों वाले दूसरे व्यक्तियों को अपनी ओर तीव्र गति से आकर्षित करने लगता है। दैनिक व्यवहार में भी देखा गया है कि सदाचारी व्यक्ति अपने जैसे सदाचरित व्यक्तियों को आकर्षित करता है और दुर विचारी व्यक्ति अपने जैसे ही नकारात्मक विचारों के व्यक्तियों को प्रबलता से आकर्षित कर लेता है। अतः यथासंभव सकारात्मक विचारों को ही मस्तिष्क में उत्पन्न होने देना चाहिए। जिससे सकारात्मक प्रकृति की ही विद्युत चुंबकीय तरंगें हमारे मस्तिष्क से उत्सर्जित हो और हम सकारात्मक वायुमंडल के केंद्र पर स्थापित हो।
मनुष्य के विचार ही मनुष्य को सुखी और दुखी बनाते हैं। जिस मनुष्य के विचार उसके नियंत्रण में रहते हैं। वह व्यक्ति सुखी है। और जिस के विचार उसके नियंत्रण में नहीं रहते वह सदा दुखी रहता है। दुखी मनुष्य अपने दुख का कारण अपने आप को न मानकर किसी बाहरी परिस्थिति को मान लेता है। ऐसे मनुष्य अपनी बुद्धि के पराधीन होकर अपने मित्रों को, शत्रुओं को और अपने सगे-संबंधियों को लगातार कोसना प्रारंभ कर देते हैं।
नकारात्मक सोच जहाँ व्यक्ति को अंदर ही अंदर घोट देती है वही सकारात्मक सोच व्यक्ति को ऊर्जा प्रदान करती है। सकारात्मक सोचना हमें हमेशा सही परिणाम देता है। नकारात्मक सोच हमें तनाव की ओर ले जाती है। हर स्थिति में सकारात्मक सोच रखने की कोशिश करे।
आत्म निरीक्षण कर मनुष्य अपनी सोच को परिवर्तित कर सकता है। जिस मनुष्य के विचार सकारात्मक होंते हैं वह सभी प्रकार की परिस्थितियों को अपने अनुकूल पाता है। इसके विपरीत जिस व्यक्ति के विचार नकारात्मक होंते हैं वह अपने चारों ओर शत्रु ही शत्रु देखता है। विचारों के दूषित होने से हमारी चारों ओर का वातावरण दूषित हो जाता है तथा हमारी सभी सफलताएं विफलताओं में परिवर्तित होने लग जाती हैं।
विचारों को अनुकूल बनाना ही मनुष्य का वास्तविक पुरुषार्थ है। विचार हमारे अभ्यास से अनुकूल और प्रतिकूल होते हैं। जो मनुष्य जिस प्रकार के विचारों का अभ्यासी हो जाता है उसके मन में उसी प्रकार के विचार बार-बार आते हैं। सांसारिक विषयों का चिंतन करने वाले व्यक्ति के मन में सांसारिक विचार आते हैं। उसे उसी प्रकार के विचारों में रस मिलता है। यदि कहीं ज्ञान चर्चा होती है तो वह उसे रसहीन समझता है। जबकि ज्ञान चर्चा मनुष्य की इच्छाओं के ऊपर नियंत्रण करता है। अतः इस प्रकार की ज्ञान चर्चा में आनंद की अनुभूति करना उसके लिए एक अत्यंत ही अस्वाभाविक सी बात हो जाती है।
विचारों पर नियंत्रण एक अत्यंत दुष्कर प्रक्रिया है। विचारों पर नियंत्रण करने की क्षमता धीरे धीरे आती है। नकारात्मक विचार हमारे मस्तिष्क को सकारात्मक विचारों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। यही कारण है कि हम नकारात्मकता की ओर तेजी से आकर्षित हो जाते हैं। हमारा निर्मल मन इन विचारों को जल्द ही ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार की स्थिति मनुष्य के मानसिक निर्बलता का परिणाम होती है। यह मानसिक निर्बलता बार-बार नकारात्मक विचारों को मन में आने देने से उत्पन्न होती है। ऐसे विचारों को रोकने की निरंतर चेष्टा ही मनुष्य की इच्छा शक्ति को इतना बलवान कर देती है कि फिर कोई भी बुरा विचार मस्तिष्क में अधिक देर तक नहीं ठहर पाता।
जिस समय हम कोई समाजोपयोगी कार्य नहीं करते होते हैं। ऐसे समय पर हमारे मस्तिष्क में बुरे व नकारात्मक विचारों के उत्पन्न होने की प्रबलता अत्यधिक होती है। इसलिए सदैव किसी न किसी भलाई के कार्य में अपने को लगाए रखना नकारात्मक विचारों पर नियंत्रण के लिए परम आवश्यक है।
मस्तिष्क में दूसरों के विनाश के विचारों को उत्पन्न करने की प्रवृत्ति आगे चलकर आत्म विनाश के विचारों में परिणित हो जाती है। परघात और आत्मघात की भावनाएं एक दूसरे की पूरक होती है। इस प्रकार दूसरों का विनाश करने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति अपना ही विनाश कर बैठता है। ऐसे विचारों को मस्तिष्क में उत्पन्न होने से रोकना प्रबल इच्छाशक्ति का घोतक है।
अहंकार भी मानव मस्तिष्क का एक बड़ा शत्रु है। जिस व्यक्ति का अहंकार जितना अधिक होता है। उसके दुख और शत्रु भी उतने अधिक होते हैं। अहंकार की वृद्धि एक प्रकार का पागलपन है। अहंकारी मनुष्य दुराग्रही होता है। वह जिस बात को सच मान बैठता है। उसके प्रतिकूल किसी की कुछ भी सुनने को तैयार नहीं रहता और जो उसका विरोध करता है वह उसका घोर शत्रु हो जाता है।
केवल विचार मात्र कर लेने से इच्छा शक्ति दृढ़ नहीं होती। इच्छा शक्ति अभ्यास से दृढ़ होती है। ऐसे कितने ही विद्वान हो सकते हैं जो ज्ञान उपदेश तो दूसरों को देते हैं परंतु अपने मन को नियंत्रण में नहीं कर पाते। वे स्वयं उन वासनाओं से मुक्त नहीं होते जिनसे वह दूसरों को मुक्त करने की चेष्टा करते रहते हैं।
हम परम पिता परमेश्वर से यह प्रार्थना करते हैं कि वह मनुष्य में सकारात्मक सोच उत्पन्न करने की शक्ति प्रदान करें।
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