My husband is your husband - 8 in Hindi Moral Stories by Jitendra Shivhare books and stories PDF | मेरा पति तेरा पति - 8

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मेरा पति तेरा पति - 8

8

"अरे!आप अपने पति का नाम बताइये। इनके पति का नहीं।" सार्वजिनक राशन वितरण अधिकारी बोले। वे स्वाति से उसके पति का नाम पुछ रहे थे।

"मैंने अपने अपने ही पति का नाम बताया है आपको।" स्वाति बोली।

"मगर आपने कहा की आपके पति का नाम कमलेश वर्मा है। यही नाम इन महिला ने भी बताया है।" राशन वितरण अधिकारी बोले। उन्होंने पास ही खड़ी दीपिका को इंगित करते हुये कहा।

"बोला होगा। तो इसमें क्या है?" स्वाति बोली।

"मगर आप दोनों के पति का नाम कमलेश वर्मा कैसे हो सकता है?" राशन वितरण अधिकारी थोड़ा तीव्र होकर बोले।

"क्यों नहीं हो सकता। क्या कमलेश वर्मा नाम का काॅपीराइट केवल इनके पति के पास है?" दीपिका बोली। वह भी बहस में कुद पड़ी। वह स्वाति को हेय दृष्टिकोण से देख रही थी। स्वाति भी दिपीका को देखकर नाक-मुंह सिकोड़ने लगी थी। इन दोनों के पीछे महिलाओं की लम्बी लाइन लग चूकी थी। मगर दिपीका और स्वाति का नाम और पता आदि लिखने में पति का एक ही काॅमन नाम आ जाने से राशन वितरण अधिकारी आश्चर्य में पड़ गये। किन्तु सम्मुख खड़ी जनता की भारी भीड़ को देखकर उन्होंने दोनों के विषय में कार्यवाही त्वरित पुर्ण कर उन्हें वहां से लौट जाने को कहा।

राशन वितरण व्यवस्था का पुर्नसर्वेक्षण कार्य चल रहा था। इन्हीं की पूर्ति हेतु परिवार और सदस्यों का लेखा-जोखा जिला खाद्य आपूर्ति कार्यालय नागरीकों से ले रहा था। दीपिका चाहती थी कि उसका पृथक से राशन कार्ड बने ताकी उसके पति कमलेश और उसके उसके निजी संबंध को प्रमाणित करने का प्रमाणित दस्तावेज़ तैयार हो जाये। ताकी वह अपनी सौतन स्वाति के विरूद्ध इस विषय में भी ही मजबूत हो सके। स्वाति ने भी अपना पृथक राशन कार्ड बनवा लिया। उसे दीपिका से हर मामले में आगे निकलना था। दोनों की प्रतिद्वंदिता दिनों-दिन बढ़ती ही रही थी।

कमलेश अभी-अभी घर लौटे थे। वे कुर्सी पर कुछ पल सुस्ताने बैठे ही थे की स्वाति और दिपिका वहां आ पहूंची। दोनों के हाथों में पानी का गिलास था। जो कमलेश की प्यास बुझाने हेतु जल्द से जल्द उनके मुंह तक पहूंचना चाहता था। कमलेश को दोनों ही गिलास का पानी पीना अनिवार्य था क्योंकि ऐसा न करने पर किसी एक का कोप का भाजन उसे बनना बड़ता। पानी पीलाने के बाद कमलेश के कदमों में दोनों पत्नियां बैठ गयी। स्वाति और दिपिका ने कमलेश के एक-एक पैर का बंटवारा कर लिया था। उसके पैरों से जुते और मौज़े निकालकर दोनों पत्नियां खड़ी हो गयी। कमलेश जानता था कि अब उसे क्या करना है। अपने बैग से उसने स्वाति और दीपिका के लिए बाज़ार से लाये गये फूलों को दो गज़रे निकाले। जिन्हें उसने अपनी दोनों बीवीओं को बांट दिया। गजरे को छपटते हुये दोनों सौतन परस्पर 'हुंssअं' कि ध्वनि निकालते हुये अपने-अपने कमरे में तैयार होने चलीं गयी। कमलेश आज अपनी बीवीओं को शाॅपिंग पर ले जाने वाले थे।

समझौते के सहारे जीवन काटने पर विवश कमलेश अपनी भुल पर शर्मिंदा था। अगर उसके कदम न बहकते तब आज उसके घर में आये दिन की महाभारत न हुआ करती। स्वाति इस बात से दुःखी थी कि उसने दीपिका को स्वयं अपनी सौतन बनाया। ये कदम उसके लिए नित्य नये कष्ट लेकर आ रहा था। दिपिका भी अपनी जान आफत में डालकर शर्मिंदा थी। दोनों पत्नियां कमलेश पर आधिकारिक आधिपत्य जमाने की हर संभव कोशिशें किया करती। दिन और रात के बंटवारे हो चुके थे। दिन तो कमलेश ऑफिस में व्यतित कर देता। किन्तु रात उसे बारी-बारी से अपनी पत्नियों के साथ बितानी होती।

"अच्छी-सी बढ़ियां साड़ी दिखाईये।" स्वाति ने दुकानदार से कहा। वो अपने पति कमलेश के साथ शाॅपिंग करने शहर के एक माॅल में आयी थी। दिपीका भी साथ ही थी।

"भैया! मुझे कुछ अच्छे सलवार सुट दिखाईये और साड़ियां भी।" दीपिका ने भी उसी सेल्समेन से कहा।

सेल्समैन कमलेश की दोनों बीवीयों को साड़ियां दिखाने लगा।

कमलेश चुपचाप दोनों के बीच में बैठा 'हां हूं' की औपचारिकता निभा रहा था।

सेल्समैन आश्चर्य में था। वह दोनों पत्नियों को एक साथ अपने इकलोते पति के साथ शाॅपिंग करते हुये अपने जीवन में पहली बार देख रहा था।

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ज्योति के पैर भारी है, यह सुनकर अविनाश के पैर जमींन पर नहीं टीक रहे थे। उसके लिए पिता बनना जैसे कोई स्वप्न पुरा होने के बराबर था। अब से उसने ज्योति की देखरेख पहले से अधिक बढ़ा दी। ज्योति की सास भी चाहती थी की वह भारी काम न करे। इसके लिए काम वाली बाई की व्यवस्था भी कर दी गयी। एक दिन फर्श का पोछा लगाते हुये सुन्दरलाल ने ज्योति को रंगे हाथों पकड़ लिया। वे नाराज हो उठे। ज्योति को इस बार अपने ससुर की डांट में भी प्यार दिखाई दे रहा था। उसने माफी मांगते हुये दौबारा यह नहीं दोहराने की बात कह दी। खाने-पीने में उसे वह सब दिया जाता जिसकी एक गर्भवती को आवश्यकता होती है। इस वीआईपी ट्रीटमेंट और असीम प्रेम को पाकर ज्योति को सेलिब्रिटी-सा अनुभव होने लगा था। वह अक्सर अविनाश के हृदय से लगकर आंखें भिगों लेती। जब अविनाश अपने हाथों से उसके गालों पर बहते आसूंओं की बूंदों को हटाते तब ज्योति अपने भाग्य पर इठलाती। अविनाश जैसा पति पाकर वह धन्य थी। सास-ससुर दुसरे माता-पिता बनकर उसके जीवन में खुशियाँ ही खुशीयां बिखेर रहे थे।

'पहला बच्चा बेटा हो जाये तो आगे टेंशन नहीं रहती।' पड़ोसी के इस वाक्य ने सुखे घांस-फूंस में चिंगारी का काम किया। हमेशा हंसता-खेलता परिवार चिंतामग्न रहने लगा। कुछ ही दिनों में में ज्योति के ससुरावालें ने यह निर्णय लिया की ज्योति का पहला बच्चा किसी भी किमत पर बेटा होना चाहिए ताकी आने वाली संतान बेटी भी हो, तो भी कोई अंतर न पड़े। पड़ोसी काकी ने जिस गांव का पता बताया, वहां ज्योति को ले जाया गया। नाथ बाबा ने ग्यारंटी लेकर चावल के कुछ दाने ज्योति को खिलाये और कहा बेटा होने पर अपनी इच्छानुसार यहां दान कर सकते है। इससे पहले उन्हें कुछ नहीं चाहिए। अविनाश की तरह रमाबाई का भी विश्वास प्रगाढ़ हो गया कि ज्योति बेटे को ही जन्म देगी।

ज्योति का डिलेवरी डेट नजदीक आ चुकी थी। किसी भी वक्त प्रसव पीड़ा शुरु हो सकती थी। अविनाश रोमांचित था। सुन्दरलाल और रमा दोनों ज्योति के जापे की तैयारी करने लगे। शुध्द घी और सूखे मेवे लेकर अविनाश अपने ससुराल पहूंचा। ज्योति पहली बार शंका में दिखी। वह अविनाश से कुछ कहना कहना चाहती थी मगर उनकी प्रसन्नता देखकर वह कुछ कह न सकी। ज्योति की पहली डिलेवरी मायके में होनी थी। उसके माता-पिता यह जिम्मेदारी लेने में गर्व का अनुभव कर रहे थे। वे दोनों ज्योति का चेहरा पढ़ चुके थे। जिसमें अनगिनत सवाल तैर रहे थे। मगर दोनों ने ख़ामोश रहना ही उचित समझा।

ज्योति का फोन आते ही अविनाश अपने माता-पिता को साथ लेकर हाॅस्पीटल भागा। ज्योति व्याकुल थी। उसका हाथ अविनाश ने जोरो से पकड़ रखा था। एक अजीब-सी घबराहट ज्योति महसूस कर रही थी।

"कहीं पहली संतान बेटा नहीं हुई तो?" ज्योति ने अविनाश से पुछा।

"न हुआ तो कोई बात नहीं। हम बेटी का भी उसी तरह स्वागत करेंगे जैसे बेटे का करने वाले थे।" अविनाश ने हिम्मत बढ़ाते हुये कहा।

इतना सुनकर ज्योति के चेहरे पर छाई परेशानी जाती रही। उसे अविनाश की इन बातों ने बहुत तसल्ली दी। कुछ घंटों चले ऑपरेशन के बाद डाॅक्टर ने घर में लक्ष्मी आने की सुचना दे दी। सारा कौतूहल समाप्त हो चुका था। ज्योति के सास-ससुर बिना पोती का मुख देखे लौट गये। ज्योति मायके में थी। अविनाश अवश्य मिलने आता-जाता रहता। ज्योति को बुरा लगा किन्तु अविनाश के लिए उसने सबकुछ सह लिया। कुछ माह बाद अविनाश ज्योति को उसके ससुराल ले आया। सुन्दरलाल और रमा अब भी नाराज़गी की मुद्रा में थे। ज्योति की दिपा घर में सभी के हृदय में अपने लिए जगह तलाश रही थी। दिपा की किलकारियों ने रमाबाई के हृदय में कुछ ही सही मगर सांत्वना तो अवश्य दी थी। सुन्दरलाल भी दीपा के हो गये। लगभग दो वर्ष के बाद पुनः ज्योति गर्भवती हुयी। रमाबाई अब पहले से अधिक सतर्क हो गयी। उसने आखिरकार वह डाॅक्टर का पता ढुंढ निकाला जो दो माह के गर्भ के तुरंत बाद ही बेटा होने की दवाई पिलाता था। उसके परहेज बहुत ही कढ़े थे। जिसके पालन से संतान बेटा बनकर ही जन्म लेती थी। ऐसा उसने स्वयं उपचार किये गये मरीजों के क़िस्सें और उदाहरण सुनाकर कहा। ज्योति एक बार फिर दुविधा में थी। मगर उसके अंदर इतना साहस न था की विरोध प्रकट कर सके। उसने दवा खा ली। दवा खाकर तो जैसे वह मौत के मुंहाने पर आ पहूंची। तीन दिन हाॅस्पीटल में उसे गंभीर अवस्था में भर्ती किया गया। बच्चा गिर चुका था। जैसे-तैसे और बड़ी मुश्किल से उसे बचाया गया। छः माह के विश्राम के बाद रमा बाई ने पुनः अविनाश को कमर कसने को कहा। अविनाश भी तैयार था। ज्योति, रमा और अविनाश के ईशारों पर नाचने को विवश थी। कुछ ही दिनों में ज्योति के पुनः गर्भवती होने की पुष्टि हो गयी। ज्योति के लाख मना करने पर भी उसी डाॅक्टर की वह 'बेटा उगाऊ' दवाई उसे खानी पड़ी। अब की बार रमाबाई स्वयं मैदान में उतर आई। सभी तरह के परहेज वह ज्योति से स्वयं करवाती। इन्हीं का उचित पालन न करने का दण्ड वे लोग पहले भुगत चुके थे।

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