My husband is your husband - 3 in Hindi Moral Stories by Jitendra Shivhare books and stories PDF | मेरा पति तेरा पति - 3

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मेरा पति तेरा पति - 3

3

सबकुछ सामान्य भी हो जायेगा। किन्तू दिपिका के साथ हुये अन्याय का हिसाब हम सभी को कभी न कभी तो देना ही होगा। उसकी तड़प और आंखों से बहते आसुं कहीं किसी रूप में हम सभी से इस अन्याय का प्रतिशोध अवश्य लेंगे। ' स्वाति विचारों में खोई हुयी थी।

"स्वाति! स्वाति! कहां खो गयी।" कमलेश ने उसे जगाया।

स्वाति ने घृणित नज़रों से कमलेश को देखा।

"स्वाति! दिपीका घर छोड़ कर जा रही है। इसे कुछ तो कहो।" कमलेश ने स्वाति से कहा।

स्वाति तेजी से उठी। वह दीपिका के कमरे जाना चाहती थी। इससे पुर्व ही दिपीका हाथ में बैग लिये अपने कमरे से बाहर निकलकर हाॅल में आ पहूंची।

"फिक्र मत करो दीदी। मैं आपको विश्वास दिलाती हूं कि मैं पुलिस के पास नहीं जाऊंगी। मेरे साथ जो भी हुआ उसे कभी किसी को नहीं बताऊंगी।" दिपीका अब भी दुःखी थी।

स्वाति ने उसे अपने गले से लगा लिया।

"तुम कहीं नहीं जाओगी दिपीका!" स्वाति ने अपने दिल की बात कह दी।

"मगर दीदी•••?" दिपिका ने कहना चाहा मगर स्वाति ने उसे चुप कर दिया।

"मैं जानती हूं। अब तुम्हारे लिए यहां रहना कितना कठिन है? लेकिन मैं यह भी जानती हूं की अगर तुम दोनों मेरी बात मानो तो फिर से सबकुछ पहले जैसा हो जायेगा। हां! कुछ दिनों की परेशानी होगी। मगर धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा।" स्वाती ने कहा।

कमलेश जानना चाहता था कि ऐसी कौनसी योजना थी जो स्वाति के दिमाग में चल रही है। जिसके बल पर वह सबकुछ ठीक हो जाने का दंभ भर रही थी। दिपीका स्वयं इस बात से अनभिज्ञ थी। उसे पता नहीं था कि स्वाति के मन में आखिर चल क्या रहा था?

"क्या बकवास कर रही हो स्वाति? ऐसा नहीं हो सकता।" कमलेश ने स्वाति द्वारा समस्या समाधान पर अपनी तिखी प्रतिक्रिया दी।

"हां दीदी। मुझे भी यह उचित नहीं लगता।" दिपीका बोली।

"तो फिर क्या उचित लगता है? मुझे बताओ! आखिर तुम करना क्या चाहती हो?" स्वाति ने दिपीका को डांटते हुये कहा।

"मगर दीदी! आप अपनी बसी-बसाई गृहस्थी में क्यों आग लगाना चाहती है?" दीपीका बोली।

"आग तो लग चूकी दिपीका। और ये अब सारी उम्र जलती रहेगी।" स्वाती बोली।

"लेकिन मैं तुम्हारे निर्णय के साथ नहीं हूं। मुझे ये किसी किमत पर मंजूर नहीं।" कमलेश बोला।

"ये उस वक्त़ क्यों नहीं सोचा जब दिपीका के बदन को नोंच-घसोट रहे थे। वासना में अंधे होकर तुमने जो व्याभिचार किया है उसका दण्ड तो तुम्हें भुगतना पड़ेगा।" स्वाती अपने पति कमलेश पर दहाड़ी।

कमलेश का सिर एक बार फिर शर्म से नीचे झुक गया।

"तुम दोनों मेरी बातें कान खोलकर सुन लो। या तो मेरी बात मान लो। अन्यथा मैं अभी फोन लगाकर स्वयं पुलिस को यहां बुलाऊंगी।" स्वाती बोली।

"आप उनसे कहेंगी क्या?" दिपीका बोली।

"यही की मेरे पति ने तुम्हारे साथ बलात्कार किया है।" स्वाति बोली।

कमलेश और दिपिका अवाक् रह गये। कमलेश जानता था कि एक बार जो निर्णय स्वाति ने ले लिया, उसे फिर कोई नहीं डिगा सकता।

"मैं जेल जाने को तैयार हूं स्वाति। जब गल़ती मेरे अकेली की है तब तुम दोनों इसकी सज़ा क्यों भुगतोगी।" अपराध बोध से ग्रसित कमलेश ने अंततः स्वीकार कर ही लिया।

"कौन कहता है इसमें गल़ती अकेले तुम्हारी थी।" स्वाती के स्वर अब कुछ नर्म थे।

"इस अपराध मे जितने तुम दोषी हो उतनी मैं भी। और उतनी ही दिपीका भी।" स्वाती बोली।

कमलेश और दिपीका दोनों स्वाति को आश्चर्य से देख रहे थे।

"मेरी सबसे बड़ी गल़ती ये थी घर में एक पुरूष के होते हुये मैने दिपीका जैसी जवान और खुबसूरत लड़की को अपने यहां रहने दिया। दिपिका का दोष यह था कि वह यदि अपने यौन शौषण के समय चिखती-चिल्लाती तो अवश्य उसके साथ यह कुकर्म नहीं होता।"

कमलेश और दिपिका शर्मिंदा थे।

"जब गल़ती तीनों की है तब इसकी सज़ा भी तीनों को मिलनी चाहिये।" स्वाती ने अपना निर्णय सुना दिया।

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एक के बाद एक कर तीन-तीन पतियों का निधन आराधना के लिए जितना बड़ा सदमा था उतना ही बड़ा सामाजिक कलंक भी। नगर में उसकी छवी अशुभ मानी जाने लगी थी। प्रातःकाल आराधना का दर्शन का अर्थ था संपूर्ण दिन का सत्यानाश होना। डरी-सहमी आराधना घर से बाहर कुछ कम ही निकला करती। भाई-भौजाई तो उसे पहले ही त्याग चुके थे। एक बुढ़ी विधवा मां ही थी जो अपनी आराधना को अब भी कलेजे से लगाये रखी हुई थी। तीज-त्यौहार और शुभ प्रसंग में आराधना का प्रवेश वर्जित था। नितीन और उसकी पत्नि साक्षी नाते-रिश्तेदारी में आराधना को जान-बुझकर नहीं ले जाते। इस पर कांता अपने बेटे बहू को खूब खरी-खोटी सुनाती भी। आराधना ही बीच-बचाव कर मामला शांत करती। धीरे-धोरे मोहल्ले का बच्चें भी आराधना से कटने लगे थे। क्योकीं उनके पालक नहीं चाहते थे की आराधना का अशुभ साया भी उनके बच्चों पर पड़े। आराधना अपने अतीत पर आसूं बहाकर ब-मुश्किल अपना वर्तमान काट रही थी। कांता अगर ध्यैर्य न बंधाती तो वह कब की देह त्याग चूकी होती। दोनों एक-दुसरे का सहारा बनकर पुश्तैनी मकान के पीछे एकांत में बने एक छोटे से कमरे में अपना गुजर-बसर करने पर विवश थीं। कांता फटे पुराने कपड़े बाजार से खरीद लाती। आराधना उन्हें स्त्री और रफू कर पहनने योग्य बना देती। अगले दिन कांता हाट- बाजार और फुटपाथ-फूटपाथ खड़ी होकर यह कपड़े विक्रय कर देती। जैसे-तैसे दोनों का गुजारा हो रहा था। आराधना अधिकतर समय अपनी मां के साथ ही रहती।

सड़क की एक ओर रमन ने कार रोकी। देवा भी साथ था। दोनों लांग रूट पर निकले थे। लौटते समय गांव के स्थानीय हाट-बाजार से गुजरे। रमन की नज़र सड़क की दुसरी ओर पुराने कपड़े बेच रही आराधना पर पड़ी। हल्की सफेद रंग की साड़ी में आराधना का सौन्दर्य देखते ही बनता था। राह से गुजरते ग्रामीणों को कपड़े दिखाती आराधना की मासुमियत रमन का हृदय भेद गयी। चेहरे पर बरबर ही आ जाती बालों की लटें और उन्हें अपनी मनमानी करने देती आराधना को रमन टक-टकी लगाये देखने पर विवश था। 'अगर यह युवती माथे पर बिंदी और लगा ले तो किसी परी से कम न दिखे'  रमन, आराधना के लिए यह सोच रहा था।