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प्रेम का दीप गंगा के तट पर सांझ उतर आई थी। सूर्य की अंतिम किरणें जल में बिंबित होकर ऐसा आभास दे रही थीं मानो किसी कुशल चित्रकार ने सोने की रेखाएँ खींच दी हों। हवा में भीनी-भीनी सी शीतलता थी, और मंदिर की घंटियाँ धीरे-धीरे एक तालबद्ध लय में बज रही थीं। उसी तट पर, पीपल के नीचे, एक युवती खड़ी थी—कमलिनी। उसका गौरवर्ण मुख सूर्यास्त की आभा में दमक रहा था, और उसके नेत्रों में कोई अधूरी आकांक्षा झलक रही थी। उसने धीरे से अपने हाथ में पकड़ी दीपशिखा को देखा और जल की सतह पर छोड़ दिया। दीप लहरों पर तैरता हुआ आगे बढ़ने लगा, जैसे किसी अज्ञात भविष्य की ओर यात्रा कर रहा हो। "कमलिनी!" पीछे से किसी ने पुकारा। कमलिनी ने मुड़कर देखा—गौरव। उसका स्वर भावुक था, और नेत्रों में अनकहे शब्द तैर रहे थे। "तुम अब भी दीप बहा रही हो?" उसने मुस्कुराते हुए पूछा। कमलिनी ने धीरे से सिर झुका लिया। "हाँ, यही एक उपाय है अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने का। शब्दों में प्रेम का भार उठाने की शक्ति कहाँ?" गौरव गंभीर हो गया। "परंतु प्रेम तो कहने का विषय है, जीने का विषय है। इसे यूँ लहरों पर छोड़ देना क्या न्यायसंगत है?" कमलिनी ने उसकी ओर देखा। आँखों में नमी थी, परंतु होठों पर हल्की मुस्कान। "गौरव, प्रेम में कभी-कभी मौन ही सबसे बड़ी अभिव्यक्ति बन जाता है।" गौरव ने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया। "परंतु यदि प्रेम मौन हो जाए, तो क्या यह अन्याय नहीं? क्या यह उस भाव को नहीं नष्ट कर देता, जो स्वयं को व्यक्त करने के लिए तड़प रहा हो?" कमलिनी कुछ क्षणों तक चुप रही, फिर धीरे से बोली, "शायद तुम सही कहते हो, गौरव। प्रेम को व्यक्त करना भी आवश्यक है।" उसने आकाश की ओर देखा—तारे टिमटिमा रहे थे। गंगा की लहरें दीपशिखा को दूर ले जा रही थीं। गौरव ने कोमल स्वर में कहा, "तो फिर, क्या तुम अब मुझसे अपने प्रेम को मौन में नहीं, शब्दों में कहोगी?" कमलिनी मुस्कुराई, और उसी पीपल के नीचे, गंगा के किनारे, एक नया दीप जल उठा—प्रेम का दीप, जो अब जलधारा में विलीन नहीं होगा, अपितु जीवन के हर मोड़ पर आलोकित रहेगा।
मानव जीवन जीवन! तू कितना कठिन, कभी हँसी, कभी करुणा बनता। सुख में देता मधुर सपन, दुःख में अश्रु की गाथा बनता। बालक जब जन्मा घर आँगन, माँ की गोदी में किलकारी, मिट्टी के खिलौनों से खेला, नादानी में बीती उजियारी। यौवन आया, स्वप्न जगे, मन में सौ अरमान पले। कर्मक्षेत्र में क़दम बढ़ाया, संघर्षों से पथ नवल चले। धन के पीछे दौड़ा मन, स्नेह-प्रेम सब भूल गया। घर आँगन छूटा कहीं, स्वार्थ में मन फूल गया। बूढ़ा हुआ तो थक गया, शरीर भी बोझ सा लगने लगा। संपत्ति थी, पर अपनापन नहीं, अपने ही छूटने लगे, संग नहीं। जीवन यही, एक पहेली, धूप-छाँव का खेल निराला। कभी हँसी, कभी विषाद, कभी उजाला, कभी अंधियाला। "जो किया, वही साथ जाएगा, संपत्ति नहीं, बस नाम रह जाएगा। मानवता का दीप जलाकर चल, वरना तेरा भी अंधकार रह जाएगा!"
रात की चादर में लिपटी तेरी यादें, अब भी मेरी खिड़की से झाँकती हैं। हवा जब भी बालों को छूकर गुज़रती है, ऐसा लगता है, जैसे तेरा एहसास बहा लाती है। तेरी हँसी की गूँज कहीं गुम हो गई, पर दिल अब भी उसी लय में धड़कता है। तेरी आँखों की गहराई में जो सपना देखा था, अब वो हर रात मेरी आँखों में तैरता है। कभी तेरा नाम होंठों पर आकर रुक जाता है, कभी ख़्वाबों में तेरा आंचल लहराता है। कभी मेरी धड़कन तुझसे सवाल करती है, कि मोहब्बत अगर सच्ची थी, तो तू लौट क्यों नहीं आता? मैंने चाँद से पूछा— "क्या तेरा भी कोई बिछड़ा है?" वो मुस्कुराकर बोला— "इश्क़ में कौन पूरा है?" कभी जो पास था, अब भी पास लगता है, मगर फासले वही हैं, जो कल थे, आज भी हैं।
"तेरा जिक्र जब हुआ" तेरा ज़िक्र जब हुआ, महफ़िल संवर गई, बिखरी थी जो शाम, वो भी निखर गई। तेरी याद आई तो आँसू छलक पड़े, सूखी सी आँखों में बारिश ठहर गई। मुद्दतों से चाहा तुझे भूल जाऊँ मैं, पर ये कैसी चाहत थी, जो फिर उभर गई।
"आधी ज़िन्दगी" मैंने आधी ज़िन्दगी काँच की तरह जी है, टूटती रही हर रोज़, और लोग कहते रहे— "बहुत हसीन है!" मैंने हर मुस्कान के पीछे एक आँसू छुपाया, और लोग बोले— "तेरी हिम्मत पर सलाम!" पर सच कहूँ तो, हिम्मत भी कभी-कभी थक जाती है…
रणभेरी वज्र छूटते चरणों से जब, नभ काँपे, धरती डोले, शेर दहाड़े वन में जिस क्षण, शत्रु मूर्छित हो बोले। रुक सकता कब पवन प्रबल जब, पर्वत से टकरा जाए, रुक सकता कब सूर्य, धरा को, ताप दिए बिन रह जाए? यह मातृभूमि अमरानी है, इसकी माटी का मान न हो, जो दुश्मन आँख उठाए इस पर, वह जीवित, यह ज्ञान न हो। गंगा की धार नहीं बुझ सकती, न हिमगिरि झुक सकता है, जो खड़ा द्वार पर शत्रु बनकर, वह राख सुलग सकता है। हम तो रक्त लिखेंगे रण में, जो न समझेगा बातों से, हम शूल बनेंगे पथ-पथ पर, जो खेलेगा जज़्बातों से। आओ फिर हुंकार भरो, फिर गर्जो नभ की छाती में, फिर चमक उठे यह देश हमारा, बल, शौर्य, महिमा-भाषी में!
अग्नि के फूल धधक उठे हैं खेत हमारे, प्यासा है हर गाँव का चूल्हा। बेटा मरता भूख से देखो, माँ ने तोड़ा मौन का तुला। नदियाँ रोतीं, पर्वत चीखें, धरती की चूड़ी टूटी है। हाट-बाजारों में आज भी रोटी सबसे छोटी है। बूटों की ठोकर से घायल, रस्ते पथराये हैं। कोई रोकर कहे दुहाई, कोई भूखे सो जाये हैं। सत्ता की चौखट पर बैठी, श्वानों की टोली देखी। भूखी जनता मरती जाए, पर पेट भरे की होली देखी। बाँध दो अब हाथ सरकार के, मत भरो चुनाव में झांसा। आँखों में अंगार भरो, अब ना सहो यह तमाशा!
"मनुज तू स्वयं प्रकाश बन" सुन रे मनुज! जगत की इस माटी में, तेरी ही छवि बसती आई। कालचक्र के चक्रव्यूह में, तू ही अभिमन्यु बनकर लड़ता आया। क्यों फिर आज अधीर बना है? क्यों तू मौन खड़ा है द्वारे? जिस धरा पर ऋषियों ने गाया, वहीं आज अश्रु बहे हारे? स्मरण कर, वे वेद-ऋचाएँ, जो तुझमें जीवन भरती थीं। वह गीता का अमृत स्वर, जो तुझमें तेज भरती थीं। क्या हुआ जो तम घना है, क्या हुआ जो दिन ढला है? दीप अगर तू स्वयं बनेगा, हर दिशा में उजियाला होगा। तू अशोक की चेतना बन, तू बुद्ध की करुणा बन। तू कृष्ण का सारथी बन, तू राम की मर्यादा बन। मत थक, मत रुक, मत झुक, तेरी रगों में रक्त वही है। जो वेदों की ऋचाओं में, कभी अमरता का स्वर बना। जाग रे मनुज! स्वप्न देख नया, अपने ही पथ का प्रकाश बन। तेरे भीतर जो सोया देव, उसका फिर से आभास बन। ---
विरह – तेरे बाद… तेरे बाद, रातें लंबी हो गईं, नींद किसी भूले हुए मोड़ पर छूट गई, और सपने… वो तो शायद तेरे साथ ही चले गए। तेरे बाद, दरवाज़े की वो हल्की दस्तक नहीं होती, ना कोई नाम लेकर बुलाता है। अब आवाज़ें आती हैं, पर उनमें तेरा सुकून नहीं होता। तेरे बाद, बारिश अब भी होती है, पर वो पुरानी खुशबू नहीं लाती। अब बादल बरसते हैं, पर मैं खिड़की से नहीं देखता, क्योंकि वहाँ कोई साथ भीगने वाला नहीं। तेरे बाद, दिल हज़ार बार कहा कि जी लूँ, पर हर बार तेरी यादें, कोई न कोई बहाना ढूंढ ही लेती हैं, मुझे रोकने का, मुझे फिर से उसी मोड़ पर ले जाने का, जहाँ से तू मुझसे बिछड़ा था। तेरे बाद… मैं वहीं खड़ा हूँ, जहाँ तेरा इंतज़ार अधूरा रह गया था।
एक बार पुकार लेना, मैं आ जाऊँगा रात के सन्नाटे में जब तेरे हृदय की वेदना जागे, जब बीते समय की स्मृतियाँ तुझे व्याकुल करें, जब तेरा मन तेरी अपनी ही परछाईं से प्रश्न करने लगे—तब बस एक बार पुकार लेना, मैं आ जाऊँगा। जिस प्रेम को तूने तिरस्कृत किया, जिसे तूने समय की धारा में प्रवाहित कर दिया, वह प्रेम आज भी तेरा है। वह कहीं नहीं गया। तूने उसे भुलाने का प्रयत्न किया, पर वह तो तेरे हृदय के किसी कोने में सजीव है। तेरी हर साँस के साथ जीवित है। और जब तुझे इसकी आवश्यकता होगी, बस एक बार स्मरण कर लेना—मैं आ जाऊँगा। जब संसार तुझसे मुख मोड़ ले, जब अपने भी परायों से अधिक कठोर हो जाएँ, जब तुझे लगे कि अब तेरा कोई नहीं, तब मत भूलना, मैं अब भी तेरा ही हूँ। मैंने अपने स्नेह को संजोकर रखा है, तेरी प्रतीक्षा में। यदि तेरा हृदय कभी बोझिल हो, यदि कोई पीड़ा तेरे अंतःकरण को छलनी कर दे, तो संकोच मत करना। तेरी एक पुकार, और मैं अपने समस्त भावनाओं सहित तेरे सम्मुख उपस्थित हो जाऊँगा। क्योंकि प्रेम, यदि सच्चा हो, तो उसे मिटाने की शक्ति स्वयं विधाता के पास भी नहीं। वह समय की धारा में बहता नहीं, वह बस प्रतीक्षा करता है—तेरी एक पुकार की। और जब वह पुकार आएगी, मैं आ जाऊँगा…
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