देहरी पर बैठी शाम
स्थान: सोमेश बाबू का पुराना पुश्तैनी घर। एक बड़ा सा कमरा जिसकी छत ऊँची है और कोनों में थोड़ा अंधेरा जमा हुआ है।
समय: शाम के 5:00 बजे, बाहर मूसलाधार बारिश हो रही है।
कमरे के भीतर एक अजीब सी ठहराव वाली खामोशी थी, जिसे सिर्फ दीवार पर टंगी पुरानी पेंडुलम घड़ी की 'टिक-टिक' और बाहर बरसते पानी का शोर ही तोड़ रहा था। खिड़की के पास रखी पुरानी लकड़ी की 'रॉकिंग चेयर' (आराम कुर्सी) पर 75 वर्षीय सोमेश बाबू बैठे थे। कुर्सी अपनी लय में धीरे-धीरे आगे-पीछे डोल रही थी—चर्र... मर्र... चर्र... मर्र...। यह आवाज़ उस खाली कमरे में किसी थकी हुई सांस जैसी लग रही थी।
सोमेश बाबू ने अपने मोटे लेंस वाले चश्मे को नाक पर थोड़ा ऊपर खिसकाया। उनके हाथ, जिन पर अब नीली नसें उभर आई थीं और त्वचा ढीली पड़ चुकी थी, एक पुराने, पीले पड़ चुके फोटो एल्बम पर टिके थे। बाहर की ठंडी हवा खिड़की की झिरी से अंदर आ रही थी और उनके सफेद बालों को हौले से छेड़ रही थी, लेकिन सोमेश बाबू का ध्यान अपनी गोद में रखी उस तस्वीर पर था।
तस्वीर 'ब्लैक एंड व्हाइट' थी। उसमें एक 25 साल का नौजवान खड़ा था—सिर पर करीने से जमे हुए तेल लगे बाल, गले तक बंद शर्ट का बटन, पतलून में एकदम सीधी 'क्रीज' और चेहरे पर ऐसी गंभीरता, मानो अगर वह ज़रा सा मुस्कुरा दिया तो दुनिया का संतुलन बिगड़ जाएगा। वह नौजवान खुद सोमेश बाबू ही थे।
सोमेश बाबू ने अपनी झुर्रियों वाली उंगली उस नौजवान के चेहरे पर फेरी। उनके होंठों पर एक फीकी, व्यंग्यात्मक मुस्कान तैर गई।
"कितना बेवकूफ था मैं..." वह बुदबुदाए। उनकी आवाज़ खुरदरी थी, जैसे कोई जंग लगा दरवाजा बहुत दिनों बाद खुला हो।
उन्होंने नजर उठाकर खिड़की के बाहर देखा। सड़क पर पानी भर गया था। कुछ बच्चे कागज की नाव तैरा रहे थे, और एक लड़का अपनी साइकिल को जानबूझकर पानी के बीच से निकाल रहा था, जिससे कीचड़ के छींटे हवा में उड़ रहे थे। सोमेश बाबू की आँखों में एक चमक आई, और फिर तुरंत ही एक धुंधला सा पछतावा।
उनके मन में विचार उमड़ने लगे:
"उस फोटो वाले लड़के को देखो। कितना 'परफेक्ट'। लोग कहते थे, सोमेश जैसा बनो, कितना सुलझा हुआ है। लेकिन आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो मुझे वह 'सुलझा हुआ' लड़का नहीं, बल्कि एक डरा हुआ इंसान दिखाई देता है। एक ऐसा इंसान जिसने पूरी जिंदगी सिर्फ एक नियम का पालन किया—'लोग क्या कहेंगे' और 'भविष्य सुरक्षित करो'।"
उन्होंने एक गहरी सांस ली। कमरे में 'आयोडेक्स' और पुरानी किताबों की मिली-जुली गंध थी।
"मैं इस कुर्सी पर बैठा हूँ, मेरे बैंक खाते में इतने पैसे हैं कि मैं अगले दस साल आराम से जी सकूं। मेरे पास यह मजबूत छत है। मैंने सब कुछ 'सही' किया। लेकिन..." सोमेश बाबू की पकड़ एल्बम पर थोड़ी सख्त हो गई, "लेकिन मेरे पास कोई ऐसी कहानी नहीं है जिसे सुनाते वक्त मेरा दिल जोर से धड़के। मैंने कभी बारिश में भीगने का जोखिम नहीं उठाया कि कहीं बुखार न आ जाए। मैंने कभी उस लड़की से बात नहीं की जिसे मैं पसंद करता था, कि कहीं पिताजी नाराज न हो जाएं। मैंने जवानी में पहाड़ों पर जाने का प्लान इसलिए कैंसिल किया क्योंकि मुझे नौकरी से छुट्टी लेने में डर लगता था।"
बाहर बिजली कड़की और कमरे में एक पल के लिए रोशनी कौंध गई। सोमेश बाबू को लगा जैसे वह बिजली उस तस्वीर वाले अनुशासित लड़के पर हंस रही हो।
"मैंने जीवन को एक कीमती कांच के बर्तन की तरह संभालकर रखा, कि कहीं टूट न जाए," उन्होंने अपनी कांपती आवाज में खुद से कहा, "और उसे बचाने के चक्कर में... मैं उसमें पानी पीना ही भूल गया।"
कुर्सी का डोलना रुक गया। सोमेश बाबू ने एल्बम बंद कर दिया, लेकिन अपनी आँखें नहीं मूंदीं। वे अब उस बंद एल्बम के जिल्द (cover) को घूर रहे थे, जैसे उसके भीतर बंद अपने अतीत से पूछ रहे हों—क्या अब बहुत देर हो चुकी है?
कमरे की खामोशी अब और भी भारी हो गई थी, जिसे सिर्फ उनकी भारी सांसें और बाहर गिरती बारिश ही सुन रही थी।
बचपन की वो कोरी स्लेट
सोमेश बाबू ने अपनी आँखें मूंद लीं। बाहर मिट्टी पर गिरती बारिश की सोंधी खुशबू अब उनके नथुनों में भर गई थी। यह खुशबू एक 'टाइम मशीन' की तरह थी, जिसने उन्हें पल भर में 65 साल पीछे धकेल दिया।
अब वे अपनी आराम कुर्सी पर नहीं थे। वे अपने प्राइमरी स्कूल के उस पुराने, टपकते हुए बरामदे में खड़े थे।
उन्हें याद आया, वह जुलाई का महीना था। स्कूल की घंटी बजी थी—टन... टन... टन...। बस्ता कंधे पर टांगे बच्चों का हुजूम शोर मचाता हुआ क्लासरूम से बाहर भागा था। सब तरफ कीचड़ था, पानी के छोटे-छोटे गड्ढे बन गए थे।
सोमेश (छोटा सोमेश, उम्र 10 साल) बरामदे के खंभे से चिपका खड़ा था। उसने नीचे अपने पैरों की तरफ देखा। सफेद कैनवस के जूते, जिन पर सुबह ही पिताजी ने सफेदी (chalk) लगाई थी। उसने अपनी खाकी निकर को झाड़ा और अपनी शर्ट की कॉलर ठीक की।
तभी उसका दोस्त 'मदन' दौड़ता हुआ आया। मदन के बाल बिखरे हुए थे, शर्ट का एक बटन टूटा हुआ था और चेहरे पर स्याही का निशान था। मदन ने बिना परवाह किए स्कूल के गेट के पास जमे गंदे पानी में छलांग लगा दी—छपाक!
कीचड़ के छींटे हवा में उड़े और मदन के कपड़ों पर गिर गए। मदन जोर से हंसा। उसकी हंसी में एक अजीब सी आजादी थी, एक बेफिक्री थी।
"ओए सोमू! आजा!" मदन चिल्लाया, "पानी बहुत ठंडा है, बड़ा मजा आ रहा है! आज तो नाव चलाएंगे।"
छोटा सोमेश एक पल के लिए ललचाया। उसका भी मन हुआ कि बस्ता फेंक दे और उस पानी में कूद जाए। उसे भी मदन की तरह कीचड़ अपने गालों पर महसूस करना था। उसका दाहिना पैर आगे बढ़ा... लेकिन फिर हवा में ही रुक गया।
उसे माँ की कड़क आवाज़ याद आ गई: "खबरदार जो आज कपड़े गंदे करके लाया। साबुन घिसते-घिसते मेरे हाथ दुख जाते हैं। अगर वर्दी गंदी हुई, तो रात का खाना नहीं मिलेगा।"
डर उसके मन पर हावी हो गया। उसने अपना पैर वापस खींच लिया।
"नहीं मदन," छोटे सोमेश ने अपनी इच्छा को मारते हुए कहा, "कपड़े खराब हो जाएंगे। अम्मा मारेगी। तू भी निकल जा, बीमार हो जाएगा।"
मदन हंसा, "अरे छोड़ ना! मार ही तो पड़ेगी, खा लेंगे। लेकिन ये मज़ा रोज़ थोड़ी मिलेगा।"
मदन खेलता रहा, और सोमेश सूखी पगडंडी ढूंढते-ढूंढते, अपने जूतों को बचाते हुए घर की तरफ चल दिया। उस दिन सोमेश ने खुद को बहुत 'समझदार' और 'सभ्य' महसूस किया था। उसे लगा था कि वह मदन से बेहतर है।
वापस वर्तमान में, 75 साल के सोमेश बाबू की बंद आँखों के कोरों से एक आंसू लुढ़क कर उनके गाल पर आ गिरा।
"पागल था मैं..." उन्होंने भारी मन से सोचा।
"आज न वो सफेद जूते बचे हैं, न वो खाकी निकर। न माँ की वो डांट बची है और न ही वो साबुन घिसते हाथ। सब वक्त की धूल में खो गए। लेकिन मदन... मदन के पास उस बारिश की याद बची रह गई। और मेरे पास? मेरे पास सिर्फ यह संतोष बचा कि उस दिन मेरे जूते गंदे नहीं हुए थे।"
उन्होंने महसूस किया कि उनका बचपन एक ऐसी 'कोरी स्लेट' (Blank Slate) की तरह था जिसे उन्होंने टूटने के डर से कभी इस्तेमाल ही नहीं किया। उन्होंने उस स्लेट पर कुछ लिखा ही नहीं, कि कहीं गंदा न हो जाए। और अब... अब लिखने का वक्त निकल चुका है।
सोमेश बाबू ने अपनी मुट्ठी भींची। उन्हें आज समझ आ रहा था कि दाग सिर्फ कपड़ों पर नहीं लगते, कभी-कभी 'बेदाग' रहने की जिद आत्मा पर सबसे गहरा दाग छोड़ जाती है—पछतावे का दाग।
उन्होंने फिर से खिड़की के बाहर देखा। बारिश अभी भी हो रही थी, मानो प्रकृति उन्हें वह पुराना मौका दोबारा दे रही हो, लेकिन अब उनके घुटनों में दौड़ने की ताकत नहीं थी।
जवानी - पिंजरे में बंद पंछी
सोमेश बाबू ने एल्बम का पन्ना पलटा।
अगली तस्वीर रंगीन नहीं थी, लेकिन सोमेश बाबू की यादों में वह सबसे चटक रंगों से भरी थी। यह कॉलेज के अंतिम वर्ष की तस्वीर थी। सोमेश एक राजा की वेशभूषा में थे, चेहरे पर मूंछें लगी थीं और हाथ में एक नकली तलवार थी। उनके चेहरे पर जो आत्मविश्वास उस वक्त था, वह आज की इस झुर्रियों वाली त्वचा में कहीं खो गया था।
कमरे में बारिश का शोर धीमा पड़ गया और कानों में तालियों की गड़गड़ाहट गूंजने लगी।
फ्लैशबैक (स्मृति):
वह कॉलेज का वार्षिक उत्सव था। सोमेश ने नाटक में मुख्य भूमिका निभाई थी। जैसे ही पर्दा गिरा, पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा था। उनके ड्रामा टीचर ने पीठ थपथपाते हुए कहा था, "सोमेश, तुम स्टेज के लिए बने हो। मुंबई जाओ, संघर्ष करो, तुम चमकोगे।"
उस रात सोमेश को नींद नहीं आई थी। आंखों में सुनहरे सपने थे। वह हवा में उड़ रहा था।
अगले दिन सुबह, डाइनिंग टेबल पर नाश्ता करते हुए उन्होंने हिम्मत जुटाई।
"पिताजी," सोमेश ने अपनी धड़कनों को संभालते हुए कहा, "मैं... मैं थिएटर करना चाहता हूं। सर कह रहे थे कि मुझमें टैलेंट है।"
पिताजी ने अखबार नीचे किया। चश्मे के ऊपर से सोमेश को देखा—वही नज़र जिससे सोमेश बचपन से डरता आया था। कमरे में सन्नाटा छा गया। सिर्फ चाय की चुस्की की आवाज़ आ रही थी।
"नाटक?" पिताजी ने ऐसे कहा जैसे सोमेश ने कोई गाली दी हो। "नचैय्या बनोगे? भांड का काम करोगे?"
"नहीं पिताजी, यह कला है..."
"कला से पेट नहीं भरता, सोमेश!" पिताजी ने मेज पर हाथ मारा। "शर्मा जी के लड़के को देखो, बैंक में पी.ओ. (PO) लग गया है। सरकारी नौकरी, इज्जत, पेंशन... इसे कहते हैं ज़िंदगी। यह नौटंकी छोड़ो और प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करो। हमें बुढ़ापे में सहारा चाहिए, तमाशा नहीं।"
सोमेश के अंदर एक ज्वालामुखी था जो फटना चाहता था। वह चिल्लाना चाहता था कि "मुझे नहीं चाहिए आपकी वो सुरक्षित ज़िंदगी! मुझे खुश रहना है!"
लेकिन, हमेशा की तरह, 'आदर्श बेटा' जीत गया। सोमेश ने सिर झुका लिया।
"जी, पिताजी।"
उस शाम, सोमेश ने अपनी डायरी, अपने नाटकों की स्क्रिप्ट और वह नकली तलवार—सब एक बक्से में बंद करके अटारी (loft) पर फेंक दिया। बाजार से 'सामान्य ज्ञान' और 'गणित' की मोटी-मोटी गाइड बुक्स ले आया।
वर्तमान:
सोमेश बाबू ने उस तस्वीर पर हाथ फेरा। एक गहरी आह उनके सीने से निकली, जो दर्द से भरी थी।
"उस दिन मैंने सिर्फ नाटक नहीं छोड़ा था," सोमेश बाबू दीवार से बातें करने लगे, "उस दिन मैंने सोमेश का गला घोंट दिया था। उसके बाद जो बचा, वह सिर्फ एक क्लर्क था। एक मशीन, जो सुबह 9 बजे टिफिन लेकर दफ्तर जाती और शाम 6 बजे सब्जी का थैला लेकर घर आती।"
उन्हें याद आया कि कैसे दफ्तर में 40 साल तक फाइलों पर मुहर लगाते-लगाते, उनकी आत्मा पर भी एक मुहर लग गई थी—'रिजेक्टेड' (Rejected)।
"लोग कहते हैं मैंने बहुत अच्छी नौकरी की। रिटायरमेंट पर बहुत पैसा मिला," सोमेश बाबू कड़वाहट से हंसे, "लेकिन उस पैसे से मैं बीता हुआ वक्त नहीं खरीद सकता। आज मुझे लगता है कि काश! मैं मुंबई चला गया होता। शायद मैं भूखा रहता, शायद मैं फुटपाथ पर सोता, शायद मैं हार जाता... लेकिन कम से कम मुझे यह मलाल तो नहीं होता कि मैंने कोशिश ही नहीं की।"
उन्होंने महसूस किया कि असफलता का दुख कुछ दिनों तक रहता है, लेकिन 'कोशिश न करने' का पछतावा मरते दम तक पीछा नहीं छोड़ता।
उन्होंने सुरक्षित रास्ता चुना था। सड़क एकदम सीधी और सपाट थी, न कोई गड्ढा, न कोई मोड़। लेकिन दिक्कत यह थी कि उस सड़क पर कोई 'नज़ारा' (Scenery) भी नहीं था। सफर कब खत्म हो गया, पता ही नहीं चला।
तस्वीर धुंधली होने लगी थी, शायद उनकी आँखों में फिर से नमी आ गई थी।
प्रेम और परिवार - अधूरी बातें
सोमेश बाबू का हाथ अब एल्बम के उस पन्ने पर रुका, जहाँ एक श्वेत-श्याम (Black & White) शादी की तस्वीर लगी थी। बगल में ही एक और छोटी रंगीन फोटो थी—उनकी पत्नी 'सुधा' की। फोटो में सुधा रसोई में खड़ी थी, हाथों में चाय का कप लिए, और चेहरे पर वही शांत, सजी-धजी मुस्कान थी जो उसने ताउम्र ओढ़े रखी थी।
कमरे में टंगी सुधा की असली तस्वीर पर माला चढ़ी हुई थी, जिस पर थोड़ी धूल जम गई थी।
फ्लैशबैक (स्मृति):
यह 40 साल पुरानी एक रविवार की दोपहर थी।
सोमेश डाइनिंग टेबल पर फाइलों और कैलकुलेटर के साथ बैठे थे। वे घर के खर्च और अगले महीने की ईएमआई (EMI) का हिसाब लगा रहे थे। माथे पर चिंता की लकीरें थीं।
सुधा धीरे से उनके पास आई। उसने नई साड़ी पहनी थी।
"सुनिए," सुधा ने संकोच करते हुए कहा, "मौसम बहुत अच्छा है। बच्चे सो रहे हैं। क्या हम छत पर चलकर थोड़ी देर बैठें? बहुत दिन हो गए हमने आपस में कोई बात नहीं की।"
सोमेश ने फाइल से नज़र नहीं हटाई। उंगलियां कैलकुलेटर पर चलती रहीं।
"सुधा, तुम देख नहीं रही मैं व्यस्त हूँ?" सोमेश ने झुंझलाते हुए कहा। "बच्चों की फीस भरनी है, रिटायरमेंट के लिए पैसा जोड़ना है। बातें करने से घर नहीं चलता। अभी जाओ, मुझे डिस्टर्ब मत करो। बाद में बैठेंगे।"
सुधा के चेहरे की चमक बुझ गई। वह चुपचाप वहां से चली गई। वह "बाद में" कभी नहीं आया।
अगले 20 सालों तक सोमेश यही करते रहे—ओवरटाइम, बचत, निवेश। वे एक आदर्श पति थे—उन्होंने सुधा को कभी किसी चीज़ की कमी नहीं होने दी। साड़ियां, गहने, घर का सामान—सब समय पर ला दिया। बस, 'वक्त' नहीं ला पाए।
फिर एक दिन, अचानक सुधा चली गई। हार्ट अटैक। उसे कोई शिकायत नहीं थी, बस वह चुपचाप दुनिया से विदा हो गई।
वर्तमान:
सोमेश बाबू की आँखों से आंसू बहकर उनकी झुर्रियों में समा गए।
"मैंने उसे गहने दिए, लेकिन कभी उसकी तारीफ नहीं की। मैंने उसे घर दिया, लेकिन कभी उसके साथ घर को 'होम' नहीं बनाया," सोमेश बाबू का गला रुंध गया।
वे उस खाली कुर्सी को देखने लगे जहाँ सुधा बैठा करती थी।
"मैं हमेशा 'कल' की चिंता में 'आज' को मारता रहा। मैं सोचता था कि जब रिटायर हो जाऊंगा, जब सारी जिम्मेदारियां खत्म हो जाएंगी, तब हम दोनों आराम से बैठकर चाय पिएंगे, दुनिया घूमेंगे।"
सोमेश बाबू कड़वाहट से हंसे, एक ऐसी हंसी जिसमें रोना छुपा था।
"अब मैं रिटायर हूँ। जिम्मेदारियां खत्म हो गई हैं। बैंक में बहुत पैसा है... हम दुनिया की सबसे महंगी चाय पी सकते हैं। लेकिन... अब मेरे सामने वाली कुर्सी खाली है।"
उन्हें आज समझ आ रहा था कि प्रेम 'महंगी चीजों' में नहीं, बल्कि 'छोटे पलों' में होता है।
वह याद करते हैं कि कैसे सुधा कई बार बस उनका हाथ थामना चाहती थी, लेकिन वे अपना हाथ छुड़ाकर काम में लग जाते थे। आज उनके हाथ खाली थे, और पकड़ने वाला कोई नहीं था।
"जिम्मेदारी निभाते-निभाते, मैं पति तो बना रहा, पर दोस्त बनना भूल गया।"
उन्होंने महसूस किया कि जीवन कोई 'फिक्स्ड डिपॉजिट' (FD) नहीं है कि आप खुशियों को बैंक में जमा करते रहें और बुढ़ापे में ब्याज सहित निकालें। खुशियां आइसक्रीम की तरह होती हैं, उन्हें उसी वक्त चखना पड़ता है, वरना वे पिघल जाती हैं। सुधा पिघल गई थी, और सोमेश के हाथ में अब सिर्फ पिघली हुई यादों की चिपचिपाहट बची थी।
बाहर बारिश तेज हो गई थी। बादलों की गड़गड़ाहट ऐसी लग रही थी जैसे कुदरत सोमेश बाबू पर चिल्ला रही हो—"जाग जाओ सोमेश! अब भी थोड़ी सांसे बाकी हैं!"
सोमेश बाबू ने एल्बम बंद कर दिया। बहुत हो गया अतीत का हिसाब। अब और नहीं।
अचानक, उनके चेहरे पर एक दृढ़ता (determination) आ गई। वही दृढ़ता जो जवानी में नाटक करते वक्त आती थी।
आखिरी पन्ने पर अपनी स्याही
सोमेश बाबू ने अपनी पासबुक, फिक्स्ड डिपॉजिट के कागज और मेज पर रखी दवाइयों की डिब्बी को एक तरफ सरका दिया। इन कागजों में उनका 'भविष्य' सुरक्षित था, लेकिन उनका 'वर्तमान' दम तोड़ रहा था।
उन्होंने अपनी लाठी उठाई। घुटनों में पुराना दर्द (गठिया) था, हड्डियों से 'कड़क' की आवाज़ आई, लेकिन आज उनके इरादों में लोहे जैसी मजबूती थी। वे धीरे-धीरे, डगमगाते कदमों से मुख्य दरवाजे की ओर बढ़े।
जैसे ही उन्होंने दरवाजा खोला, हवा का एक तेज झोंका बारिश की बौछारों को लेकर भीतर आया। उनके चेहरे पर पानी की बूंदें पड़ीं। एक ठंडी सिहरन उनके शरीर में दौड़ गई।
तभी पीछे से आवाज़ आई।
"पापा? आप कहां जा रहे हैं?"
यह उनका बेटा अमित था। अमित के हाथ में टीवी का रिमोट था और चेहरे पर वही चिंता, वही व्यावहारिकता (practicality) थी जो कभी सोमेश के चेहरे पर हुआ करती थी।
"अंदर आइए पापा," अमित ने तेज़ आवाज़ में कहा, "बाहर तूफान है। फिसल जाएंगे, हड्डी टूट जाएगी। इस उम्र में निमोनिया हो गया तो बचना मुश्किल है।"
सोमेश बाबू दरवाजे की चौखट (देहरी) पर रुक गए।
यही वो पल था। यही वो आवाज़ थी—"मत जाओ", "बीमार पड़ जाओगे", "गिर जाओगे"—जिसने उन्हें 75 साल तक रोका था।
सोमेश बाबू पीछे मुड़े। उन्होंने अपने बेटे को देखा, जो सुरक्षा के उसी पिंजरे में कैद था जिसे सोमेश ने बनाया था।
"बेटा," सोमेश बाबू ने एक शांत मुस्कान के साथ कहा, "मैं पिछले 75 सालों से 'बच-बच कर' जी रहा हूँ। मैंने एक्सीडेंट से बचने के लिए कभी गाड़ी तेज नहीं चलाई। मैंने बीमारी से बचने के लिए कभी बारिश नहीं देखी। लेकिन देखो... बुढ़ापा फिर भी आ गया। मौत तो फिर भी आएगी।"
"लेकिन पापा..."
सोमेश ने हाथ उठाया। "अमित, आज तक मैं सिर्फ 'सांस' ले रहा था। आज मुझे 'जीने' दो। अगर आज मैं बीमार होकर मर भी गया, तो कम से कम मुझे यह सुकून होगा कि मैं अपनी मर्जी से मरा हूँ, डर से नहीं।"
अमित कुछ बोल नहीं पाया। वह हक्का-बक्का खड़ा रहा।
सोमेश बाबू ने चौखट लांघ दी।
बारिश और मुक्ति
वे सीधे आंगन के बीचो-बीच चले गए।
मूसलाधार बारिश ने एक ही पल में उन्हें ऊपर से नीचे तक भिगो दिया। उनका सफेद कुर्ता शरीर से चिपक गया। पानी उनकी झुर्रियों से होता हुआ, उनकी आँखों के चश्मे पर बहने लगा।
ठंड बहुत थी, लेकिन अजीब बात थी—उन्हें ठंड नहीं लग रही थी। उन्हें एक आग महसूस हो रही थी। आज़ादी की आग।
उन्होंने अपना चश्मा उतारा और जेब में रख लिया। अब दुनिया धुंधली थी, लेकिन महसूस बहुत साफ हो रही थी।
उन्होंने अपना चेहरा आसमान की तरफ उठाया। बारिश की बूंदें उनकी बंद आँखों पर, उनके माथे पर, उनके सूखे होंठों पर गिर रही थीं। उन्होंने अपनी बाहें फैला दीं।
अचानक, सोमेश बाबू हंसने लगे।
शुरुआत में यह हंसी धीमी थी, लेकिन फिर जोर-जोर से कहकहे गूंजने लगे। यह हंसी उस 'क्लर्क सोमेश' की नहीं थी, यह हंसी उस 'मदन' की थी जो कीचड़ में कूदता था, यह हंसी उस 'नाटक के पात्र' की थी जो राजा बना था।
उन्होंने नीचे देखा। उनके पैर कीचड़ में सने थे। उनके महंगे सैंडल खराब हो चुके थे।
"देखो माँ!" वह बारिश के शोर में चिल्लाए, जैसे 10 साल का बच्चा अपनी माँ से कह रहा हो, "देखो मेरे कपड़े गंदे हो गए! मैंने जूते खराब कर लिए!"
वह आंगन में ही, कीचड़ के बीच, अपनी लाठी फेंककर बैठ गए। उन्होंने गीली मिट्टी को अपने हाथों में उठाया।
उस मिट्टी की खुशबू ने उन्हें बता दिया कि जीवन सुरक्षा में नहीं, अनुभव में है।
उन्हें अपनी पत्नी सुधा का ख्याल आया। उन्हें लगा जैसे बारिश की बूंदों में सुधा उन्हें छू रही है।
"सुधा," उन्होंने आसमान की ओर देखकर कहा, "देर कर दी मैंने। पर देखो, आज मैं भीग रहा हूँ। हम साथ भीग रहे हैं।"
उस रात सोमेश बाबू को तेज़ बुखार आया। वे हफ़्तों बीमार रहे। लेकिन उन हफ़्तों में, उनके चेहरे पर एक ऐसी शांति थी जो पिछले 75 सालों में कभी नहीं देखी गई।
जब वे ठीक हुए, तो वे अब वो डरे हुए बुजुर्ग नहीं थे जो मौत का इंतजार करते थे।
उन्होंने अपनी डायरी के आखिरी पन्ने पर कांपते हाथों से बस एक लाइन लिखी:
"जीवन की किताब के सारे पन्ने कोरे और साफ रखने की जिद में मैं बहुत कुछ खो बैठा। लेकिन शुक्र है... आखिरी पन्ने पर मैंने अपनी मर्जी की स्याही गिरा ही दी। अब मेरी कहानी अधूरी नहीं है।"
the end